पुण्यतिथि (मई 05) पर विशेष
शूरवीर सिंह पंवार (18/05/1907 – 05/05/1991) (Shoorveer Singh Panwar)
अप्रैल 1992 में इलाहाबाद से आदरणीय मोहनलाल बाबुलकर जी का पत्र मुझे मिला कि ‘देहरादून टाउन हॉल, में उन्नीस अप्रैल को डॉक्टर भक्तदर्शन और कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार को श्रद्धांजलि स्वरुप ‘वसुधारा’ के श्रद्धांजलि अंक के लोकार्पण के सिलसिले में देहरादून आ रहा हूँ, तुम साथ रहना.’ डॉक्टर भक्तदर्शन और कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार की यह पहली पुण्यतिथि वर्ष था. टाउन हॉल खचाखच भरा हुआ था, मंचासीन श्रीमती सावित्री भक्तदर्शन, मेहरबान सिंह नेगी, कर्नल युद्धवीर सिंह परमार, श्रीमती सुमित्रा धूलिया, मोहनलाल बाबुलकर तथा मुख्य अथिति महन्त इन्द्रेश चरणदास जी के अतिरिक्त हॉल में उपस्थित राधाकृष्ण कुकरेती, कर्नल इन्दर सिंह रावत, बलवन्त सिंह नेगी, लेफ्टिनेंट जनरल महेन्द्र सिंह गुसाईं, चंद्र सिंह रावत आदि गणमान्य लोगों ने दिवंगत विद्वानों के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला.
टिहरी का निवासी होने के कारण कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार (18/05/1907 – 05/05/1991) के दर्शन दो-तीन बार अवश्य हुये थे. लगभग साढ़े पाँच फुट छरहरी काया, सुतवा नाक, सिर पर पहाड़ी टोपी, अचकन और चूड़ीदार सफेद पायजामा, आँखों में चमक और मुख पर छलकता आत्मविश्वास. बातों में माधुर्य तो नहीं किन्तु अकड़ भी नहीं. तनकर बात करने का अन्दाज. हमारा पुराना दरबार जाना कदाचित ही होता था. मेरा गांव टिहरी के पूरब में भिलंगना की उपत्यका में बसा हुआ है और पुराणा दरबार टिहरी नगर के पश्चिमी छोर पर. मेरे गांव, इलाके के लोग टिहरी की भादो की मगरी, चना खेत व सुमन चौक क्षेत्र तक ही बसे थे. पुराणा दरबार बहुत पुरानी बसासत थी जब दिसम्बर 1815 में महाराजा सुदर्शन शाह ने टिहरी राजधानी के रूप में बसाया. पुराणा दरबार हम तीन कारणों से ही जाते थे; भारतीय स्टेट बैंक में, टिहरी प्रवास के दौरान बस अड्डे से घूमते हुये और कभी कॉलेज से बंक मारने पर.
कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार संयुक्त प्रान्त (अविभाजित उत्तर प्रदेश) सरकार में प्रशासनिक पदों पर रहे, किन्तु समाज में उनकी छवि प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर नहीं विद्वान लेखक, इतिहास पुरुष व पुरातत्वविद के रूप में है. सौ से अधिक छात्रों को उनकी जाति, धर्म पूछे बिना पारिवारिक तथा निजी खर्चों में कटौती कर मेहनत से जुटाये गये धन से खरीदी गई हजारों पुस्तकें, दर-दर भटककर एकत्रित किये गये ताम्रपत्र व अन्य बेशकीमती पांडुलिपियां उपलब्ध करवाकर उन्हें शोध पूरा करवाया. सैकड़ों छात्रों को अपने व्यय से भोजन व आवास की सुविधाएं उपलब्ध करवाकर शिक्षित करवाया ताकि शिक्षा के क्षेत्र में प्रसार हो. अपनी भाषा व संस्कृति के प्रति इतना समर्पण कि ब्रिटिश काल में विदेश में शिक्षा प्राप्त होने पर भी उन्होंने न मातृभाषा गढ़वाली बोलना छोड़ा और न अपने सिर पर पहाड़ी टोपी पहनना.
