कहानी की कहानी उर्फ़ बकरा बलि का
ईजा (मां) बीमार थी. उसका बहुत मन था कि देबी खूब पढ़े हालांकि वह कभी स्कूल नहीं गई थी. उसने प्रकृति की किताब पढ़ी थी और मुझे अपनी भाषा में पेड़-पौधों और प्राणियों से प्यार करने के पाठ पढ़ाती थी. बाज्यू (पिताजी) मेरे हाथ में तांबे के सिक्के पकड़ा कर दरवाजे से दूर धार में दिखते भूमिया देवता के थान की ओर हाथ जोड़ कर भेंट चढ़ाने को कहते कि हे भूमिया देवता, मेरी बीमार ईजा को ठीक कर देना. (Sacrificed Goat Story Deven Mewari)
गांव में लोहाखाम देवता की पूजा में बहुत बकरों की बलि दी जाती थी. मैं दूर खड़ा रहता. आंख और कान बंद कर लेता. बकरों को कटते हुए नहीं देख सकता था. बाद में जमीन पर पड़े हुए, कटे खून से लथ-पथ बकरे दिखाई देते. एक और धार में बांज के पेड़ के नीचे पत्थरों की प्रतिमा के सामने, आमा के थान में भी बकरों की बलि दी जाती थी. (Sacrificed Goat Story Deven Mewari
बाज्यू की आवाज कड़क थी लेकिन भीतर से वे बहुत भावुक थे. ईजा के इलाज के लिए गांव में जो भी संभव था, उन्होंने वह किया. परताप दा काना जगरिया को बुला कर जागाएं लगाई जातीं. डंगरिया आकर नाचते और कहते- ठीक …है…जाली…रे…साहूकार! लेकिन, ईजा ठीक नहीं हुई. ईजा को कलचुड़िया चिड़िया का शोरबा पिलाया गया, गुर्ज की बेल उबाल कर उसकी भाप में उसे तपाया गया, जड़ी-बूटी के रूप में औखद (औषधि) खिलाई गई. बकरे की बलि दी गई, लेकिन ईजा नहीं बची.
कई साल हो गए लेकिन ये तमाम बातें मेरे मन में खलबली मचाए रहतीं. नैनीताल में बी.एस-सी. में पढ़ता था और तल्लीताल रिक्शा स्टैंड के ठीक ऊपर नए बने मानसिंह भवन के पहले कमरे में रहता था. उन्हीं दिनों मित्र बटरोही की संगत में शैलेश मटियानी जी की ‘मेरी तैतींस कहानियां’ भी पढ़ी थीं. मानसिंह भवन के उसी कमरे में एक दिन मेरे मन का तूफान, मेरी कलम के रास्ते इस कहानी के रूप में कागज पर उतर आया. मेरी यह कहानी साहित्यिक पत्रिका ‘माध्यम’ के दिसंबर 1965 अंक में देवेन एकाकी के नाम से छपी थी.
बलि का बकरा
…‘ध्यान कुटि, कुटि ध्यान, घ्यान घ्यान, कुटि कुटि…! चितई के गोल्ल मंदिर के आगे का थल बकरियों से भरा था. पुजारी जीत सिंह और आसपास के गांवों के ग्रामीण चितई गोल्ल मंदिर के आगे उमड़ पड़े थे. दोड़म गांव के प्रधान बीर सिंह ने पूजा डाली थी….नैनू-गोधनी ढोली ढोल-दाबुक और नगाड़ा दमदमा रहे थे…घ्यान कुटि, कुटि घ्यान, घ्यान घ्यान, कुटि कुटि…!
