(भगतसिह का ‘अछूत का सवाल’ नामक लिखा यह लेख जून, 1928 के ‘किरती’ में ‘विद्रोही’ के नाम से प्रकाशित हुआ था.)
हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश के नहीं हुए. यहाँ अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं. एक अहम सवाल अछूत-समस्या है. समस्या यह है कि 30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जो 6 करोड़ लोग अछूत कहलाते हैं, उनके स्पर्श-मात्र से धर्मभ्रष्ट हो जायेगा! उनके मन्दिरों में प्रवेश से देवगण नाराज़़ हो उठेंगे! कुएँ से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआँ अपवित्र हो जायेगा! ये सवाल बीसवीं सदी में किये जा रहे हैं, जिन्हें कि सुनते ही शर्म आती है.
हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है, लेकिन हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देते हुए भी झिझकते हैं जबकि पूर्णतया भौतिकवादी कहलाने वाला यूरोप कई सदियों से इन्क़लाब की आवाज़ उठा रहा है. उन्होंने अमेरिका और फ्रांस की क्रान्तियों के दौरान ही समानता की घोषणा कर दी थी. आज रूस ने भी हर प्रकार का भेदभाव मिटाकर क्रान्ति के लिए कमर कसी हुई है. हम सदा ही आत्मा-परमात्मा के वजूद को लेकर चिन्तित होने तथा इस ज़ोरदार बहस में उलझे हुए हैं कि क्या अछूत को जनेऊ दे दिया जायेगा? वे वेद-शास्त्र पढ़ने के अधिकारी हैं अथवा नहीं? हम उलाहना देते हैं कि हमारे साथ विदेशों में अच्छा सलूक नहीं होता. अंग्रेज़ी शासन हमें अंग्रेज़ों के समान नहीं समझता. लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार है?
सिन्ध के एक मुस्लिम सज्जन श्री नूर मुहम्मद ने, जो बम्बई कौंसिल के सदस्य हैं, इस विषय पर 1926 में ख़ूब कहा – “If the Hindu society refuses to allow other human beings, fellow creatures so that to attend public schools, and if…the president of local board representing so many lakhs of people in this house refuses to allow his fellows and brothers the elementary human right of having water to drink, what right have they to ask for more rights from the bureaucracy? Before we accuse people coming from other lands, we should see how we ourselves behave toward our own peoply… How can we ask for greater political rights when we ourselves deny elementary rights to human beings.”
वे कहते हैं कि जब तुम एक इन्सान को पीने के लिए पानी देने से भी इन्कार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकारों की माँग करो? जब तुम एक इन्सान को समान अधिकार देने से भी इन्कार करते हो तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार माँगने के कैसे अधिकारी बन गये?
बात बिल्कुल खरी है. लेकिन यह क्योंकि एक मुस्लिम ने कही है इसलिए हिन्दू कहेंगे कि देखो, वह उन अछूतों को मुसलमान बनाकर अपने में शामिल करना चाहते हैं!
जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह ज़रूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जायेंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहाँ उनसे इन्सानों जैसा व्यवहार किया जायेगा. फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान हिन्दू क़ौम को नुक़सान पहुँचा रहे हैं, व्यर्थ होगा.
कितना स्पष्ट कथन है, लेकिन यह सुनकर सभी तिलमिला उठते हैं. ठीक इसी तरह की चिन्ता हिन्दुओं को भी हुई. सनातनी पण्डित भी कुछ न कुछ इस मसले पर सोचने लगे. बीच-बीच में बड़े ‘युगान्तरकारी’ कहे जाने वाले भी शामिल हुए. पटना में हिन्दू महासभा का सम्मेलन लाला लाजपतराय – जोकि अछूतों के बहुत पुराने समर्थक चले आ रहे हैं – की अध्यक्षता में हुआ, तो ज़ोरदार बहस छिड़ी. अच्छी नोक-झोंक हुई. समस्या यह थी कि अछूतों को यज्ञोपवीत धारण करने का हक़ है अथवा नहीं? तथा क्या उन्हें वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने का अधिकार है? बड़े-बड़े समाज-सुधारक तमतमा गये, लेकिन लाला जी ने सबको सहमत कर दिया तथा ये दो बातें स्वीकृत कर हिन्दू धर्म की लाज रख ली. वरना ज़रा सोचो, कितनी शर्म की बात होती. कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है. हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इन्सान का हमसे स्पर्श हो जाये तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है. इस समय मालवीय जी जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किये बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं! क्या ख़ूब यह चाल है! सबको प्यार करने वाले भगवान की पूजा करने के लिए मन्दिर बना है लेकिन वहाँ अछूत जा घुसे तो वह मन्दिर अपवित्र हो जाता है! भगवान रुष्ट हो जाता है! घर की जब यह स्थिति हो तो बाहर हम बराबरी के नाम पर झगड़ते अच्छे लगते हैं? तब हमारे इस रवैये में कृतघ्नता की भी हद पायी जाती है. जो निम्नतम काम करके हमारे लिए सुविधाओं को उपलब्ध कराते हैं, उन्हें ही हम दुरदुराते हैं. पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं, लेकिन इन्सान को पास नहीं बिठा सकते.
