भारत में खाया जाने वाला खाना पोषण की दृष्टि से बहुत समृद्ध है. गरीबी में भी गांवों के मेहनतकशों ने मामूली कीमत पर खाने की थाली में व्यंजनों का जो तालमेल बैठाया है उसमें पौष्टिकता का अद्भुत संतुलन है. यह बात भारत के सभी इलाकों के भोजन में दिखाई देती है. भले ही आपको हर परोसी जाने वाली थाली में अनाज, दालों, सब्जियों और पेय पदार्थों में विविधता दिखाई देती है मगर पौष्टिक तत्वों की मौजूदगी की दृष्टि से इस ग्रामीण-कस्बाई भारतीय थाली में गजब की समानता है. हर थाली में कार्बोहाइड्रेट, विटामिन, ग्लूकोज, वसा, मिनरल्स इत्यादि तत्वों का बेहतरीन संयोजन मौजूद है. इनमें डाले जाने वाले मसाले औषधीय गुणों को समेटे रहते हैं. चुटकी भर मसाले सामान्य से दिखने वाले खाने को भी जायकेदार बना देते हैं. यह भोजन इतना संतुलित है कि आपकी पोषण की सभी जरूरतों को भी पूरा करता है और आपको मोटापे और बीमारियों से भी बचाता है.
उत्तराखण्ड में पारम्परिक तौर पर खाया जाने वाला खाना भी इन्हीं मानदंडों को बखूबी पूरा करता है. बाबा रामदेव के अवतार लेने से पहले भी हमारे पूर्वजों ने खान-पान की जो शैली विकसित की वो जायकेदार तो है ही उसमें गजब की पौष्टिकता भी है. अपने आस-पास मिलने वाले अनाज, सब्जियों और मसालों के बढ़िया फ्यूजन से हमारे बुजुर्गों ने दिनचर्या में ऐसी थाली शामिल की जो पौष्टिक, स्वास्थ्यवर्धक होने के साथ-साथ श्रमसाध्य पहाड़ी जीवन के लिए ऊर्जा की जरूरतों को बखूबी पूरा करती है. कई पीढ़ियों के सहजज्ञान से विकसित इस भोजन में कई औषधीय गुण भी हैं, ऐसा कई योगाचार्यों और वैद्यों के अध्ययनों के निष्कर्ष बताते हैं.
बहरहाल, पहाड़ी भोजन में ऐसा ही एक व्यंजन है भट के डुबुक, डुबके या भटिया. यह विशेषकर कुमाऊं में खाया जाता है. इसे भट की दाल से बनाया जाता है. जो पहाड़ों में आसानी से उगाई जा सकती है. भट की दाल पारंपरिक जैविक तरीके से ही पैदा की जाती है, अतः इसमें वे दुर्गुण नहीं होते जो रासायनिक खाद के इस्तेमाल के कारण बाजार में मिलने वाली लोकप्रिय दालों में सहज ही पाए जाते हैं. भट्ट की दाल, जिसे भट्ट मास और कलभट्ट नामों से भी जाना जाता है, प्रोटीन, आयरन, कैल्शियम, विटामिन और फाइबर से भरपूर है. इसके अलावा भट का सेवन एलडीएल कॉलेस्ट्रोल को घटाने और एचडीएल कॉलेस्ट्रोल को बढ़ाने का काम भी करता है. कुल मिलाकर यह व्यंजन पहाड़ी लोगों की ही तरह दिखने में सादा, सरल और भीतर से गुणों की खान है.
इसे बनाने की विधि बहुत आसान है. रात भर भट की दाल को मामूली चावल डालकर भिगोने रख दिया जाता है, कम-से-कम चार घंटे भिगोना पर्याप्त है. इसके बाद इसे सिलबट्टे में पीसकर दरदरा पेस्ट बना लिया जाता है. मिक्सी में पीसने से इसका जायका आधा रह जाता है. सिलबट्टा, लोहे की कढ़ाई और लकड़ी की आग इसे बेहतरीन बनाने के लिए जरूरी हैं. पिसाई के दौरान ही चने के दाने बराबर गंद्रायनी भी साथ में पीस ली जाती है. गंद्रायनी उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पायी जाने वाली जड़ी-बूटी है जिसका पहाड़ी लोग मसाले के रूप में इस्तेमाल किया करते हैं.
अब एक लोहे की कढ़ाई में सरसों के तेल में थोड़े से प्याज, लहसुन और अदरक को फ्राई किया जाता है. कहीं-कहीं प्याज, लहसुन, अदरक वगैरह नहीं भी डाले जाते. अब इसमें भट की दाल के दरदरे पेस्ट को डाल दिया जाता है. इस पेस्ट को पिसा हुआ धनिया, हल्दी और नमक मिलाकर भूना जाता है. बाद में पानी डालकर मद्धम आंच में पकने के लिए छोड़ दिया जाता है. इसे कम-से-कम 45 मिनट तक पकाया जाता है. इस बीच यह ध्यान दिया जाता है कि डुबके कढ़ाई के तले से चिपककर जल न जायें, इसलिए मिश्रण को बीच-बीच में डाढू से चलाते रहा जाता है. इस प्रक्रिया में इसका रंग लगातार गहरा होता जाता है. अंत में इस पर शुद्ध घी को गर्म करके हींग का तड़का लगाया जाता है. तैयार डुबके को भात के साथ परोसा जाता है. डुबके-भात के साथ भांग या तिल की चटनी की सोहबत जरूरी है. हरे साग के टपकिये की संगत में तो भोजन की रंगत और भी बढ़ जाती है.
सुधीर कुमार हल्द्वानी में रहते हैं. लम्बे समय तक मीडिया से जुड़े सुधीर पाक कला के भी जानकार हैं और इस कार्य को पेशे के तौर पर भी अपना चुके हैं. समाज के प्रत्येक पहलू पर उनकी बेबाक कलम चलती रही है. काफल ट्री टीम के अभिन्न सहयोगी.
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1 Comments
Anonymous
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