पीठ पीछे छिपाए हुए बड़याठ को बीर सिंह ने झटके से सामने खींच लिया और एक पैनी दृष्टि उसकी ओर डाली. धार पर तिरछी उंगलियां फेरीं. कुछ कुरकुरी सी महसूस हुई. एक हल्की मुस्कान मोटी-काली मूंछों के आरपार नाच गई. उसी नपे-तुले अंदाज से तीखे बड़याठ को पीठ छिपाते हुए बीर सिंह ने एक नजर चारों तरफ डाली. लोग आपस में खुसुर-फुसुर कर रहे थे. धोती के लंबे छोरों को उसने दोनों हाथों से कमर में खोंस लिया, हाथों की दृढ़, शिला-मूर्तियों के सख्त उभारों जैसी, पेशियों पर उंगलियां फेरीं और उसकी डरावनी गिरगिट जैसी आंखों में खून उतरने लगा. अचानक लपक कर उसने बड़याठ हाथों में मजबूती से पकड़ लिया. आंगन में बिछे पटाल जैसा पक्का चैड़ा सीना ऊपर-नीचे होने लगा. मूंछें फड़कने लगीं. क्रूर दृष्टि से उसने सामने देखा. पुजारी जीत सिंह बकरियों के कानों में हाथ से पानी डालता जा रहा था- छपाक्!! नदी-रौखड़ के सफेद शिलाखंडों-सी पचासों बकरियां थल में खड़ी थीं. पिठी-अक्षत लगी बकरियां कान फटफटा चुकीं, अंग-अंग झटक चुकीं, तभी-
बोल चितई के गोल्ल देवता की…
जै ऽऽऽऽ
बोल हरु सैम की…
जै ऽऽऽऽ…
और जै की इस कर्णभेदी आवाज ने नैनू गोधनी के ढोल-नगाड़ों को भी मात दे दी. सारी बकरियां बिलबिला उठीं. प्रधान बीर सिंह उनके बीच में कूद पड़ा- ख्याच्च…-प्याच्च…म्यां ऽऽऽऽ शिबौ….शिब….चुप!
महायु़द्ध. काश दूसरे महायुद्ध में यही बड़याठ बीर सिंह के हाथों में जर्मनी की भूमि पर होता. ‘रॉयल गढ़वाल राइफल’ के सिपाहियों में सबसे जोशीला जवान अफसरों की दृष्टि में वही तो था…… जै ऽऽऽऽ… घ्यान घ्यान, कुटि कुटि….
ख्याच्च….
चां….आं…आं….जै
खच्च…
कटी हुई बकरियां जमीन पर पछाड़ खा रही थीं और बची हुई भय से थरथरा रही थी. बीर सिंह को लगा जैसे खाई से निकल कर एक बार फिर उसने संगीन से उस जर्मन सिपाही पर धावा बोल दिया है- चां….आं…आं….जै. उसके सामने युद्ध की वीभत्सता नाच गई. सिपाही का खून खौल उठा.
युद्ध समाप्त होने पर सिपाही बीर सिंह मातृभूमि लौट आया था लेकिन खौलता खून लेकर गांव के लोग तो उसका पक्का शरीर ही देख कर डर जाते थे, अतः मारपीट की कभी नौबत ही नहीं आती थी. अंत में बकरियां काट-काट कर ही शौर्य की, प्रतिशोध की प्यास बुझाने लगा. और इधर चितई के थल में पिछले कई सालों से केवल वही बकरे काटता आ रहा था. लेकिन आज बात कुछ दूसरी थी. पिछले छह-सात साल से घरवाली खाट पर पड़ी कराह रही थी. अकेला लड़का था, वह भी त्योरे साल ‘कुमायूं रेजिमेंट’ में भर्ती हो गया था. बीर सिंह रोकता कैसे? उसी का तो खून था. आज वही बेटे की रक्षा के लिए मुस्तैदी से सीमा पर डटा हुआ था. धीरे-धीरे अतीत पूरी तरह उसके सामने घूम गया. पर दूसरे ही क्षण एक दूसरा चित्र उसकी आंखों के सामने उभरने लगा- खाट पर कराहती घरवाली. आह, बेटा सीमा पर सांसें गिनती घरवाली खाट पर पड़ी हुई और स्वयं चितई के थल में बड़याठ थामे हुए….यह त्रिकोणीय किरमोड़े का शूल हदृय में चुभता रहा-भीतर तक…..अंत समय तिरिया का साथी पति ही तो होता है…इसीलिए वह वहां है, नहीं तो क्या पता आज वह भी बहादुर बेटे के बगल में सीमा पर….. इन्हीं सब सुविधाओं ने घेर रखा है बेचारे को. क्या करे, क्या न करे? बचना तो पता नहीं,….अंत समय अपने ही हाथों अपने इष्ट देवता को आखिरी पूजा-प्रसाद चढ़ावा दें, फिर परमेश्वर की इच्छा! घरवाली की याद आती है तो दिल कसराने लगता है, हाथों में बड़याठ ढीला पड़ने लगता है. लेकिन कसराने से पूजा विफल हो गई तो?