आज इस सवाल पर बहुत शोर हो रहा है. उन विचारों पर आजकल विशेष ध्यान दिया जा रहा है. देश में मुक्ति-कामना जिस तरह बढ़ रही है, उसमें साम्प्रदायिक भावना ने और कोई लाभ पहुँचाया हो अथवा नहीं लेकिन एक लाभ ज़रूर पहुँचाया है. अधिक अधिकारों की माँग के लिए अपनी-अपनी क़ौम की संख्या बढ़ाने की चिन्ता सभी को हुई. मुस्लिमों ने ज़रा ज़्यादा ज़ोर दिया. उन्होंने अछूतों को मुसलमान बनाकर अपने बराबर अधिकार देने शुरू कर दिये. इससे हिन्दुओं के अहम को चोट पहुँची. स्पर्धा बढ़ी. फसाद भी हुए. धीरे-धीरे सिखों के बीच अछूतों के जनेऊ उतारने या केश कटवाने के सवालों पर झगड़े हुए. अब तीनों क़ौमें अछूतों को अपनी-अपनी ओर खींच रही हैं. इसका शोर-शराबा है. उधर ईसाई चुपचाप उनका रुतबा बढ़ा रहे हैं. चलो, इस सारी हलचल से ही देश के दुर्भाग्य की लानत दूर हो रही है.
इधर जब अछूतों ने देखा कि उनकी वजह से इनमें फसाद हो रहे हैं तथा उन्हें हर कोई अपनी-अपनी ख़ुराक समझ रहा है तो वे अलग ही क्यों न संगठित हो जायें? इस विचार के अमल में अंग्रेज़ी सरकार का कोई हाथ हो अथवा न हो लेकिन इतना अवश्य है कि इस प्रचार में सरकारी मशीनरी का काफ़ी हाथ था. ‘आदि धर्म मण्डल’ जैसे संगठन उस विचार के प्रचार का परिणाम हैं.
अब एक सवाल और उठता है कि इस समस्या का सही निदान क्या हो? इसका जवाब बड़ा अहम है. सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इन्सान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य-विभाजन से. अर्थात क्योंकि एक आदमी ग़रीब मेहतर के घर पैदा हो गया है, इसलिए जीवनभर मैला ही साफ़ करेगा और दुनिया में किसी तरह के विकास का काम पाने का उसे कोई हक़ नहीं है, ये बातें फ़िज़ूल हैं. इस तरह हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कहकर दुत्कार दिया एवं निम्नकोटि के कार्य करवाने लगे. साथ ही यह भी चिन्ता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें, तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि यह तुम्हारे पूर्वजन्म के पापों का फल है. अब क्या हो सकता है? चुपचाप दिन गुज़ारो! इस तरह उन्हें धैर्य का उपदेश देकर वे लोग उन्हें लम्बे समय तक के लिए शान्त करा गये. लेकिन उन्होंने बड़ा पाप किया. मानव के भीतर की मानवीयता को समाप्त कर दिया. आत्मविश्वास एवं स्वावलम्बन की भावनाओं को समाप्त कर दिया. बहुत दमन और अन्याय किया गया. आज उस सबके प्रायश्चित का वक़्त है.
इसके साथ एक दूसरी गड़बड़ी हो गयी. लोगों के मनों में आवश्यक कार्यों के प्रति घृणा पैदा हो गयी. हमने जुलाहे को भी दुत्कारा. आज कपड़ा बुनने वाले भी अछूत समझे जाते हैं. यू-पी- की तरफ़ कहार को भी अछूत समझा जाता है. इससे बड़ी गड़बड़ी पैदा हुई. ऐसे में विकास की प्रक्रिया में रुकावटें पैदा हो रही हैं.
इन तबकों को अपने समक्ष रखते हुए हमें चाहिए कि हम न इन्हें अछूत कहें और न समझें. बस, समस्या हल हो जाती है. नौजवान भारत सभा तथा कांग्रेस ने जो ढंग अपनाया है, वह काफ़ी अच्छा है. जिन्हें आज तक अछूत कहा जाता रहा, उनसे अपने इन पापों के लिए क्षमा-याचना करनी चाहिए तथा उन्हें अपने जैसा इन्सान समझना, बिना अमृत छकाये, बिना कलमा पढ़ाये या शुद्धि किये उन्हें अपने में शामिल करके उनके हाथ से पानी पीना, यही उचित ढंग है. और आपस में खींचतान करना और व्यवहार में कोई भी हक़ न देना, कोई ठीक बात नहीं है.
