क्वीन ऑफ़ बांग्ला पॉप के नाम से मशहूर रूना लैला, बॉलीवुड में एक ताजा हवा के झोंके सी आईं. उनका स्वर भारतीय उपमहाद्वीप में किसी परिचय का मोहताज नहीं है. एक दौर में चटगांव से लेकर कराची तक, उनकी आवाज का जादू सर चढ़कर बोला.
दिलकश आवाज़, आलाप लेने में रूहानियत का स्पर्श, उदासी के स्वर में हृदय को झंकृत कर देने वाली आवाज.
उनके साथ भी वही इत्तेफाक हुआ, जो अमीन सयानी के साथ हुआ था. ऐन मौके पर बड़ी बहन का गला खराब हो जाने के कारण रूना को पहला मौका मिला. उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
‘मेरा बाबू छैल छबीला, मैं तो नाचूंगी'(1972) गीत को उपमहाद्वीप में इतनी शोहरत मिली कि, तेरह बरस बाद, इसे बॉलीवुड फिल्म घर द्वार (1985) में दोबारा फिल्माया गया. उनकी गाई कव्वाली ‘दमा दम मस्त कलंदर’ को खूब शोहरत मिली. वैसे तो यह गीत सूफी गायन परंपरा का गीत है, जो मूलत: अमीर खुसरो की कविता से लिया गया था. बाद में बुल्ले शाह ने इसमें कुछ बंद जोड़े. बुल्ले शाह ने इसे दूसरा ही रंग चढ़ा लिया. इस कव्वाली को नूरजहाँ, नुसरत फतेह अली, आबिदा परवीन ने अलग-अलग रंगों में गाया है, लेकिन युवाओं की जुबान पर, रूना लैला का पॉपुलर कल्चर के हिसाब से गाया ‘दमादम मस्त कलंदर’ खूब चढ़ा.
बॉलीवुड में रूना को अवसर दिया, संगीतकार जयदेव ने. घरौंदा (1977) में उनका गाया सोलो सॉन्ग, ‘तुम्हें हो ना हो, मुझको तो इतना यकीं है’ बेहद पॉपुलर हुआ.
यह गीत इसलिए भी खास है, चूँकि यह अपने लिरिक में अंतर्विरोधों से घिरा हुआ सा लगता है. गीतकार नक्श लायलपुरी ने निम्न मध्यमवर्ग की मनोदशा को इस गीत में बखूबी चित्रित किया है. एक तरफ, ‘मुझे प्यार तुमसे नहीं है, नहीं है’ जैसा ऐलानिया वाक्य है, तो दूसरी तरफ,
‘मगर मैंने ये राज अब तक न जाना,
कि क्यों प्यारी लगती हैं बातें तुम्हारी,
मैं क्यों तुमसे मिलने का ढूँढूँ बहाना,
कभी मैंने चाहा, तुम्हें छूके देखूँ,
कभी मैंने चाहा तुम्हें पास लाना..’
किस्म का स्पष्ट अंतर्विरोध दिखाई पड़ता है, लेकिन अंतरे के आखिर में फिर वही पंक्ति आ जाती है- ‘मगर फिर भी, इस बात का तो यकीं है…
इस गीत में महानगरों में जद्दोजहद करता वर्गीय असमंजस, साफ-साफ झलकता है. ‘फिर भी जो तुम दूर रहते हो मुझसे,
तो रहते हैं दिल पर उदासी के साए,
कभी दिल की राहों में फैले अंधेरा,
कभी दूर तक रोशनी मुस्कुराए,
मगर फिर भी…’
रूना लैला ने इस गीत को इस अंदाज में गाया कि, किरदार को पूरा-पूरा न्याय मिल सके. उनके गायन को दर्शकों ने गीत के मूड के एकदम नजदीक पाया, इसीलिए उनकी गायकी को खूब सराहा गया.
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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