उच्च शिक्षा प्राप्त राजपरिवार का सदस्य, टिहरी राज्य में एस. डी. एम., डी. एम. व होम सेक्रेट्री, भारतीय सेना में कैप्टन और उत्तर प्रदेश प्रान्त में ए. डी. एम. जैसे महत्वपूर्ण पदों पर सेवा दे चुके ठाकुर साहब के भीतर अहंकार लेशमात्र भी नहीं था. जिसके सैकड़ों शोधपत्र देश के विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थें, अनेक विश्वविद्यालयों के विषय विशेषज्ञ भी जिनके ज्ञान का लोहा मानते थे ऐसा विद्वान शूरवीर सिंह पंवार राजपरिवार के होने के बावजूद साहित्य सेवा से जुड़े किसी भी व्यक्ति के दरवाजे पर जाने से नहीं हिचकते थे, एडवोकेट महावीर प्रसाद गैरोला, साहित्यकार मोहनलाल नेगी, डॉ. यशवन्त सिंह कटौच, डॉ राकेश चन्द्र नौटियाल, एडवोकेट वंशीलाल पुण्डीर, सरदार प्रेम सिंह आदि विद्वानों ने यह अपने संस्मरणों में लिखा. सरकारी सेवा में अधिकांश लोग जहाँ अपनी ऊर्जा धनोपार्जन पर लगाते हैं वहीं ठाकुर साहब की ऊर्जा, समय और पैसा दुर्लभ पांडुलिपियों के संग्रहण और ताम्रपत्रों की खोज में लगा. पुराणा दरबार पुस्तकालय के संरक्षण व संवर्द्धन में आजीवन लगे रहे और संत चन्ददास, संत लक्षदास, संत मीता साहिब, टीकाराम व गिरधारी दुबे आदि गुमनाम विद्वानों के साहित्य की खोज में लगे रहे.
जातिवादी चश्मे से समाज का वर्गीकरण करने वाले कुछ तुच्छ लोग शूरवीर सिंह पंवार पर कट्टरता के आरोप लगाते रहे पर ठाकुर साहब नौटियाल, डंगवालों को अपना गुरु मानते थे और गुरू किसी भी उम्र का ही क्यों न रहा हो उसके सामने नतमस्तक होकर ही प्रणाम करते थे. पीपल-बरगद पेड़ या देवता रूप में स्थापित प्रस्तर परिक्रमा करना वह कभी नहीं भूलते. कोई स्थानीय हो या बाहर से आया हुआ, यदि उन्हें मालूम हो जाय कि जिससे वह बात कर रहे हैं गढ़वाली है तो फिर उससे वह गढ़वाली में ही बात करते. सामने वाले को तब गढ़वाली में ही बात करनी पड़ती थी. गढ़वाली भाषा के प्रति इतनी चाहत, इतना लगाव व समर्पण शायद ही कहीं हो.
ठाकुर साहब के बारे में विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार थे
ठकुरानी ठा. शूरवीर सिंह ए. के. पंवार- ‘ठाकुर साहब को तरह-तरह के व्यंजन खाने और मित्रों को खिलाने का शौक रहा है… रामपुर में सेवाकाल के दौरान वहाँ के नवाब साहब से पारिवारिक सम्बन्ध जैसे बन गए थे, जिससे उनकी बहन नन्हीं बेगम ठाकुर साहब को राखी बान्धती थी. वहाँ से निकलने के बाद भी वह राखी पर आया करती थी और यह क्रम कई वर्षों तक चलता रहा.
कर्नल युद्धवीर सिंह पंवार- ‘…हमारे पिता राजकुंवर विचित्रशाह की भांति कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार जी साहित्य प्रेमी व विद्या व्यसनी रहे. उन्हे देर रात तक पुस्तकें पढ़ने-लिखने की आदत थी और यह आदत उनकी अन्तिम समय तक बनी रही…’
डॉक्टर महावीर प्रसाद गैरोला- ‘फतेह प्रकाश’ एवं ‘अलंकार प्रकाश’ का सम्पादन एवं प्रकाशन करके भी कैप्टन साहब ने ख्याति अर्जित कर ली थी. ‘गढ़वाली एवं गढ़वाल के प्रमुख अभिलेख एवं शिलालेख’ को भी कैप्टन साहब ने पुस्तक रूप में प्रकाशित किया था… मेरे अथक प्रयास के बाद भी गढ़वाल तथा कुमाऊं विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित नहीं नहीं किया…’
डॉक्टर गोविन्द चातक- ‘…वह एक लेखक ही नहीं एक सजग पाठक भी थे. ‘जीतू की गाथा’ को जब मैंने अपनी लोककथाओं की पुस्तक में शामिल किया तो ए.डी.एम. के रूप के अलीगढ़ में तैनाती के दौरान उनकी टिप्पणी मिली. भौतिक रूप से उनसे मिलने का सिलसिला तदोपरान्त ही प्रारम्भ हुआ. पुराणा दरबार की टूटी-फूटी विशाल इमारत में अकेले रहने वाला व्यक्ति, जो यहाँ धूल-गर्द से भरी चारों तरफ बिखरी किताबों व पांडुलिपियों के बीच स्वयं अतीत या अतीतातीत बनकर बैठा है. उन्हें देखकर कभी लगता जैसे कोई योगी भैरवी की साधना में जुटा हो. वैसे ही उजाड़ पुराना दरबार का झांकता अतीत, वैसे ही जीवन की सांझ, किताबें पांडुलिपियां और नीचे टिहरी का उजड़ता हुआ शहर…’
