तीन बाखली के छोटे से गाँव में मालगों (ऊपर का गाँव) के बीचों-बीच हमारे एक बूबू रहते थे. बहुत मीठे स्वभाव और बाल सुलभ मुस्कान के धनी थे. बच्चों और बकरी के पट्ठों से बहुत प्यार करते थे इसलिए हमें बहुत अच्छे लगते थे. दूर-दूर से लोग उनके पास आते पश्टण (गन्त-पूछ) करने. बताते हैं कि उनकी गन्त पूछ बड़ी सटीक लगती थी. (Samyo Himalayan Herbs)
बूबू बहुत सीधे सरल थे इसलिए उनसे कभी डर जैसा नहीं लगा जैसा अक्सर बड़े लोगों से लग जाता है. उनका जीवन बहुत अनुशाषित और व्यस्त किस्म का था. खाली बैठे कभी नहीं दिखते थे. क्यारियां ऐसी बना देते कि मजाल कि कोई एक कंकड़ भी ढूंढ दे. बसूले, बनकाटे ऐसे धारदार बनाये रखते कि लकड़ी में पड़ते ही गहरे धंसना तय. गाय भैंस के लिए बारीक कटा चारा और दौ तैयार करते. (Samyo Himalayan Herbs)
सुबह चार बजे उठकर टंकी में जाकर ठन्डे पानी से नहा धोकर पूजा पाठ करना उनका ऐसा काम था जिसमें शायद ही कभी व्यवधान आया हो. उनके उठने के बाद ही बाकी गाँव जागता. यूँ भी कहा जा सकता है कि वह गाँव की अलार्म घड़ी थे.
जब वह पूजा पाठ करते तो लोहे के एक धूपदान में जलते कोयलों में कोई चूरा डालते और उसकी महक से पूरी बाखली खिल उठती. घी में साने हुए उस धूप को बूबू खुद ही बनाते थे. बरसातों में गाँव के पार छाया वाले ढलानों से वह एक ख़ास पौधे की जड़ें उखाड़ लाते.
इस पौधे को सम्यो कहा जाता है. नम जगहों में यह पौधा अपनी आबादी में फैला रहता है. बारिश के बाद मिट्टी से इसकी जड़ों की गंध बहार फूटने लगती है. इस पौधे की जड़ को सुखाने के साथ इसकी खुशबू निखर आती और कसा हुआ नारियल, मासी, गुग्गल, तालिस पत्र आदि जो-जो भी मिल जाय, उसे मिलाकर जलते कोयलों पर रख देते. यह होता हमारे गाँव का हरी दर्शन, मंगला या साइकिल ब्रांड अगरबत्ती का विकल्प. जाड़े कि दिनों तो इसकी गंध और ही अच्छी और गर्माहट लिए लगती.
बचपन को पीछे छोड़ आये और पढ़ाई लिखाई में पता चला कि सम्यो को आयुर्वेद में तगरा नाम से जाना जाता है. इसका एक और नाम मश्कबाला भी है. वनस्पति विज्ञान में इसे वलेरियान जटामासी नाम से जाना जाता है जो वलेरिनेयेसी कुल का पादप है. इसका भरपूर पौधा आधे मीटर तक ऊंचा हो सकता है. इसमें सफ़ेद या हलके गुलाबी- बैंगनी रंगत के फूल निकलते हैं. जड़ गांठदार होती हैं और दो से पांच इंच तक मोटी हो सकती है.
पौधे में जड़ के पास से ही अनेक शाखाएं निकल जाती हैं जो पंद्रह से चालीस सेन्टीमीटर तक लम्बी हो सकती हैं. दिल के आकार की पत्तियां दो से आठ- दस सेंटीमीटर तक चौड़ी हो जाती हैं. यह 1200 से 2800 मीटर तक की तुंगता में पूरे हिमालयी क्षेत्र में पाया जाता है.
इसकी जड़ें ज्वरनाशक और मूत्र रोगों में लाभदायक होती हैं. ये शीतलता प्रदायक, रक्तचाप कम करने वाली और तनाव घटाने वाले गुणों से भरी होती हैं. यह मिर्गी, हिस्टीरिया, रोगभ्रम, मानसिक तनाव और त्वचा सम्बन्धी रोगों के लिए लाभदायक मानी जाती है. अनिद्रा और तनाव को कम करने की दवा के रूप में इसके जड़ का चूर्ण बाजार में अनेक कंपनियों द्वारा बेचा जा रहा है. अल्सर, पीलिया, ह्रदय रोग और अस्थमा के लिए भी यह फायदेमंद मन जाता है.
हमारे ग्रामीण समाज में इसके औषधीय उपयोग के बारे में कभी सुना नहीं यहाँ तो इसका इस्तेमाल होता था शानदार महकती धूप बनाने में. ज्यादातर लोग इसके वैज्ञानिक पक्ष से अधिक इसके अवैज्ञानिक पक्ष के लिए इसे जानते हैं.
यह माना जाता है कि इसकी धूप फेरने से बछ्कों की नजर उतरती है. हाँ एक और भ्रम इसके बारे में प्रचलित है, वह यह कि इसके पौधों के पास सांप अधिक आते हैं लेकिन इसके पक्ष में कोई ठोस प्रमाण मुझे नहीं मिले. मेरे दरवाजे के पास दो गमलों में इसके पौधे पूरे शबाब में खिले हुए हैं.
यह बात भी जाननी चाहिए कि यह हिमालय के बड़े ही प्रसिद्ध पौधे मासी या जटामासी का भाई ही है. एक ही कुल के हैं दोनों. दोनों का ही धूप बनायी जाती है लेकिन मासी का नाम पहाड़ी लोकगीतों खूब सुनने को मिलता है. सम्यो के लिए कोई लोकगीत अभी तक सुना. इस दोस्त का शुक्रिया आज बूबू की याद भी ताजा कर दी.
पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं. विनोद काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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