बली बीर सिंह की…
‘जै ऽऽऽऽ’ के उद्घोष के साथ ही बीर सिंह पराक्रमी पुरूष की भांति इधर से उधर कूदने-फांदने लग गया था. जोश की अधिकता के कारण उसने अपना बायां पांव दाईं जांघ पर चढ़ा लिया था और एक ही टांग पर उछल-उछल कर बकरियों की मूंडियां गिराने लगा था. अंत में बच गया मगनुवां-डेढ़ सौ बकरियों को गोठ का सयाना मगनुवां, बीर सिंह का इष्ट देवता को दिया हुआ अपना ही चढ़ावा, घरवाली की आखिरी इच्छा. पिठां, अक्षत से मगनुवां का सिर रंगा था. पिछले सात-आठ सालों से उसे पाल-पोस का इतना बड़ा किया था, उसके साथ शुरू में कई महीने साथ-साथ बिछौने पर सोया था और उसकी मोहक नृत्य-मुद्राओं में उसने सजीले स्वप्न संजोए थे. मगनुवां उससे पूछ रहा था- क्या यही पुरस्कार देने के लिए प्यार से पाल-पोस कर बड़ा किया था मालिक? क्या मेरी मौत से तुम सचमुच मालकिन को जिला लोगे? बीर सिंह देखता ही रह गया. मगनुवां उसकी टांगों से चट कर खड़ा था. मानो प्राणरक्षक की छत्रछाया में. लेकिन उसे क्या पता था कि मालिक का वही रक्षक हाथ आज….. बीर सिंह का मन हुआ कि वह अपने प्यारे मगनुवां को छाती से लगा ले और उसे बताए कि वह कितना बड़ा धोखा दे रहा था उसे. मगर पिठां-अक्षत लग चुका था. अंग ढीले कर अब मगनुवां गोल्ल का हो चुका था. और ऐसे दिल कसराने से क्या गोल्ल उसके वंश को मटीयामेट नहीं कर देंगे, उसके मकान को खंडहर नहीं बना देंगे? बड़याठ को मजबूती से पकड़ कर बीर सिंह आगे बढ़ आया. मन में उथल-पुथल मची हुई थी…….मगनुवां मैंने तुझे लड़के की तरह पाला है रे!…मेरा अपराध क्षमा कर देना. स्वर्ग से हरुसैम की गोठ की शोभा बढ़ाना अब…. मगनुवां भी जैसे उसका आशय समझ गया था. चुपचाप सिर झुका लिया और आंखें मूंद कर जैसे कहने लगा…स्वामी, अगर ऐसे तुम अपनी घरवाली बचा सकते हो तो मारो बड़याठ…मालकिन जी जाएं…मेरा भी जनम सफल हो जाएगा.
दिल को कठोर बना लिया पधान ने.
-घ्यान कुटि, कुटि…
थ्याच्च!…
च्च च्…जै इष्ट देवता!
मैदान साफ हो गया. धूल में लुढ़कती मगनुवां की सजीली आंखें बीर सिंह की आंखों में अब भी झांक रही थीं. मृत शरीर तड़फा तक नहीं. इंसाफ़ तो हो चुका था. उसको लगा कहीं उसने गोली ग़लती से पांच अंश के कोण पर अपने…! डसके हाथ-पांव खून से लथपथ हो गए थे. खून की पिचकारियों से बदन रंग गया था. तब जर्मनी में भी सूखी ज़मीन के ऊपर कितने जर्मनों के खून से नहाया था बीर सिंह. और यहां कितने वर्षों से चितई के थल में बकरियों के खून से हाथ-पांव रंगता चला आ रहा है. लेकिन, उस खून और इस खून में धरती और आकाश का अंतर है! आज वह इष्ट के थान (मंदिर) में है. घर में घरवाली बीमार है नहीं तो ऐसे निहत्थे खून में थोड़े ही जवानी बरबाद करता अपनी. मोर्चे पर….चा….आ….आ…जै…बट्…कट्….प्वाइंट….
बीर सिंह का दिल पत्थर हो गया था, न दुख न दर्द. एक बार याद कर सभी कुछ बिसरा दिया उसने. हाथ-पांव जवानी के शौर्य से फड़कने लगे. हरकू कसाई का बड़याठ हाथेां में पतेल से हल्का हो उठा. उसे छोड़ने को दिल नहीं कर रहा था. वह सोचने लगा कि बकरियां खत्म क्यों हो गईं? काश! लोग बकरे ढकेलते जाते और वह काटता जाता….काटता जाता और काटते-काटते बेहोश होकर वहीं गिर पड़ता…..
