टाउन हॉल के बुर्ज़ पर एक घड़ी लगी है. घड़ी बहुत सुंदर है पर बिगड़ गई है. उसका घंटा भी झड़ गया है. समय नहीं बताती वह, फिर भी लोग उसे देखते हैं. देखने में ठीक ही लगती है, जैसी घड़ियां अमूमन होती हैं. आकार गोल, एक से बारह तक की दुरुस्त गिनती और तीर जैसी सुइयाँ. हक़ीक़त ये है कि घड़ी चाहे जिस अवस्था में हो, चालू-ठप्प, आम लोग उसे घड़ी ही मानते-बुलाते हैं. कुछ मसख़रे टाइप हैं जो उसे घड़ियाल कह देते हैं. वो उसकी दशा पर चार-छह टसुवे भी बहाते हैं. आवश्यक हुआ तो टाइम किसी अन्य घड़ी में देख लेते हैं. इधर अपनी इस बिगड़ी घड़ी का प्रयोग शहर के एक लैंडमार्क की तरह होने लगा है लेकिन घंटाघर नाम से नहीं. दीवारों पर अन्यत्र जड़ी ऐसी घड़ियां जो अपना नीरस काम ठीक से कर रही हैं, घंटाघर के रूप में पहचाने जाने का पहला हक़ जो रखती हैं. इस स्थल को लोग ‘बिगड़ी घड़ी’ कहने लगे हैं; ‘कल ऑफिस के बाद ‘बिगड़ी घड़ी’ पर मिल जइयो…’ (Satire by Umesh Tewari Vishwas)
घड़ी की घंटे की सुई दस और ग्यारह के बीच और मिनट की चार पर अटकी है. हालांकि, ठप अवस्था में कुछ और भी बजा रही होती तो क्या फ़र्क पड़ता. हाँ, बड़ी सुई के नीचे अगर छोटी छुप गई होती, जैसा लगभग साढ़े छै बजे संभव है, तो हो सकता है लोग उसे ‘बिगड़ी घड़ी’ न कहकर, ‘एक सुई वाली घड़ी’ कहने लगते. कार्यालय में अगर कभी ऑडिट हो ही जाता तो एक सुई कम दर्ज़ होती और अनुशासनात्मक कार्यवाही से कोई बाबू सस्पेंड हो जाता. कुछ सालों बाद कोई एक जांचकर्ता, जैसा कि देखा गया है एक-आधा, हरामखोर का विलोम, बड़ी सुई के नीचे छुपी छोटी सुई को ढूंढ लेता. तब बाबू को क्लीन चिट मिल जाती. हालाँकि, सस्पेंडेड बाबू बेहतर आर्थिक स्थिति में लाइफ़ एंजॉय करता पाया जाता पर ईमानदारी का दुर्लभ तमग़ा पाकर वापस अपने स्वर्ग में री-इंस्टेट हो जाता. अपनी सीट पर पुनः विराजमान हो बाबू, अपने धर्मयुद्ध के दौर के अनुभवों को बांटता कि कैसे बुरे समय का सदुपयोग कर उसने पत्नी को पार्षद बनवा दिया. वो यह भी उद्घाटित करता कि घड़ी का भारी घंटा बेचने वाला स्टोर-कीपर आजकल अकाउंटेंट के साथ रोज़ पौव्वा पी रहा है. इस बीच हाईकोर्ट के संज्ञान में लाए गए भ्रष्टाचार आदि का वाद अधिवक्ता की गति से तालमेल बिठा कर चल रहा होता. (Satire by Umesh Tewari Vishwas)
जहाँ तक घड़ी की मरम्मत का प्रश्न है, घड़ीसाज़ संज्ञान लेने के नाम पर गाहे-बगाहे घड़ी को आँख मारते हुए निकल जाते हैं. कोई कम्पलेंट करता तो वो घड़ी की मरम्मत करने का प्रयास करते. सुना है, ऐसी बड़ी घड़ियों का एक विशेषज्ञ पिछले साल यहाँ घूमने आया था. उसने घड़ी को दूर से देखकर 15-20 हज़ार का ख़र्चा बताया. नगर पालिका प्रशासन ने उससे तीन कोटेशन मांगे. वो फिर वापस नहीं आया.
मेरा मानना है कि स्वतः संज्ञान कोई नहीं लेता. मैंने इसलिए लिया कि मुझे कलम घसीटने को मुद्दा चाहिये था. अगर घड़ी बैटरी से चलती होती तो बैट्री के व्यापारी इसमें रुचि दिखाते. चाभी से चलती तो चाभी भरने को नियुक्त संविदाकर्मी नौकरी की ख़ातिर संज्ञान लेता. स्वतः संज्ञान तो बड़े-बड़े कोर्ट नहीं ले रहे मेकेनिक क्यों लेने लगे. मोदी जी परेशान हैं, सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान लेकर सी ए ए वग़ैरह को लागू नहीं करवा रहा. उनको तक अर्ज़ी लगानी पड़ रही है. पालिका के चुनावों में घड़ी कोई मुद्दा नहीं थी. जनता को क्या पड़ी है संज्ञान लेकर सड़कों पर आने की. घड़ी चुनाव चिन्ह पर अध्यक्ष पद के लिये लड़ने वाला तक तीसरे नंबर पर रहा. उसका विचार है कि बंद घड़ी के भंचक से नगर के अच्छे दिन आते-आते रह गए. उसको चित करने वाले फूल का मानना है कि घड़ी की अब कोई आवश्यकता ही नहीं है. समय स्वतः संज्ञान लेकर अच्छे दिनों पर रुक गया है, जो जीत गया है वो परमानेंट हो गया है. दुष्प्रचार करने वाले सेमी-अर्बन नक्षल हेंगे जिनका संज्ञान शीघ्र ही लिया जाएगा. Satire by Umesh Tewari
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हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.
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