ज्येष्ठ मास में एक तिथि-साइत ऐसी आती है जिसे हल्द्वानी नगर में ट्रांसफार्मर तिरतीया के नाम से मनाया जाता है.
इसके पहले बीस-पच्चीस दिन ऐसी भयानक गर्मी पड़ती है कि बाज चतुर गृहस्थ-गृहस्थनें परिवार भर के लिए दो टाइम की रोटियाँ बरामदे में धरे पत्थरों पर ही पका-फुला लेते हैं. अंततः जब सारा शहर “अल्ला मेघ दे पानी दे ” करने लगता है तो एक दिन अल्ला खूब सारे मेघ देता है लेकिन उन मेघों से निकलने वाले पानी की मात्रा उतनी होती है जिसे ‘राग दरबारी’ में सुकुल जी ने चिरैयामुतैन यानी परिंदे की लघुशंका के समतुल्य परिमाण वाली बारिश बताया है.
इस आसमानी अहसान के एवज में खूब अंधड़ भी आता है और बत्ती चली जाती है. लोगों के घरों के बगीचों में लगे पेड़ों के अस्सी फीसद आम-लीचियां टूट जाते हैं. इन पेड़ों की हर साल खूब देखभाल होती है, मार्च में महीने में उन पर दवा वगैरह का छिड़काव होता है और लार टपकाते, ताड़ने वाले दूर से बौरों की तादाद ताड़ कहते पाए जाते हैं – “इस साल जबर आम आने वाला है जोसी के घर!”
उक्त अंधड़ के अगले दिन कंजूस जोसी की महाकंजूस जोसी माता मोहल्ले भर को पाव-पाव कच्चे आम बांटने जाती है कि “चाहो तो अचार बना लेना चाहो चटनी.” ये पिछली शाम झड़े हुए आमों में से वे वाले होते हैं जिनका पूरी तरह डीजीबीआर हो गया होता है अर्थात न उनसे अचार बन सकता है न चटनी अलबत्ता उन्हें रिसीव करने वाला परिवार जोसी परिवार के प्रति अपने सम्मान में थोड़ा और इजाफा करने और उक्त तथाकथित आमों को कूड़े में फेंकने के अलावा और कुछ नहीं कर सकता.
बत्ती का जाना लोगों की समझ में तब आता है जब बत्ती बहुत देर तक नहीं आती. आधी रात बारह-पौने बारह बजे लोगों के घरों में लगे इनवर्टर टूं की दीर्घध्वनि निकालने लगते हैं तब भी लोगों को असलियत का पता नहीं चलता.
“आ जाएगी, आ जाएगी!” का जाप करते, पूरी रात की नींद मच्छर-गर्मी-भूसे और शिकवे-शिकायतों में जस तस काटकर नागरजन सुबह उठकर पाते हैं कि बत्ती अभी नहीं आई है.
अखबार बता रहा होता है कि कल रात से ही सारा हल्द्वानी अँधेरे में डूबा रहा. लोग खुश होते हैं कि चलो हम नहीं सोये तो कोई बात नहीं, कोई भी साला नहीं सोया होगा. जिन घरों में अखबार नहीं आये होते वहां पंचांग निकाले जाते हैं. अंततः मोहल्ले की दुकान पर दूध लेने आये एक त्रिलोकदर्शी पंडिज्जी बताते हैं कि आज तो ट्रांसफार्मर तृतीया है वत्स. आज दिन भर बत्ती आने से रही.
बिना पंखे के नाश्ता होता है.
बत्ती नहीं आती अलबत्ता आया हुआ सूरज और अच्छी तरह आ जाता है. ग्यारह बजे के आसपास घरों से भीतर से “हूहू” की मनहूस आवाजें आने लगती हैं. चिंटू बाबू का खुद का और उनके पूरे खानदान का फ़ोन तीस-चालीस परसेंट बैटरी दिखा रहा है. लंच के लिए महिलाऐं खिचड़ी-तहरी जैसे मेन्यू सोच चुकी हैं.
