कभी-कभी ज़िंदगी में अपने जैसे किसी अन्य व्यक्ति से मुलाकात हो जाये तो बड़ी कठिनाई उत्पन्न हो जाती है. आज सुबह छोटी बुआ के बेटे से फोन पर बात हुई.
“अनिमेष कैसे हो?” मैंने पूछा.
“ठीक हूँ दादा.” उसने कहा.
इसके आगे क्या बात करनी है यह हम दोनों के सिलेबस से बाहर था. फिर लाइन कट गई.
“हेलो!” पुष्टि के लिये मैंने कहा.
“जी दादा!” अनिमेष ने उत्तर दिया. अर्थात लाइन जुड़ी हुई थी.
जी दादा बोल कर अनिमेष ने बात को आगे बढ़ाने की चुनौती फिर मुझे दे दी. आज हम दोनों को पता चलने वाला था कि एक सैकिंड में साठ मिनट होते हैं.
“तो……” मैंने पुनः प्रयास शुरू किया, और बहुत चिंतन-मनन के बाद वार्तालाप को आगे बढ़ाने के लिये कोई महत्वपूर्ण बात कहने का निश्चय किया. कहा, “पढ़ाई कैसी चल रही है?”
अनिमेष इस प्रश्न का अत्यंत प्रभावशाली उत्तर देना चाहता था. अतः आधे मिनट गूढ़ चिंतन करने के बाद उसने अत्यंत सुंदर और अनुपम उत्तर दिया, “अच्छी!”
फिर ऐसा लगने लगा कि लाइन कट गई है. पर मैं समझ गया कि लाइन नहीं कटी है. ये बोलने में सक्षम परन्तु लोकव्यवहार में अक्षम दो मूक लोगों की परस्पर ज़ोर-आजमाइश का समय है. दोनों ही गहरी सांस भर कर चिंतन कर रहे थे कि आगे क्या बोला जाए?
मैं सोच ही रहा था कि अनिमेष ने अचानक दांव चल दिया, “आप कैसे हैं दादा?”
इस कठिन प्रश्न से मैं समझ गया कि अनिमेष ने सिसिलियन डिफेंस में शुरुआत की है. अब मुझे इस प्रश्न का उत्तर खोजना था. मैंने पुनः गहरी सांस भरी और खुद से पूछा- मैं कैसा हूँ?
उत्तर कोई भी दिया जा सकता था. स्वयं से ‛मैं कैसा हूँ’ कहते ही मन में तत्काल चार कविताएँ प्रस्फुटित हुईं. परन्तु कविताएँ सुनाई नहीं जा सकती थीं. मैं ऐसा उत्तर देना चाहता था जो प्रतिप्रश्न में समाप्त हो. जिससे वार्तालाप का जुआ अनिमेष के कंधे पर रख कर मैं थोड़ा सुस्ता सकूँ. एक ऐसा विशिष्ट एवं नवीन उत्तर, जो साधारण सा सदा दोहराया जाने वाला उत्तर न हो. नो क्लीशे प्लीज़! ऐसा उत्तर जिसमें मेरी अध्ययनशीलता और रचनात्मकता दिखती हो. मन में चल रहे अनेक वाक्यांशों को आगे-पीछे से जोड़ कर मैंने सर्वश्रेष्ठ उत्तर तैयार कर बोलने का विचार किया. और कहा, “मैं अच्छा हूँ.”
पुनः लाइन कटने जैसा आभास हुआ. मैं समझ गया अब अनिमेष आगे की बात सोच रहा है. पहली बार मुझे लगा कि मेरा फोन काफ़ी वजनदार है. ऐसा ही अनिमेष को भी लग रहा होगा. हम दोनों को अपने फोन आज ढाई-ढाई किलो के जान पड़ते थे. वजह क्या हो सकती है?