उसने अपनी गर्दन चारों ओर घुमाई. बकरियों के निर्जीव शरीर और उनकी एकत्र मुंड़ियां प्रस्तर-मूर्ति पर पुजारी खून का टीका लगा रहा था. उसे लगा, जैसे गोल्ल मंदिर का संपूर्ण, घंटियों से लदा हुआ, बांज का वृक्ष हिल उठा है- टुन….टुन…टुन…. सायं-सांय कर हिमानी बयार डोल उठी. बीर सिंह का दिल कभी ऊंचे डानों (चोटियों) पर जाकर मोर्चे की ओर झांकने लगता और कभी नीची घाटियों में ग़ोता लगा कर घर के भीतर घरवाली की खाट के पास बैठ जाता. उसका मन फिर-फिर डानों पर चढ़ रहा था कि काश कोई खून का टीका लगा कर उसे भी दूर उत्तर की ओर बफांनी चोटियों पर उसके बेटे के साथ छोड़ आता. लेकिन फिर पछुवा का झोंका उसे नीचे ले आता- बीर सिंह जीवन का सहारा मत छोड़! आखि़री सहारा बेचारी का तू ही तो है! इसी पशोपेश में डूबता-उतराता वह थल से बाहर की ओर चला आया.
शाबास बीर सिंह! इस साल तो तुमने गजब का जोश दिखाया!
बिरका, तुम तो जैसे फिर लड़ाई पर चले गए थे!
पधान, मगनुवां हो…..
वह तेजी से निकल आया लोगों के बीच से . मन हुआ कानों में अंगुलियां डाल ले. न जाने उस समय बीर सिंह क्या-क्या सोच रहा था; न जाने क्या-क्या संकल्प कर रहा था.
अचानक उसे झटका-सा लगा कि वह बेकार ही दिल कमज़ोर कर रहा है. बदन से चिपका खून वह क्यों पोंछ रहा है? इतनी दृढ़ता और वीरता के बाद भी वह दिल कमजोर क्यों करें? विजयी राजा की तरह उसने बकरियों की एकत्र मुंड़ियों की ओर देखा और बिना बदन से खून पोंछे ही गणेशका के हाथ से हुक़्क़ा लेकर एक ओर बैठ गया. एक ज़ोर का कश खींच कर उसने फूंक निकाली. हुक्के का पानी गुड़गुड़ा उठा और धुएं के बीच पधान बीर सिंह अपने अतीत को टटोलने लगा. परंतु जिस धुएं के भीतर वह सदा से खून का छितराना देखना चला आ रहा था, डरावनी भयानक-चार्ज….धायं…धायं….धायं….की आवाजें सुनता आ रहा था, उसी में आज उसे एक ककड़ी के चीरे सी सूखी, झुरी हुई स्त्री की सूरत दिखाई दी. कराहने की क्षीण आवाज कानों में आती गई. रामबांस के लंबे-तीखे कांटे जैसे उसके सीने में चुभने लगे. दुखी फ़ाख्ते जैसा उसका दिल ऊंचे डानों से कहीं पार हरी-गहरी तलहटियों में उड़ने लगा…फुर्र….र्र….र्र,……फु…..र्र…र्र. गीली, दयनीय आंखों से उसने गोल्ल मंदिर की ओर देखा और उसे लगा कि सैकड़ों घंटियां उसकी पुकार सुनकर धीरे-धीरे हिल-हिल पड़ी हैं. -चुन….चुन…,टुन…..टुन….! उसने सोचा, कौन-सी बहार से हिली हैं ये? कौन जाने सुदूर से हिमानी हवाएं उसके बेटे की पुकार लाकर इन्हें झुला गई हो. और यह भी हो सकता है कि घर की टूटी चारपाई की चरमराहट ही यहां तक पहुंच गई हो! उसका मन प्रार्थना की गहराइयों में डूबता गया- दांहिने हो जाना परमेश्वर! उस दुखिया मां को बचा देना, स्वामी! दसों अंगुलियां मिला कर श्रद्धा से माथे से लगा ली उसने- यह पूजा स्वीकार कर लेना! अपने दास की आखिरी पुकार सुन लेना परमेश्वर!
पिछले सात साल, गेहूं मांड़ने के खलिहान में घूमते बैलों की तरह उसके सामने घूमने लगे. जुंयाली (पूर्णिमा) की रातें घिनौंड़ी (गौरेया) जैसी फु….र्र…र्र…से उड़ कर उसकी स्मृति के आंगन में बैठ गईं. – रे साहूकार जा! गुरू के वचन का पालन कर. चार दिन में घर के बाहर-भीतर चलने-फिरने लग जाएगी. लेकिन कोई फर्क नहीं हुआ; बेचारी रोगिणी की रोगिणी ही रही. कितनी ही उजियारी रातों भर प्रताप जगरिया का हुड़का दमकता रहा, घर की मनहूसीयत और सांय-सांय करते सुनसान में- दुंग…दुंग…दुंग.., लेकिन परेशानियों मे ही खून निथरता रहा बेचारी का. देवताओं का वश नहीं चला तो अंधियारी अमावस की रातों भर मशाण-चुड़ैलों की मनौती हुई. गुल्ल मंदिर के बांई ओर के घिंघारू के पौधे में बंघी असंख्य काले कपड़ों की कतरनों के बीच बेचारा बीर सिंह भी काले कपड़े का एक टुकड़ा बांध आया. दास को कुछ खिचड़ी और मांस भी बख्शीश के रूप मे दे आया. लेकिन न जाने ईश्वर क्या चाहता था? डॉक्टर से भी तो कुछ करते नहीं बना!