जब गाँवों में मज़दूर-प्रचार शुरू हुआ, उस समय किसानों को सरकारी आदमी यह बात समझाकर भड़काते थे कि देखो, ये भंगी-चमारों को सिर पर चढ़ा रहे हैं और तुम्हारा काम बन्द करवायेंगे. बस किसान इतने में ही भड़क गये. उन्हें याद रहना चाहिए कि उनकी हालत तब तक नहीं सुधर सकती जब तक कि वे इन ग़रीबों को नीच और कमीना कहकर अपनी जूती के नीचे दबाये रखना चाहते हैं. अक्सर कहा जाता है कि वे साफ़ नहीं रहते. इसका उत्तर साफ़ है – वे ग़रीब हैं. ग़रीबी का इलाज करो. ऊँचे-ऊँचे कुलों के ग़रीब लोग भी कोई कम गन्दे नहीं रहते. गन्दे काम करने का बहाना भी नहीं चल सकता, क्योंकि माताएँ बच्चों का मैला साफ़ करने से मेहतर तथा अछूत तो नहीं हो जातीं. भगत सिंह: भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तित्व
लेकिन यह काम उतने समय तक नहीं हो सकता जितने समय तक कि अछूत क़ौमें अपनेआप को संगठित न कर लें. हम तो समझते है कि उनका स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना तथा मुस्लिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की माँग करना बहुत आशाजनक संकेत है. या तो साम्प्रदायिक भेद का झंझट ही ख़त्म करो, नहीं तो उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो. कौंसिलों और असेम्बलियों का कर्त्तव्य है कि वे स्कूल-कॉलेज, कुएँ तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतन्त्रता उन्हें दिलायें. ज़बानी तौर पर ही नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुओं पर चढ़ायें. उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलायें. लेकिन जिस लेजिस्लेटिव असेम्बली में बाल-विवाह के विरुद्ध पेश किये बिल तथा मज़हब के बहाने हाय-तौबा मचायी जाती है, वहाँ वे अछूतों को अपने साथ शामिल करने का साहस कैसे कर सकते हैं?
इसलिए हम मानते हैं कि उनके अपने जन-प्रतिनिधि हों. वे अपने लिए अधिक अधिकार माँगें. हम तो साफ़ कहते हैं कि उठो, अछूत कहलाने वाले असली जन-सेवको तथा भाइयो उठो! अपना इतिहास देखो. गुरु गोविन्द सिह की फ़ौज की असली शक्ति तुम्हीं थे! शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सबकुछ कर सके, जिस कारण उनका नाम आज भी ज़िन्दा है. तुम्हारी क़ुर्बानियाँ स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं. तुम जो नित्यप्रति सेवा करके जनता के सुखों में बढ़ोत्तरी करके और ज़िन्दगी सम्भव बनाकर यह बड़ा भारी अहसान कर रहे हो, उसे हम लोग नहीं समझते. लैण्ड-एलिएनेशन एक्ट के अनुसार तुम धन एकत्र कर भी ज़मीन नहीं ख़रीद सकते. तुम पर इतना ज़ुल्म हो रहा है कि मिस मेयो मनुष्यों से भी कहती हैं – उठो, अपनी शक्ति को पहचानो. संगठनबद्ध हो जाओ. असल में स्वयं कोशिशें किये बिना कुछ भी न मिल सकेगा. (Those who would be free must themselves strike the blow) स्वतन्त्रता के लिए स्वाधीनता चाहने वालों को स्वयं यत्न करना चाहिए. इन्सान की धीरे-धीरे कुछ ऐसी आदतें हो गयी हैं कि वह अपने लिए तो अधिक अधिकार चाहता है, लेकिन जो उनके मातहत हैं उन्हें वह अपनी जूती के नीचे ही दबाये रखना चाहते हैं. कहावत है, ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते’. अर्थात संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो. तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इन्कार करने की ज़ुर्रत न कर सकेगा. तुम दूसरों की ख़ुराक मत बनो. दूसरों के मुँह की ओर न ताको. लेकिन ध्यान रहे, नौकरशाही के झाँसे में मत फँसना. यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है. यही पूँजीवादी नौकरशाही तुम्हारी ग़ुलामी और ग़रीबी का असली कारण है. इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना. उसकी चालों से बचना. तब सबकुछ ठीक हो जायेगा. तुम असली सर्वहारा हो…संगठनबद्ध हो जाओ. तुम्हारी कुछ हानि न होगी. बस ग़ुलामी की ज़ंजीरें कट जायेंगी. उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बग़ावत खड़ी कर दो. धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा. सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिए कमर कस लो. तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो, सोये हुए शेरो! उठो, और बग़ावत खड़ी कर दो.
—भगत सिंह
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(इन्टरनेट से साभार)
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1 Comments
Anshul Kumar Dobhal
अब कोरोना के बाद अश्पृश्यता तो फिर से प्रासंगिक हो गयी।