मुझे लगता है बहुत सारी पुस्तकें पढ़ने के बाद मेरा व्यवहार मेरे कुत्ते जैसा होता जा रहा है. वह दुम हिला सकता है, पर किसी से बात नहीं कर पाता. मैं भी किसी से बात नहीं कर पाता और दुम मेरे पास उपलब्ध नहीं है. यदि कोई काल्पनिक दुम हो तो मैं उसे हिला लेता हूँ. हाँ अगर खींसे निपोरने को दुम हिलाना माना जाए तो मैं दुम हिलाता हूँ. मेरा कुत्ता अपना खाना लेकर किसी कोने में छिप जाता है, जहाँ कोई देखता न हो. मैं भी सार्वजनिक जगहों पर कोने में छुपना पसंद करता हूँ ताकि किसी से सामना न हो जाए. विवाह में खाने की प्लेट उठाई और काल्पनिक दुम दबा कर किसी अंधकार में छिप गए. बेरोज़गारी के दिनों में शुरू हुआ यह व्यवहार अब आदत बन चुका है. फिर उसी अंधकार में कोई और भी दुम दबा कर पहुँचता है जिसने निर्मल वर्मा और अज्ञेय का सम्पूर्ण वाङ्गमय पढा हुआ है. हम दोनों एक दूसरे को देख कर सहज हो जाते हैं, हमारी बातचीत शुरू हो जाती है और हमारी दुमें सामान्य हो जाती हैं. परन्तु अगर वो दूसरे गुट का हुआ तो कुत्ते की तरह हम दोनों एक-दूसरे पर भौंकना शुरू कर देते हैं.
बुद्धिजीवियों और कुत्तों में काफ़ी समानताएँ होती हैं. वे अपने जैसों के झुण्ड में रहना पसंद करते हैं. दूसरे झुण्ड के किसी सदस्य को बर्दाश्त नहीं कर सकते. अपने इलाके में किसी को घुसने नहीं देना चाहते. सबसे ज्यादा वे अपनों पर ही भौंकते हैं. बड़े लोगों की गाड़ियों के पीछे भौंकते हुए दौड़ते हैं पर उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाते. वही बड़े लोग अगर गाड़ी रोक कर चॉकलेट दे दें तो भौंकना भूल कर दुम हिलाने लगते हैं. आदि-आदि.
अनिमेष एक प्रतिष्ठित संस्थान से इंजीनियरिंग कर रहा है. उसने निर्मल वर्मा और अज्ञेय को नहीं पढ़ा है. न ही वह थियेटर, ड्रामा आदि के बारे में जानता है. उसने इंजीनियरिंग की किताबें पढ़ी हैं और वह स्नैप चैट, शेयरइट, टिंडर के बारे में जानता है. फोन पर हालात यूँ है जैसे कोई मन्डेरिन बोलने वाला तमिल बोलने वाले के सामने हो.
यदि यक्ष मुझसे पूछता कि संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है, तो मैं उत्तर देता कि संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि व्यक्ति पुस्तकों में जितना लोकव्यवहार के बारे में पढ़ता जाता है, उतना ही लोकव्यवहार शून्य होता जाता है. लिखने में हाथ किसी पेशेवर तबलची की तरह चलते हैं और बात करने में मुँह किसी शिशु की तरह. बस मम्मम-पप्पा ही बोल पाता है पढ़ाकू. हाँ, यदि सामने वाला टेरेन्टिनो की पिक्चरों पर बात करे तो धाराप्रवाह चर्चा हो सकती है. दिन-प्रतिदिन जैसे-जैसे अधिक ज्ञान हासिल करने की इच्छा बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे ही सामाजिक मेल मिलाप की इच्छा घटती जाती है. कभी-कभी तो मामला काफ़ी गड़बड़ हो जाता है.
कुछ दिनों पहले एक शादी में गया तो वहाँ सुशीला आंटी से मुलाकात हो गई. आधे घण्टे उनसे बात होती रही. उनसे मिल कर आगे बढ़ा तो देखा सुशीला आंटी खड़ी हैं. मुझे काटो तो खून नहीं. मैं आधे घण्टे शीला आंटी को सुशीला आंटी समझ कर बात करता रहा. मुझे लगा कि धरती यहीं फट जाए और मैं उसमें समा जाऊँ. पर मुझमें सीता माता जितना बल नहीं है. मैं वहाँ से भाग निकला. उस दिन दिमाग में एक नवजात व्यंग्य किलकारी मार रहा था और शीला-सुशीला आंटी की सुनने की बजाय मैं उस व्यंग्य की किलकारी सुनता रहा. हो सकता है शीला आंटी ने बताया भी हो कि बेटा मैं सुशीला नहीं शीला हूँ. पर मेरे दिमाग में व्यंग्य पूरा करने की धुन थी. हालात यूँ हैं कि किसी से बात करने के बाद, सौ में से नब्बे बार जी करता है कि किसी पादरी की तरह कमरा बंद करके खुद पर कोड़े बरसाऊँ कि साले तू बोला ही क्यों?
