अल्मोड़ा विविधताओं से भरा शहर है. विविधतायें इतनी कि कभी-कभी विविधता और विचित्रता में अंतर कर पाना किसी सामान्य आदमी के लिए असंभव होता है, मगर एक अल्मोड़िया के लिए नहीं. कहीं कोई मिलता नहीं, कहीं कोई उत्तर नहीं, सब सामान्य, सब नॉर्मल. Shankar Chacha Almora Memoir
इसी तरह के विचित्र अथवा सामान्य व्यक्ति थे शंकर सिंह, जिन्हें दूर-दूर तक लोग शंकर चचा के नाम से जानते थे.
यूं तो शंकर चचा हमेशा भौगोलिक रूप से दन्या और लमगड़ा के बीच किसी गांव में सदैव अवैध शराब की तस्करी में लिप्त पाए जाते थे, पर किसी दैव कृपा से वह उसी समय अल्मोड़ा कचहरी के किसी दफ्तर में भी पाए जाते. Shankar Chacha Almora Memoir
लगभग बावन-पचपन साल के मझोले कद के, अतिरिक्त श्यामल वर्ण के, खल्वाट खोपड़ी वाले शंकर चचा मूल रूप से एक शराब तस्करी गैंग के सरगना थे, जो तस्करी के साथ-साथ इस जुगत में रहता था कि कैसे पनुवानौला ठेके को कम राजस्व पर उठाया जाये जिससे कि शराब की दुकानों जिससे कि ठेकेदारी की आड़ में तस्करी भी चलती रहे.
एक समय में एक ही आदमी का दो जगह पाया जाना केवल शंकर चचा के बस की ही बात थी. उन्होंने ठीक अपने जैसा दिखने वाला व्यक्ति अपने यहां नौकरी पर लगाया था, उसका नाम भी शंकर था. जब मूल शंकर शराब की खेप को क्षेत्र में खपाने जाता तब डमी शंकर अल्मोड़ा कचहरी के किसी दफ्तर में कोई अर्जी जो कि ज्यादातर फर्जी होती थी लगाते हुए मिलता.
बकौल शंकर चचा इस कारस्तानी के दो फायदे थे, पहला कभी पकड़े जाने पर न्यायालय में यह सिद्ध करना आसान रहता कि अमुक तिथि को कथित अभियुक्त लाल पहाड़ी के पीछे शराब तस्करी या जुए के अपराध में लिप्त था ही नहीं, बल्कि उस दिन वह दन्या पंपिंग परियोजना की शिकायत करने तथा सूचना के अधिकार अधिनियम में इसके प्रस्ताव की नकल मांगने लोक निर्माण विभाग के अधीक्षण अभियंता के कार्यालय में उपस्थित था.
दूसरा फायदा यह था कि शंकर चचा के अपने एक रिश्तेदार जो कि उनके व्यापार के बी श्रेणी के रूप में पार्टनर थे और आबकारी विभाग के दफ्तर के बाहर ठेकेदारों से शराब खरीदने की कोशिश करते पाए जाते, उन पर व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता के सिद्धांत के तहत नजर रखी जा सके, क्योंकि शंकर चचा के लिए भाईबंदी और व्यापार दो अलग-अलग जगह रखी जाने वाली चीजें थी.
कई सालों तक इस प्रकार की अदाकारियां पुराने फिल्मी खलचरित्रों – जिन्हें जीवन और जानकीदास जैसे अभिनेता निभाते थे – से प्रेरणा लेकर की जाती रहीं. पर फिल्मों की प्रेरणा फिल्मों की तरह फिल्मी होती है. मजे की बात खलनायक के साथ-साथ पुलिस भी तो उन्हीं फिल्मों से प्रेरणा लेती है, सो एक दिन दनिया पुलिस थाने के किसी नये भर्ती दरोगा ने पुराने जमाने के ब्रांडेड पुलिस अभिनेता इफ्तिखार से प्रेरणा ले ली. उसे मुखबिर खास द्वारा पक्की सूचना दी गई थी कि अमावस वाली रात को शंकर चचा अपनी गैंग के साथ हरियाणा ब्राण्ड की पैंतीस पेटी ला रहा है, जो पेटशाल की पुलिया से अंदर कटने वाले रास्ते पर आगे जाकर बमनस्वाल के मोहनराम की गोठ में रखा जाएगा. Shankar Chacha Almora Memoir
मुखबिर की सूचना पक्की थी. तथ्यों पर आधारित थी. सच्चाई और ईमान की गंध से फुल गले तक भरी थी, और उसके ऐवज में मुखबिर ने बोतल भी नहीं मांगी थी. ऊपर के चार तथ्य सूचना पर यकीन करने के लिए काफी थे.
अल्मोड़ा के मुखबिरों द्वारा अपनी एक खास भाषाशैली गढ़ी गई है, इसका प्रयोग केवल मुखबिरी के लिए होता है. इसमें सूचना एक शब्द से लेकर एक पैराग्राफ तक हो सकती है. वहीं कुछ सूचनाएं ऐसी भी होती हैं कि जिन्हें आवर्द्धक लेंस से भी पढ़ा जाए तो भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सके. जैसे – “आज शाम किसी जीप में कोई तीन-चार आदमी पेटशाल की तरफ आएंगे. नहीं भी आ सकते हैं. बाजार में तो यही सुना था. उनकी गाड़ी में माल हो सकता है.“
“माल तो घर-घर में हर पत्थर के नीचे दबा ठहरा दाज्यू. हरियाणा से कौन लाए जब बाड़ेछीना तक खुद माल डालने वाले ठहरे!
