जून का पहला हफ्ता कुछ गर्म थपेड़ों वाला लेकिन मानसून की आश में झूमता हुआ मानसून पूर्व बारिशों में भीग रहा है,सूख रहा है,सँवर रहा है. शहर की आपाधापी में मौसम और प्रकृति को करीब से देखना मुश्किल होता जा रहा है. नौनिहालों की नज़र प्रतियोगिता भरे पाठ्यक्रम में उलझे रहती है. कश्मकश का यही हाल युवाओं की दिमागी परतों में भी चिपका रहता है. हाईस्कूल को इंटर तक पहुंचना है और इंटर वालों के ख्वाब तो अनन्त तक जा रहे हैं. नौनिहालों और युवाओं की इस भरी नैय्या के खेवनहार होते हैं माँ-बाप जिनकी हर सोच का छोर भौतिक सम्पन्नता में विलीन हो जाता है. ऐसे में क्या गर्मी, क्या बारिश, क्या पुरवाई, क्या बसंन्त.
(Reverse Migration in Uttarakhand)
शहर की परिधि से दूर अपने मूल को लौटते पहाड़ी प्रवासियों को आजकल अपने घर, बिरादर, अपने खेत खलिहान, नौले धारे खूब रिझा रहे हैं. नियत क्वारीन्टीन अवधी को पूरा कर लोग अपनी जन्मभूमि पर जां लुटा रहे हैं. कई जगहों पर हाल ही में खुदी ताजी सड़क सपना दिखाती तो है पर बच्चों की शिक्षा दीक्षा का ख़याल,पहाड़ और परदेश के द्वंद्व में उलझा ही देता है. भला कौन नहीं रहना चाहता उस जगह जहाँ जन्म पाया हो, जहाँ साँसों ने धड़कना सीखा हो. उधेड़बुन की इन श्रृंखलाओं को पके हुए रसदार काफल के ज़ायके ने कुछ देर तक हल्का कर दिया है.
घर आँगन के आस पास टहलते हुए ईजा बाबू, कका काखियों, आमा बुबू के रोपे हुए आडू, खुमानी, पुलम के दरख्तों की फलदार लचकती डालियाँ माया मोह के कितने सिलसिलों में डुबो देती हैं. कच्चे पुलम की खटास के साथ बचपन के जाने कितने अनघड़ किस्से मुस्कुराहटों और ठहाकों के साथ फूट फूटकर झरते हैं.
बढ़ती जवानी में जो साथी ‘कदम और रास्तों’ की तरह जुगलबंदी करते थे वे अब दूर दूर के इलाकों में ब्याह दिए गए हैं या दूर के गाँव की घरवालियों सहित अलमोड़ा, हल्द्वानी, दिल्ली में बसर कर रहे हैं. नौले, धारे, ग्वाले जाने वाले रास्तों के खड़न्चों में उगी घास को उखाड़ फेंक पुराने रास्तों में फिर से जाने का मन करता है. लेकिन सभ्य होने, टिप टॉप दिखने, बच्चों को अंग्रेजी ट्याम ट्युम बोलता देखने की हसरतों में खडंन्चों की घास तक हाथ पहुँचते ही नहीं.
(Reverse Migration in Uttarakhand)
कुछ पड़े लिखे रौबदार लोग फसक मारते हैं कि लॉकडाउन के बहाने ही सही पहाड़ लोगों के अपने आँगन में आने से खुश है. देखो न उस बार झेठ बैसाख में भी धारे, नौले नहीं सूखे. खेत खलिहान, धार कनाव हरियाली में खिलते रहे. मानसून पूर्व की बारिशें बरस लगी हैं लेकिन गर्मियां महसूस तक नही हुई. रवि की फसल काट, सुखाकर अब खरीफ के मंडुवा, मादिरा, धान बोये जाने लगे हैं.
सुंवर बानरों के अघोषित आतंक के खिलाफ संघर्ष करते पहाड़ी मनखियों ने बीज रोपना, सींचना, खरपतवार निकालना, फसल उगाना नहीं छोड़ा तो कोरोना संघर्ष में वो कैसे हार सकते हैं. किसी ऊंची धार पर किसी शाम ईजा लंबी सांस लेते हुए कुछ पलों के मौन के बाद कहती है – सुनो रे नान्तिनो, ज़रा कान लगा के इन वादियों में असंख्य आवाज़ें हैं, तमाम पेड़ों की सरसराहट है, झींगुर कीट पतंगों की मणमणाट है, सैकड़ों पंछियों का संवेत कलरव है, गैल पातालों से आती छोटे बड़े जानवरों की आवाज है, हुलरते गधेरों की सुसाट है. बावजूद इन सबकी मौजूदगी के मनखी समाज ने इस धरा को अपनी बपौती समझ लिया है. साफ़ दिखाई देता है कि हर किसी की अपनी नियत जगहें हैं जिनका अतिक्रमण नहीं करना ही इस धरती को खुशहाल रखना है.
सवाल दर सवाल हैं जिनके जवाब यहाँ से वहाँ टहलते रहते हैं. व्यवस्थाजन्य पलायन को रोका जा सकता है व्यवस्था के द्वारा ही. बाकी पलायन तो उतना ही पुराना है जितनी मनुष्य कुनबे की उम्र.
(Reverse Migration in Uttarakhand)
अल्मोड़ा के रहने वाले नीरज भट्ट घुमक्कड़ प्रवृत्ति के हैं. वर्तमान में आकाशवाणी अल्मोड़ा के लिए कार्यक्रम तैयार करते हैं.
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