शमशेर सिंह बिष्ट ठेठ पहाड़ी थे. उत्तराखंड के पहाड़ी ग्राम्य जीवन का एक खुरदुरा, ठोस और स्थिर व्यक्तित्व. जल, जंगल और ज़मीन को किसी नारे या मुहावरे की तरह नहीं बल्कि एक प्रखर सच्चाई की तरह जीता हुआ. शमशेर सिंह बिष्ट इसलिए भी याद आते रहेंगे कि उन्होंने पहाड़ के जनसंघर्षों के बीच खुद को जिस तरह खपाया और लंबी बीमारी से अशक्त हो जाने से पहले तक जिस तरह सक्रियतावादी बने रहे, वह दुर्लभ है. यह उनकी संघर्ष चेतना ही नहीं उनकी जिजीविषा और पहाड़ के प्रति उनके अटूट लगाव का भी प्रमाण है.
(Shamsher Singh Bisht)
उनका जन्म देश की आजादी से चंद महीनों पहले अल्मोड़ा में हुआ था. अभावग्रस्त बचपन को अपनी ताकत बना लेने वाले शमशेर सिंह बिष्ट ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 80 के दशक के आरम्भ में अल्मोड़ा कॉलेज के छात्र संघ अध्यक्ष के रूप में की. छात्र राजनीति में सक्रिय रहे और उत्तराखंड के चिपको, नशा नहीं रोजगार दो जैसे बड़े आंदोलनों से होते हुए अलग राज्य के निर्माण के स्वतःस्फूर्त आंदोलन के सक्रिय सहभागी बने. उन्होंने उत्तराखंड जन संघर्ष वाहिनी (लोक वाहिनी) नामक संगठन खड़ा किया. नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन में वो 40 दिन जेल में रहे.
पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या के बाद शराब माफिया के ख़िलाफ़ सबसे मुखर विरोध करने वालों में डॉ बिष्ट आगे थे. उनकी शख्सियत की यही खूबी भी थी कि वो बस निकल पड़ते थे. और अपनी बात कहने में संकोच नहीं करते थे. अल्मोड़ा से उन्होंने जनसत्ता अखबार और अन्य पत्र पत्रिकाओं के लिए खबरें की और विशेष लेख भी लिखे. 1974 की अस्कोट आराकोट यात्रा में शामिल हुए और उसके बाद मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में अपना जीवन सामाजिक लड़ाइयों के लिए समर्पित कर दिया. राज्य गठन के बाद भी वे सत्ता के गलियारों में जगह तलाशने के बजाय आजीवन जनसंघर्षों का हिस्सा बने रहे. 22 सितम्बर 2018 के दिन उनका देहांत हो गया.
(Shamsher Singh Bisht)
आज शमशेर सिंह बिष्ट का जन्मदिन है.
शिवप्रसाद जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं और जाने-माने अन्तराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों बी.बी.सी और जर्मन रेडियो में लम्बे समय तक कार्य कर चुके हैं. वर्तमान में शिवप्रसाद देहरादून और जयपुर में रहते हैं. संपर्क: [email protected] .
यह आलेख पहले जनचौक पर छप चुका है और लेखक की अनुमति से यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है.
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