समाज

धारचूला के तेनसिंह को सलाम जिसने भांडमजुवा बनने की बजाय खुद्दारी से जिया अपना जीवन

आज किसी भाई ने अपने फेसबुक पोस्ट में ‘भांडमजुवा’ शब्द का प्रयोग किया है. वही भांडमजुवे जो अपने गांवों से भागकर शहर-कस्बों में जाकर वहां के होटल-ढाबों में बर्तन मांजने का काम करते हैं. Self Respect of a Villager by N S Napalchyal

इस शब्द को पढ़ कर सुबह-सुबह एक प्रसंग याद आ गया. बात 1969-70 की रही होगी तब में पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज में बीए में पढ़ा करता था. नीचे स्टेशन रोड में हमारे धारचूला के श्री हीरासिंह गर्ब्याल जी का होटल था जहां हम धारचूला के विद्यार्थी लोग मासिक भुगतान के आधार पर खाना खाते थे. एक दिन वहां हमारे गांव का लड़का तेनसिंह मिला जिसने प्राइमरी के बाद पढ़ना छोड दिया था. उसे वहां देखकर मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ. कुशलक्षेम पूछने के बाद मैंने उससे आने का कारण पूछा तो कहने लगा कि किसी काम की तलाश में आया है. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उसे पिथौरागढ़ में क्या काम मिलेगा. मैं उसके लिए चिंचित हो गया. खाना खा चुकने के बाद मैंने उससे कहा कि तुम चाहो तो हीरासिंह भाई साहब से तुम्हें यहीं काम पर लगाने के लिए कह दूं. उसने कहा कि होटल वाला काम तो किसी हाल में नहीं करुंगा. मुझे अपने पर थोड़ी खीझ और उसकी खुद्दारी पर बहुत नाज का अहसास हुआ. मैं  उसकी मदद करने की सोचकर क्या कह बैठा था. दूसरे दिन वह उस होटल में दिखाई नहीं पड़ा और पढ़ाई पूरी कर बाहर निकल आने के बाद बहुत सालों तक मेरा उससे सम्पर्क भी नहीं हो सका. Self Respect of a Villager by N S Napalchyal

वर्षों बाद तेनसिंह ने धारचूला के नेपाल रोड पर अपना ढाबा खोला जहां उसकी जलेबी और पकौड़े खूब मशहूर हुए. ऊपर अपने गांव नपलच्यो में भी सड़क से लगा उसका ढाबा खूब चलता था जहां पर कैलाश यात्रियों को चाय नाश्ता कराने के अलावा वह उनको भोजपत्र की गड्डियां और काले जीरे के पैकेट बनाकर भी बेचा करता था. घोड़े-खच्चर वालों को उसके यहां का भुटुवा भी बहुत पसंद था.

शहर में किसी दूसरे के होटल में बर्तन मांजने का आसान विकल्प छोड़कर गांव में मेहनत- मजदूरी कर खुद का सफल ढाबा चलाने वाले तेनसिंह के प्रति मेरा मन हमेशा इज्जत से भरा रहता था. गांव में उसके ढाबे में जाकर उसे यह बताने की कई बार कोशिश की लेकिन उसे हमेशा बहुत ही व्यस्त पाया और मैं कभी उससे यह बात कह नहीं पाया. पिछले साल धारचूला में उसका स्वर्गवास हो गया और मेरी यह बात अनकही ही रह गई.

ऐसा भी नहीं नहीं है कि उत्तराखंड के सभी अनपढ़ बेरोजगार युवा ‘भांडमजुवा’ बनना चाहते हैं. तेनसिंह जैसे कई युवा खुद्दारी व मेहनत से अपने गांवों में ही इज्जत से अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं. स्व.तेनसिंह की याद को सलाम. Self Respect of a Villager by N S Napalchyal

नृप सिंह नपलच्याल

लेखक का एक और आलेख काफल ट्री पर: धारचूला में पहले टेलीफोन की पचास साल पुरानी याद

लेखक

पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील की व्यांस घाटी से ताल्लुक रखने वाले नृप सिंह नपलच्याल उत्तराखण्ड सरकार के मुख्य सचिव पद से रिटायर हो कर फिलहाल देहरादून में रहते हैं. रं समाज के उत्थान के लिए लम्बे समय से कार्यरत रं कल्याण संस्था के संरक्षक नृप सिंह नपलच्याल की सामाजिक प्रतिबद्धता असंदिग्ध रही है. वे 1976 बैच के आईएएस हैं और इन दिनों अपने संस्मरण लिखने में व्यस्त हैं.

यह भी पढ़ें: बहुत कायदे बरतकर बनता है पहाड़ी रसोई का दिव्य दाल-भात

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