मोहनलाल बाबुलकर- ‘…ठाकुर साहब ‘शोध का पितामह’ है. …गढ़वाल के इतिहास के बारे में इस समय जो भी ज्ञातव्य है वह उनकी साधना का ही परिणाम है. वह गढ़वाल के इतिहास के सबसे बड़े अन्वेषक और जानकार जाने जाते रहे हैं. उनकी अपनी एक मौलिक दृष्टि थी, एक नया दृष्टिकोण था…’
सत्य प्रसाद रतूड़ी- ‘…ठाकुर साहब को अपने संग्रहित पुस्तकों से अथाह प्रेम था वह पुस्तकों को अलमारी में नहीं बक्सों में छुपाकर रखते थे. अपने विशाल अनन्य पुस्तकालय को आग से बचाए रखने के लिए पूरे भवन पर बिजली फिटिंग नहीं करवाई और न पुस्तकालय भवन के लिए कोई कनेक्शन ही था…’
मोहनलाल नेगी- ‘…ठाकुर साहब अपने पुस्तकालय की ओर देखने तक नहीं देते थे और किसी का पुस्तकालय में जाने का प्रश्न ही नहीं था. पुस्तकों के प्रति उन्हें अथाह प्रेम था जिससे वह बड़े शंकालु प्रकृति के हो गये थे. उन्हें शक रहता था कि लोगों की नजर उनकी किताबों पर है… ठाकुर साहब राजपूतों के बड़े हिमायती माने जाते रहे हैं. उनका तर्क था राजपूत क्योंकि बुद्धि और विद्या में ब्राह्मणों से पीछे थे इसलिए वे जोर-शोर से राजपूतों के उत्थान की बात करते थे…’
डॉक्टर कुसुम डोभाल- ‘…प्राचीन टिहरी गढ़वाल की परंपरा के संदर्भ में कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार के लेख पढ़ने को मिले. इन लेखों में इतिहास साहित्य एवं पुरातत्व का समावेश पाकर लगा कि सत्य, शिव एवं सुन्दरता मानो एक साथ ही प्रतिष्ठित हो गए हैं. उनके लेख अपनी व्यापकता में शोध एवं वोध की सम्भावना को आबद्ध किए हुए हैं. उनके साहित्यिक जीवन के उन्मेष का श्रेय उनकी दादी स्वर्गीय राजमाता महारानी गुलेरिया एवं उनकी माता को है… कैप्टन साहब का गढ़वाल की संस्कृति एवं भाषा के प्रति रागात्मक सम्बन्ध है. इसका प्रमाण उनकी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘गढ़वाली के प्रमुख अभिलेख एवं दस्तावेज’ है. इस पुस्तक की भूमिका में गढ़वाली भाषा को वैदिक भाषा की ज्येष्ठ पुत्री कहा गया है… (‘हिमालय के बहुआयामी व्यक्तित्व का कृतित्व)
ठाकुर साहब के शोध कार्यों का यदि विधिवत अध्ययन किया जाय तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उपरोक्त विद्वानों के वक्तव्यों से तो ठाकुर शूरवीर सिंह पंवार जी के व्यक्तित्व व कृतित्व की एक झलक मात्र ही परिलक्षित होती है.
‘केदारखण्ड गढ़वाल में नागवंश’, ‘वाल्हीक जनपद कहाँ था’ ‘उत्तराखंड के इतिहास में मौखरी काल’ ‘आदिमानव की जन्मभूमि उत्तराखण्ड’ ‘शिवाजी का प्रभाव उत्तराखण्ड तक था’ आदि अनेक महत्वपूर्ण लेख उनकी इतिहास एवं ऐतिहासिक खोजों के प्रति प्रतिबद्धता व्यक्त करती है. वहीं ‘महरौली (दिल्ली) के लौह स्तंभ का ऐतिहासिक महत्व’ ‘उत्तरकाशी के शक्ति स्तम्भ का अभिलेख’ आदि लेख उनकी पुरातत्विक जिज्ञासा की अभिव्यक्ति है. फतेह प्रकाश, अलंकार प्रकाश व गढ़वाली एवं गढ़वाल के प्रमुख अभिलेख एवं शिलालेख आदि उनके प्रकाशित ग्रंथ हैं. उनके संग्रहालय में उपलब्ध हस्तलिखित ग्रंथों की सूची, जो कि ठाकुर साहब द्वारा स्वयं प्रेषित की गई थी, इस प्रकार है;
1. ‘वास्तु शिरोमणि’- संस्कृत ग्रंथ, शंकर गुरु कृत श्रीनगर गढ़वाल में. (सत्रहवीं शती पूर्वार्ध की रचना)
2. ‘गढ़वाल राज वंशावली’ संस्कृत ग्रंथ, कवि देवराज कृत टिहरी गढ़वाल की उन्नीसवीं शती की रचना. (छोटे आकार का ग्रंथ)
3. ‘श्री दत्तात्रेय तंत्र’ संस्कृत ग्रंथ, हिंदी भाषानुवाद सहित.