दरोगा स्थानीय था. मुखबिर की सूचनाओं का विश्लेषण करने में पारंगत था. इसमें उसकी पुलिस की ट्रेनिंग से ज्यादा कॉलेज के दिनों की संगत का ज्यादा योगदान था.
दरोगा ने ऐन सात बजे झुटपुटा घिरने से पहले, पेटशाल की पुलिया से आगे किसी मोड़ के पीछे जीप छिपा दी और बीच सड़क पर किसी मोटे पेड़ की टहनियां डालकर आसपास के खेतों में अपने सिपाहियों के साथ सावधान विश्राम से अलग जमीन से चिपक कर लेट गया. सब बावर्दी दुरूस्त थे.
लगभग पौने घंटे बाद दूर एक जीप की हल्की पीली लाइट दिखाई थी, जो मुश्किल से यह सूचना दे रही थी कि कोई चार पहिया वाहन आ रहा है. जीप जैसे-जैसे नजदीक आ रही थी दरोगा का रक्तचाप बढ़ रहा था, तभी मनीराम हैंड कॉस्टेबल ने कैलाश जो कि थाने का छोटा सिपाही था के कान में मुंह खोंस कर फुसफुसाया “कितनी बार शंकर चा से कहा कि जीप दे दे पर मानता ही नहीं. न तो बैटरी बदलवायेगा न जीप बेचेगा. एक बार तो मैं इस खटारा के उणपंचास हजार लगा के आ गया था.” Shankar Chacha Almora Memoir
अल्मोड़ा के खमसिल बुबू और उनका मंदिर
रावण के खानदान भर को फूंकने का ठेका सिर्फ अल्मोड़ा का है
छोटा सिपाही उनचास हजार के शून्य गिनते ही अपने भविष्य की उज्ज्वल तस्वीर की झलक पाकर उत्तेजित हो उठा. तब तक जीप पास आ गई और आश्चर्य की बात कि जीप लकड़ी के मोटे टुकड़े के पास आकर अपने आप बंद हो गई. लाइटें भी बुझ गईं. सिपाही दरोगा सब चैकन्ने थे. उन्हें लग रहा था कि जीप पर अंदर से सेमी ऑटोमेटिक राइफल का बर्स्ट अब आने ही वाला है. वह शहीद होने वाले हैं. गांव में उनके नाम का द्वार और इंटर कॉलेज का पुनर्नामकरण बस उनके नाम पर होने वाला है पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.
एक माचिस की तीली जली, और अंधेरे में एक काली गंजी खोपड़ी चमक उठी. अंधेरे में सिगरेट का धुआं, सस्ती शराब की गंध फैल रही थी. परछाईं ने तभी बंद पड़ी जीप में जोर से पैर मारा और अज्ञात मातृशक्ति के सम्मान में दो शब्द निकाले ही थे कि परछांई गिर पड़ी. परछाईं के गिरते ही पुलिस बल परछाईं पर, बोनेट पर, स्टैपनी पर, स्टीयरिंग पर टूट पड़ा. जिसे जो मिला वह वहीं टूट पड़ा. जो कहीं नहीं टूट पाया वह पहले से ही टूटे पड़े पर टूट पड़ा. अंधेरे में गजबजाहट फैल चुकी थी. परछांई लगातार गालियां बक रही थी. गालियों के कुछ स्वर-व्यंजन गायब हो रहे थे, उनके स्थान पर केवल हवा निकल रही थी.
टॉर्च लगाकर देखा गया तो पाया कि शंकर चचा अपने तीन साथियों के साथ देसी शराब के नशे में उच्च स्तरीय समाधि को प्राप्त कर चुका था,समाधि इतनी गहरी थी कि उसे वापस लाना इफ्तिखार, जीवन और जानकीदास इन तीनों की प्रेरणा के बस की बात न थी. गाड़ी की तलाशी लेने पर उसमें देसी शराब गुलाब की दो खाली बोतलें, किसी सस्ती दुकान से खरीदा गया भुटवा (मटन का एक प्रकार) और पांच रूपये वाली नमकीन के सिवा कुछ नहीं मिला. Shankar Chacha Almora Memoir
दारोगा के सामने स्थिति धर्मसंकट की थी. जेम्स बांड की खाल जैसे शंकर चचा ने खींच ली थी. दारोगा बेनकाब होने वाला था. पर वह भारत में था. उत्तरी अमेरिका में नहीं. उसे पता था कि जुर्म की संभावना मात्र के आधार पर जब बड़े-बड़े एनकाउंटर हो सकते हैं, और उन्हें सच बताया भी साबित किया जा सकता है तो फिर यह तो मामूली धारा साठ बटे बहत्तर आबकारी अधिनियम का हल्का केस था, जिसे अदालत और इजलास में कोई बहुत गंभीरता से नहीं लेता.
उस रात के बाद किसी ने शंकर चचा को तीन महीने तक नहीं देखा. शंकर चचा अल्मोड़ा जेल की सर्द कोठरी से “वर्क फ्रॉम होम” की तर्ज पर काम कर रहे थे और कसम खा रहे थे कि चरस के बाद दारू अब कभी नहीं पियेंगे.
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विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं.
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