बर्तन धोने वाली बताती है पानी निबट गया है. अम्मा जोर से कहती है मोटर चला लो और मन ही मन कहती है कामचोर कहीं की. बर्तन धोने वाली इस दफा बताती है कि आज ट्रांसफार्मर तिरतीया है.
दो बजे के आसपास अधिकाँश घरों के अधिकाँश सदस्य संन्यासी बन चुके होते हैं – “क्या करना है टीवी-फोन का! बस थोड़ा पानी आ जाता!”
बच्चे कैरम नहीं खेलते. बस पंखे को ताकते रहते हैं और उनके मुंह से बेसाख्ता “शिट … शिट!” निकलता रहता है.
तीन-चार बजे के आसपास कोई कहता है – “अरे सामने रावत जी के पास जाके पूछो उनके पास बिजली दफ्तर का नंबर है क्या!”
लाइनमैन खीझ कर फोन काटने से पहले हड़का देता है – “इतने सारे पेड़ गिरे पड़े हैं. अब हम लगे हैं! बार-बार फोन मत कीजिये.”
पांच बजे घर का कोई भला, लतखोर सदस्य चाय बनाने के प्रोजेक्ट पर निकलते हुए बाकी सदस्यों की इच्छा जानना चाहता है तो उत्तर में “बना दो! … बत्ती तो आ नहीं रही! हे भगवान! …” की ऐसी करुण और हृदयविदारक ध्वनियाँ आती हैं जैसे उस घर के किसी सगे का तेरहवां-पीपलपानी अभी-अभी निबटा हो.
बंडी-घुटन्ना डाटे एक युवा वार्ड मेंबर जोर जोर से किसी को गरिया रहा है – अबे एई से नहीं होता तो साला जेई से बोलो. और जेई से नहीं होता तो लाइनमैन को बोलो! मतलब बेवकूफ समझ रखा है साला! सुबे से साली जनता का जीना हराम कर रखा है! … घूसखोर और कामचोर हैं सब साले .,.”
बत्ती नहीं आती. फ्रिज में धरी आइसक्रीम गल कर अलग अलग रास्तों से फर्श पर टपक रही है, ठंडा पानी ख़तम हो गया है. टंकी में छः घंटे से एक बूँद नहीं है. टीवी काला पड़ा है. फोन में दो-ढाई परसेंट बैटरी बची है. शाम हो रही है. रात का खाना बनना है.
बत्ती नहीं आती. अब सब मिल कर पंखे को देख रहे हैं. आसन्न रात के दैत्य आँखों में डूबने-उतराने लगे हैं. अम्मा ने तोरई-आलू काटना शुरू कर दिया है. अड़तीस डिग्री में भी पड़ोस में नया आया, मिस्टर और मिसेज शर्मा के नाम से ख्याति अर्जित कर चुका नवविवाहित जोड़ा छः बजे ही ईवनिंग वॉक पर निकल रहा है. बचिया अर्थात बचेसिंह की बुआ बुहारे हुए बरामदे को चौथी दफा बुहारती हुई मैली धोती से माथे का पसीना पोंछती भुनभुनाती है – “अपनी औरत के जूते लाने में ही इस अभागे सरमा की आधी तनखा निकल जाती होगी! बड़ी बैजन्ती माला बन रही!” बुआ अब पंखे को देख कर कहती हैं – “हाट माजत!”
साढ़े छः हो गया है! बत्ती नहीं आती. दूर-पास के सभी कुत्तों ने समवेत भौंकना शुरू कर दिया है. “कितने कुत्ते हैं साले इस हल्द्वानी में! … और साली लाइट भी नहीं आ रही. ब्लेडी सिवलियन लाइफ!” यह अपने ढंटुवे कुत्ते जिम्मी को घुमाने ले जा रहे रिटायर्ड ऑनरेरी कैप्टन लमगड़िया हैं जिन्हें अपनी आज रात की हुसकी में मिलाने को न मिल सकने वाली बर्फ का मलाल होना शुरू हो गया है.
बस जंगल की दिशा से सियारों की हुवांहुवां का उठना बाकी रह गया है.
इस घनी मनहूसियत को चीरता एक तीखा बालस्वर सुनाई देता है – “अम्मा! दादाजी! आ गई!”
– अशोक पांडे
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