ज़रा सोचें सच की तस्वीरों को आईने में हम उतारने चलें और तस्वीरें ही बोलने लगें, तो कैसा महसूस होगा हमें? चौंकेंगे? धक्का लगेगा? बिल्कुल लगेगा क्योंकि हमें बोलती तस्वीरों की और आंखों में झाँकते सच की आदत नहीं है.
लेकिन ऐसी ही सच बोलती तस्वीरों से निगाहें मिला सकने की हैबिट डालती एक फ़िल्म आयी है – पीहू.
चूँकि यह सच के बारे में है. मूक सच के बाबत. इसलिए इसका संवाद लाउड नहीं होगा, गंभीर होगा. घरघराता हुआ. मंद्र. बिल्कुल नाभि के पास से उठता हुआ.
दुर्योग से इस फ़िल्म के रिलीज़ से क़रीब एक माह पहले हमारे एक रिश्तेदार की पत्नी ने पच्चीस वर्षों के वैवाहिक संबंध के बाद भी एक मामूली विवाद पर आत्महत्या कर ली.
इसके तमाम पहलुओं पर विचार करते हुए मैं और मेरे एक साथी अधिकारी का पुरज़ोर मानना था कि इन घटनाओं को और इनके अलग अलग पहलुओं को घर में डिस्कस किया जाना चाहिए.
एक बड़े फलक पर एक साथ पूरे भारत के परिवारों से फ़ैमिली डिस्कस करती मूवी पीहू हमारे पारिवारिक दायित्व को निभाती है.
अगर कहानी की दृष्टि से देखें तो ऐसी कोई अलग सी घटना या अंचभित कर देने वाला सब्जेक्ट नहीं है. ऐसी घटनाएँ हमारे आस पास घटती हैं या पुलिस फ़ाइलों और इंटरनेट के संसार में थोक में उपलब्ध हैं. फिर ऐसा इस फ़िल्म में विशिष्ट क्या है जो हमें कुछ देर के लिए सुन्न कर जाता है?
दरअसल यह फ़िल्म अपनी डेढ़ घंटे की रील में संवेदनाओं के उन सभी स्याह क्षणों को कंडेंस कर देती है जिन्हें हमने अलग-अलग वक्त पर निर्मम नीम रातखानों में देखा है, भोगा है. इसकी यही मारकता इस फ़िल्म का वैशिष्टय है.
आत्महत्याएँ पहले भी होती रही हैं. लेकिन आज समाज,परिवार और सबसे बढ़ कर आपसी रिश्तों के उधड़ते ताने बाने ने जिस बेदर्द और नितांत एकाकी परिवेश को जन्म दिया है उसमें कोई भी पीहू कितनी अकेली हो सकती है इसे फ़िल्म में बेहद सधी हुई चौंक से दिखाया गया है.
सबसे पहले हमें इस बात से इनकार करना चाहिए यह फ़िल्म बस यह डिटेलिंग देने के लिए बनाई गई है कि ऐसी परिस्थिति में एक बच्ची कितनी असुरक्षित है?
जी नहीं. आत्मघात करने वाले ने समझ और संवेदनशीलता की दहलीज़ तो कब की पार कर ली है. पीहू की माँ ने तो मैसेज दिया ही है कि पीहू इसलिए ज़िंदा है क्योंकि वह उसे साथ ले जाने का साहस नहीं कर पायी. क्या वह प्रेस बंद करके और बच्ची को दूध पिला कर ऐसा करती तो कहानी का मर्म चुक जाता? नहीं फ़िल्म तब भी कहती हमसे बहुत कुछ.
दरअसल पीहू हारी हुई मनोदशाओं, असामंजस्य में दम तोड़ते संबंधों और घातक नासमझी के एक ऐसे मकड़जाल के बारे में है जिसे एक छोटी दो बरस की बच्ची भोगती है. यह भोगना और भी कारुणिक इसलिए है क्योंकि भोक्ता को पीड़ित होने का ज़रा भी अहसास नहीं है. वो तो घूम रही है, मुँह पर जैम लपेट रही है और मर चुकी माँ की छाती पर सर रख कर सो रही है.
इसलिए उस नन्हीं जान के पीछे पीछे एक सचेत वयस्क मष्तिष्क सीन दर सीन प्रवेश करता है और स्वयं यातना भोगता है. जलते प्रेस, खुली गैस, बालकनी में झूलती बच्ची जब-जब बाल-बाल बचती है, तब-तब हमारे कलेजे में कोई तेज़ धार चाक़ू अंगुल-अंगुल भर धँसता जाता है.
उन अड़तालीस घंटों में दो वर्ष की नन्हीं बालिका नहीं अपनी संवेदनहीन नादानियों का बोझ लिए हम ही सरवाइव करने की कोशिश करते हैं.
इसके अलावा महानगरीय जीवन की अपनी भावहीनताएं तो हैं ही जिन्हें हम नार्मली भी झेलते ही हैं और जिन पर बहुत कुछ दिखाया फ़िल्माया जा चुका है. इसीलिए ये बहुत चौंकाती नहीं. हम जानते हैं और बहुत दुख के साथ जानते हैं कि पड़ोसियों को बिल्कुल पता नहीं चलेगा, दूधवाला घंटी बजा कर लौट जाएगा और चौकीदार एक लापरवाह ड्यूटी पर है.
पटकथा,निर्देशन और पीहू का अभिनय बेहद सघन है जो मर्मस्थल को बार बार कुरेदता है. पूरे डेढ़ घंटे (इंटरवल के दौरान भी) ना भृकुटियों के बल सीधे होते हैं ना कनपटी के पास की नसों का तनाव घटता है.
वो फ़िल्में और ही होती हैं जिन्हें आप रोमांच से रीढ़ खड़ी किए लगातार देख जाते हैं. पीहू की सफलता इसी में है कि आप इसे टकटकी बाँध कर नहीं देख पाते.
कई बार आँखों पर हथेली रख कर उँगलियों की फाँक से देखते हैं और बीच-बीच में व्हाट्सअप पर आये बेमतलब के चुटकुले पढ़ने की नाकाम कोशिश भी करते हैं.
यक़ीन मानिए यह फ़िल्म इतनी इंटेंस है कि आपके वीकेंड का सारा मजा मूड ख़राब कर सकती है.
लेकिन यदि आप ज़िंदगी के तमाम वीकेंडों की मुठभेड़ किसी ऐसे दर्द के साथ नहीं चाहते तो परिवार के साथ जा कर मूवी देखिए और घर लौट कर विचार कीजिए.
धन्यवाद निर्देशक विनोद कापड़ी जी, बहुत धन्यवाद.
बनारस से लगे बिहार के कैमूर जिले के एक छोटे से गाँव बसही में जन्मे ब्रजभूषण पाण्डेय ने दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्चशिक्षा हासिल करने के उपरान्त वर्ष 2016 में भारतीय सिविल सेवा जॉइन की. सम्प्रति नागपुर में रहते हैं और आयकर विभाग में सेवारत हैं. हिन्दी भाषा के शास्त्रीय और देसज, दोनों मुहावरों को बरतने में समान दक्षता रखने वाले ब्रजभूषण की किस्सागोई और लोकगीतों में गहरी दिलचस्पी है.
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