कुमाऊं का लोक पर्व सातों-आठों अपने पूरे रंग में है. कुमाऊं के गांव अपने दीदी-भिना संग उत्सव मना रहे हैं. सातों-आठों लोकपर्व के दिन एक लोककथा भी कही जाती है. लोककथा बिणिभाट और उसकी सात बहुओं की कथा है. आठों के दिन कहीं जाने वाली यह लोककथा कुछ इस तरह कही जाती है –
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बिणिभाट नाम के ब्राह्मण की सात बहुएं थीं लेकिन सभी निःसंतान. एक दिन बिणिभाट हाट से लौट रहा था तो देखता क्या है कि नदी का पानी काफी मैला है. यह बरसात का मौसम भी नहीं था कि ऊपर कहीं हो रही बरखा नदी के पानी के गंदले होने का कारण बनती. वह उतावला होकर पानी के मैला होने का कारण जानने के लिए नदी के बहाव की उलटी दिशा में चलने लगा. ऐसा करता हुआ वह बहुत दूर निकल गया. सात कोस चलने के बाद उसने देखा कि देवी पार्वती नदी में कुछ धो रही हैं जिसकी वजह से नदी का पानी मैला हो रहा है. उसने पार्वती से पूछा तो उन्होंने बताया कि वे नदी के पानी में बिरूड़ धो रही हैं. बिणिभाट ने नदी के पानी में बिरूड़ धोने का कारण पूछा तो पार्वती ने उसे इसके लाभ व प्राप्ति के कारणों को बताया.
घर लौटकर बिणिभाट ने सबसे पहले अपनी बड़ी बहू से कहा कि कल सुबह घर की लिपाई कर नहाने-धोने के बाद बिना अन्न ग्रहण किये वह बिरूड़ भिगाए तो उसे संतान की प्राप्ति हो सकती है. बहू ने ससुर का आशीर्वाद प्राप्त कर सारा अनुष्ठान किया लेकिन आखिर में अन्न का एक दाना चबाने से खुद को रोक नहीं पायी. बिरूड़ का एक दाना चबाने की वजह से बहू का व्रत खंडित हो गया.
बिणिभाट ने बड़ी बहू को बताया कि अन्न का एक दाना चबाने की वजह से उसका व्रत तो खंडित हो गया है अब उसकी मनोकामना पूर्ण नहीं नहो सकती. अब उसने दूसरी बहू को आजमाने के बारे में सोचा. दूसरी बहू ने भी सारा अनुष्ठान किया लेकिन आखिर में उसने भी एक दाना चबा ही लिया. यह सिलसिला चलता रहा. क्रम से सभी बहुओं से यह अनुष्ठान करने को कहा गया और वे असफल होती रहीं. केवल सातवीं बहू बिना अन्न के निर्जल रह बिरूड़ बिगोने में कामयाब हुई. सातवीं और सबसे छोटी बहु जंगल में गाय-भैंसों का ग्वाला किया करती थी और घास-लकड़ी का काम भी करती थी इसलिए उसे इसका अभ्यास था.
साल भर बाद सबसे छोटी बहु को पुत्र की प्राप्ति हुई. यह देखकर पूरा परिवार प्रसन्न हो गया लेकिन बिणिभाट काफी चिंतित हो गया. संतान का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ था जिस वजह से अनिष्ट की आशंका बलवती थी और यही बिणिभाट किए दुःख और चिंता का विषय भी था. बिणिभाट ने पुरोहितों तथा ज्योतिषाचार्यों से विचार-विमर्श करने के बाद दुर्योग टालने के लिए बहू को उसके मायके भेज दिया और नवजात बच्चे को पास के एक तालाब में छोड़ दिया.
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जब छोटी बहु मायके पहुंची तो उसकी माँ उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुई. लेकिन जब उसने देखा कि बेटी नवजात शिशु को लिए बगैर ही मायके चली आई है तो उसे यह अशुभ लक्षण समझने में देर नहीं लगी. उसने अपनी बेटी से ससुराल वापस लौट जाने को कहा. माँ ने बेटी के अंचल के कोने में सरसों के दाने गाँठ बांध दिए और कहा – बेटी तू लौटते हुए रास्ते में इन दानों को बोती जाना. पीछे पलट कर देखने में अगर तुझे इन दानों से हरे-भरे सरसों पनपते दिखाई दें तो समझ लेना तेरा पुत्र जीवित मिलेगा अन्यथा नहीं. वह सरसों के दाने रोपती हुई पीछे पलट कर देखती चलती रही. पीछे उसे सरसों के हरे पौधे दिखाई देते रहे. इस तरह वह चलते-चलते अपने ससुराल के तालाब के पास पहुंच गयी. उस जोरों की प्यास भी लगी ही हुई थी. वह अंजुरी भर पानी पीने के लिए तालाब में झुकी तो उसके पुत्र ने दोनों बाहें उसके गले में डाल उसे गले लगा लिया. वह खुशी के साथ अपने बच्चे को लेकर घर वापस लौट आई.
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