उसने चिलम गणेश का के हाथ में थमा दी. किसी बहाने मंदिर के पीछे चला आया और एक लकड़ी का टुकड़ा उठा कर जमीन कुरेद-कुरेद कर विस्मृति की गहरी जड़े उखाड़ने लगा. अतीत….शौर्य और उलझनों से भरा हुआ अतीत! बहादुर के बाद एक लड़की पैदा हुई थी- देबा. बेचारी रात-दिन भुमिया के मंदिर की ओर हाथ जोड़-जोड़ कर ढलती सांझ के समय अपनी मां के रोग मुक्ति हेतु अपने मूक वंदन में न जाने क्या-क्या कहती रहती थी. झगुली के फटे फेंट में तांबे का बड़ा-सा पैसा छिपा कर ठीक भगवान की पाषाण मूर्ति के ऊपर चढ़ाती थीं कि हे ईष्ट देवता, मेरी ईजा (मां) को बचा दो! पांच-छह साल आंगन में घिनौड़ी जैसी ची-ची चिचियाती रही और फिर फुर्र….र्र…र्र…से उड़ गई कहीं सुदूर अनंत की ओर. क्या पता, वही घिनौड़ी बन कर रोज आंगन में दाने चुगने के बहाने आती हो!
बीर सिंह उठ कर मंदिर के सामने चलना आया और नतमस्तक हो आखिरी याचना की- ले परमेश्वर! तेरी भी आखिरी परीक्षा है और मेरी भी आखिरी भेंट! तू ही उचित विचार करना अब. सब-कुछ तुझ पर छोड़ चुका हूं. अब बना या बिगाड़; तेरी मर्ज़ी. इसके बाद भी अगर उसे कुछ हो गया तो….
न जाने क्या करेगा पधान बीर सिंह फिर? आह, ऐसा दुख न देखना पड़े किसी को. कौन जाने क्या हो गया घरवाली को? क्या पता किसी ने घात ही डाल दी हो? एक बड़े से लोटे में पानी लिया बीर सिंह ने और खून को रगड़-रगड़ कर शरीर से छुड़ाने लगा. जवानी का सारा जोश उसे खून की धार के साथ बहता हुआ दिखाई दिया और उसे लगा, कहीं उसका अतीत भी इसी खून के साथ तो नहीं बह चला है! फिर पाठ पढ़ा कर और मंदिर का फूल-प्रसादादि लेकर बुझे दिल से उसने घर की तरफ पांव डाले. फूलों की मुरझाई पंखुड़ियां उसने बहादुर की मां के उलझे बालों के भीतर डाल दीं और पाठ एवं बलि के बकरे मगनुवां के बारे में चंद शब्द कहे.
उजियारी उदास भोर निकल रही थी. छत की मुंडेर पर दो कौवे कांव कांव कर रहे थे. दूर गंगसा नदी के रौखड़ में गंग-लोढ़ों के बीच चिता के धुएं की लकीर का एक चंदोक-सा उठ रहा था. अंतिम सहारे के धुएं से मिचमिचाती आंखों में भरे आंसू लेकर घुटा रुदन करते हुए पधान बीर सिंह आंगन से घर के भीतर की मनहूसियत की ओर बढ़ रहा था. दरवाजे पर एक सूखा मरियल सा कुत्ता लेटा था, मगर आज उसे फटकार कर लात नहीं जमाई. पुराना बंद गले का कोट फ़ौज की फटी सी कमीज के ऊपर पहना और फटे कीलदार बूटों के फीते बांधे. आशा का कफुवा पंछी दूर उस धुएं के चंदोक के पार उड़ा जा रहा था…..बर्फीली चोटियों की ओर….हिया हुलसा देने वाली हिमानी हवाओं के बीच बहादुर बेटे के साथ.
(‘बलि का बकरा’ कहानी ‘माध्यम’ के अप्रैल 1966 अंक में छपी थी.)
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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बहुत अच्छे देवेंद्र मेवाड़ी जी अगली कहानी का इंतजार रहेगा धन्यवाद.