ऐसा नहीं कि मैं मिलनसार नहीं हूँ. सोशल मीडिया पर घण्टों बात कर सकता हूँ. मैं अपने पड़ोसी से भी बातचीत करना चाहता हूँ, पर साले ने अमृतलाल नागर की कोई किताब नहीं पढ़ रखी. घर पर ये हालत है कि श्रीमतीजी बच्चों की तरह घसीट कर बाहर लाती हैं कि तुम्हारा दोस्त और उसका परिवार मिलने आया है और तुम कमरे में घुसे बैठे हो. वे कहती हैं कि ऐसी किताबों का क्या मतलब है जो ये न बताएँ कि नये शहर में बिना कनेक्शन के गैस सिलेंडर का इंतज़ाम कैसे किया जाता है. ये बात सच है कि किसी भी किताब में ये नहीं लिखा. न ही ये लिखा है कि जब इंजन गरम हो तब कूलेंट डालने के लिए ढक्कन नहीं छूना चाहिये.
तमाम लोगों के नाम भूलता जा रहा हूँ. लोग परेशान हैं कि नई पीढ़ी की लिखने की आदत छूटती जा रही है. यहाँ बोलने की आदत छूटने से परेशान हूँ. डर है कि कुछ दिनों बाद किसी मौनी बाबा की तरह घरवालों से भी लिख कर बात न करने लगूँ.
यूँ ही अगर बंद कमरे में किताबें पढ़ता रहा, वेब-सीरीज़ और फ़िल्म देखता रहा और शोभा गुर्टू और किशोरी अमोनकर को सुनता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब शादी-ब्याह, समारोह में श्रीमती जी के पीछे छुप-छुप कर जाने लगूँगा कि कहीं शीला आंटी न मिल जाएँ. क्या पता डंडा लेकर मुझे खोज रही हों. और ज्यादा स्थिति विकट हुई तो शायद घर वालों के अलावा कोई दूसरा आदमी देखते ही घबरा जाऊँ और अपने कुत्ते की तरह भौंकने लगूँ.
अनिमेष का मामला इन सब से भी अलग है. यहाँ गुर्राने या पूँछ हिलाने दोनों का ही विकल्प नहीं है. मेरा और अनिमेष का मामला कुछ इस तरह का है जैसे अलग-अलग सौर मण्डलों में घूम रहे दो ग्रह अचानक से सामने आ जाएँ. जैसे कोई माया सभ्यता का व्यक्ति वैदिक सभ्यता के व्यक्ति के सामने आ खड़ा हो, और दोनों एक-दूसरे को घूर रहे हों. हम दोनों उन दो सरल रेखाओं की तरह हैं जो एक बिंदु पर एक दूसरे को काटती हैं. और यह फोन कॉल ही हमारा वह बिंदु है.
“मैं अच्छा हूँ.” मैंने मुक़ाबले को आगे बढ़ाया, “पढ़ाई कैसी चल रही है?” मैंने बेसलाइन से शॉट मारा.
“अच्छी!” अनिमेष ने ड्राप शॉट खेल दिया.
यह संवाद कुछ सुना-सुना सा प्रतीत हुआ मुझे. मैंने अनुभव किया कि अनिमेष मुझसे बेहतर खेल रहा है. उसके हल्के से ड्राप शॉट मुझ पर भारी से पड़ रहे थे.
“तो आगे क्या करने का इरादा है?”
“जॉब!”
“ग्वालियर घूम जाओ!”
“आऊँगा!”
“………”
“……….”
“……….”
“……….”
लाइन जुड़ी हुई है, मैं जानता था. हम दोनों विपरीत हवाओं में पहाड़ चढ़ रहे थे. खेल मुश्किल होता जा रहा था. तभी अनिमेष ने शह-मात कर दी.
“दादा लीजिये मम्मी से बात करिये.” अनिमेष ने फोन बुआ को पकड़ा दिया. बुआ फोन पर आईं और कहा, “आ गई बुआ की याद!”
अब सामने नवीन चुनौती थी.
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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