4. ‘वृत कौमिदी ग्रन्थ’(छन्द सार पिंगल)- हिंदी भाषा, कवि मतिराम त्रिपाठी कृत संवत् 1758 वि. की रचना.
5. ‘रसरंग’ हिंदी भाषा, कवि टीकाराम त्रिपाठी कृत संवत् 1841 वि. की उत्कृष्ट रचना.
6. ‘सुदामा चरित्र’ हिंदी भाषा, कवि गिरधारी, सातनपुर-रायबरेली, बांसवाड़ा निवासी कृत. संवत् 1905 वि. की रचना.
7. ‘भागवत दशम स्कन्द’ कृष्णलीला- हिंदी भाषा, कवि गिरधारी कृत संवत् 1894 वि. की उत्कृष्ट रचना.
8. ‘रसमसाल’ हिंदी भाषा, कवि गिरधारी कृत संवत् 1950 वि.
9. ‘कृष्ण चरित्र’(12 सर्ग) कविवर चिंतामणि त्रिपाठी कृत हिंदी ग्रंथ.
1. चन्ददास कृत ‘चन्द काव्य कौमुदी’ (विशाल आकार) हिंदी भाषा, अठाहरवीं शती की रचना.
11. ‘अमृतराव प्रकाश’ हिन्दी भाषा में ऐतिहासिक महत्व का ग्रंथ, कवि ईश्वरी प्रसाद संवत् 1874 वि.
12. ‘विद्वन्मोद तरंगिणी’ हिंदी भाषा में अनेक श्रेष्ठ कवियों की उत्कृष्ट रचनाओं का विशाल संग्रह, जो राजा सुव्वा सिंह एवं सुवंस शुक्ल द्वारा संग्रहित किया गया. इसी ग्रंथ से हिंदी भाषा के प्रसिद्ध इतिहासकार शिवसिंह सेंगर ने ‘शिवसिंह-सरोज’ ग्रंथ लिखने में विशेष सहायता ली थी.
13. मेरे संग्रह में अठाहरवीं एवं उन्नीसवीं शती के अन्य श्रेष्ठ साहित्यकारों कवि मून, उदयनाथ, नेवाज, मीता साहब, भवानी प्रसाद द्विजराज, राव भूपाल सिंह, नन्द कुमार दत्त, समनेश, देव, भूधर आदि की रचनाओं के उत्कृष्ट संग्रह है.
14. ‘सभासार’ हिंदी भाषा में, महाराजा सुदर्शन शाह, टिहरी गढ़वाल नरेश कृत सन् 1828 ई. की रचना.
15. ‘गढ़वाल का पुरातत्व’ फोटो चित्रों सहित- हिंदी भाषा में, कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार कृत.
विडम्बना ही है कि जहाँ सौ से अधिक विद्वानों ने उनके मार्गदर्शन में उनके द्वारा संग्रहित ग्रन्थों, शोधपत्रों, पाण्डुलिपियों और ताम्रपत्रों को आधार बनाकर एम. फिल. और पी. एच. डी. की उपाधियां प्राप्त कर देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के विशेषज्ञों के रूप में ख्याति अर्जित की उन्हीं ठाकुर साहब को किसी भी विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि तक से सम्मानित नहीं किया गया. उनके शोध व उनके लेखों का समग्र मूल्यांकन सही अर्थों में आज तक भी नहीं हो पाया है.
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देहरादून में रहने वाले शूरवीर रावत मूल रूप से प्रतापनगर, टिहरी गढ़वाल के रहने वाले हैं. शूरवीर की आधा दर्जन से ज्यादा किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार छपते रहते हैं.
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1 Comments
मृगेश
श्रीनगर बिरला कॉलेज में रहते टिहरी में उनकी बहुआयामी प्रतिभा व किताबों के दुर्लभ संकलन को देखने का सौभाग्य मिला. आज फिर वह यादें आपके लेख ने वापस दे दीं.