हमारा बचपन मंदिर के ठीक नीचे वाले बंगले में गुजरा. उससे पहले मुक्तेश्वर क्लब के ऊपर वाला घर और उससे भी पहले हवाघर वाला घर. ब्रिटिश काल में बने मुक्तेश्वर के खूबसूरत बंगलों की खिड़कियों से सामने सफेद बर्फीली चोटियों का आनंद … आहा!
अक्टूबर की गुलाबी ठंड के बाद नवंबर आते आते पहाड़ों में कड़कड़ाती ठंड शुरू हो जाती है.
पहाड़ों की रातें जितनी ठंडी होती हैं, दिन में उतनी ठंड नहीं पड़ती. अक्सर बिन बादलों का साफ नीला आसमान, हल्की खिली धूप और पहाड़ियों का शगल – नीबू सानना.
पहाड़ों में अधिकतर लोग सुबह सवेरे खाना खा लेते हैं. नाश्ते का प्रचलन (हमारे समय में) थोड़ा कम था. 10- 11 बजे तक घर का सारा काम हो जाता. बिस्तर को धूप में सुखाने डाल दिया जाता. दिन भर बिस्तर टिन की छतों में सूखते. (पहाड़ों में छतें टीन की चादर से बनाई जाती, टिन दिन में गर्म हो जाता और रजाई गद्दों में भी गरमाहट आती) लगभग तीन चार बजे के करीब बिस्तर वापिस अंदर रख दिया जाता. कड़क ठंड से बचने का यह पहाड़ी जुगाड़ है.
लगभग बारह एक बजे कोई न कोई मिलने तुलना वाला आ ही जाता. तब धूप में बैठकर नीबू साना जाता. पहाड़ में बड़े आकार के नीबू होते हैं. कागजी नीबू से लगभग तीन गुना बड़े. नीबू को छीलकर एक भगौने में उसका पल्प निकालकर उसमें दही, गुड़, भांगे या धनिया का नमक डाला जाता. तीखी हरी मिर्च की तिलमिलाहट ,खाने के मजे को दुगुना कर देती. खाने वालों की संख्या ज्यादा और सने नीबू की मात्रा कम होने के कारण सानने वाले बर्तन में नीबू खाने की होड़ लगी रहती. मात्रा बढ़ाने के लिए खेत से निकली ताजी मूली को भी उसमें मिला दिया जाता. हाथ से खाया जाता और आधे घंटे तक धीरे धीरे चटखारे लिए जाते. गुनगुनी धूप में नीबू सानकर खाने का आनंद ही कुछ और होता.
कोई विरला ही पहाड़ी होगा जो इस सने नीबू के लाजवाब स्वाद से बच पाया होगा.
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-रीना पन्त की फेसबुक वॉल से
मूलतः कुमाऊं के पहाड़ों से सम्बन्ध रखने वाली रीना पन्त फिलहाल मुम्बई में रहती हैं. फेसबुक पर उन्हें इस लिंक पर फौलो किया जा सकता है – रीना पन्त
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