कला साहित्य

रेवती रोई नहीं : एक सशक्त पहाड़ी महिला की कहानी

रानीखेत रोड से होती हुई रेवती लकड़ियों की गढ़ोई (बंडल) लेकर जैसे तंबाकू वाली गली से गुजरी, जमनसिंह की आँखों में चमक-सी आ गई. आलस में सुस्ता रहे शरीर में करंट-सा दौड़ गया. उसने अध लेटे शरीर को सीधा किया.
(Uttarakhand Story by Kshitij Sharma)

और अकड़कर बैठ गया. शेर छाप बीड़ी को उँगलियों के बीच दबाकर मटठी बाँध ली और अंगूठे वाले भाग से धुआँ खींचने लगा. खाँसी को किसी तरह थामते हुए बोला, “बौराणी, आज लकड़ियों की गढ़ोई यहीं रख जा. अरे, बाजार से आना-दो आना ज्यादा ही दूँगा. एक बार जमनसिंह का दिल अजमा तो ले.”

“थू बदजात!” रेवती ने मुँह भरके थूक का कुल्ला जमनसिंह की दुकान के आगे मारा और आगे निकल गई.

जमनसिंह कुछ कहता कि खाँसी रोकी नहीं गई. इसी चक्कर में हाथ में पकड़ी बीड़ी भी न जाने किधर जा पड़ी.
(Uttarakhand Story by Kshitij Sharma)

“हत् ! साली खाँसी ने भी तंग कर रखा है. किसी से बात करो तो इसका नंबर पहले.”

ऐसे मौके पर पंडित आनदेव भला चुप रह सकते थे! तपाक से बोले, “ठाकुर सैप, बुढ़ापे में खाँसी नहीं तो क्या रेवती आएगी!”

ठाकुर जमनसिंह भला यह व्यंग्य कभी सह सकते थे. रामनगर में ही नहीं, अपने सारे गिवाड़ में ठाकुर कहानेवाले जमनसिंह? सब जानते हैं, ठाकुर सैप ने अपनी पहली पत्नी को जरा-सा कहना न मानने पर निकाल दिया था, यह कहकर, “साली, तेरे को मुँह लगा रखा है, इसलिए सिर पर चढ़ गई. दो धेले के बाप की बेटी जमतसिंह की बदौलत रानी बन गई, तो आज जमनसिंह को हा आँख दिखलाती है.”

वह तो जरा-सी बदनामी हो गई थी गुसाईं राम को घरवाली के साथ वरना उन्हें क्या जरूरत थी रामनगर आकर ढाक के पत्तों में सीरा मिलाने की और पडित आनदेव का ऐसा ताना सुनने की. वे भी तपाक से बोले, “तुम भी पंडित ज्यू. कहाँ की बात कर रहे हो! यह तो सुसरी खाँसी जरा तंग कर देती है वरना अभी जमनसिंह दो शादियाँ खपा सकता है.” उन्होंने फिर शेर छाप की दूसरी बीडी सलगा ली और अपनी सफेद और काली मूंछों पर हाथ फेरने लगे.

रेवती तो चली गई पर जमनसिंह के मन में पंडित आनदेव का व्यंग्य और वती की ‘थु बदजात’ ठहर गई. पैंतालीस साल की उम्र में पैंतालीस से ज्यादा औरत के संपर्क में आने का दावा करते हैं वे. आज तक तो किसी औरत की मजाल नहीं हुई जो ऐसा कह दे. आज यह छटाँक-भर की रेवती उस सिलिपकार दर्जी के वहाँ रहकर अपने को लक्ष्मी समझती है और जमनसिंह को कह रही है बदजात. ठाकुरों की लड़की और थोकदारों की ब्वारी (बहू) सिलिपकार के घर रहकर अपने को सती-सावित्री ठहरा रही है. किसी जमाने की बात होती तो जमनसिंह दोनों को नंगा करके ऐसी चुटाई करता सालों की कि इनके बाप भी याद करते. पर करना क्या ठहरा, उल्टा जमाना आ गया है, वरना देख लेता आज जमनसिंह, कैसा होता है ठाकुरों की ब्वारी को घर में रखना और सिलिपकार के घर रहना करके. साले की हिम्मत कैसे हुई ठाकुरों की ब्वारी को घर में रखने की. कभी जमाना था, एक ही धात (आवाज) में पाँच बिसी सिलिपकार दौड़े आते थे ‘सौमान्यो ठाकुर’ कहते हुए. पर करना क्या ठहरा, जब अपनी ही ब्वारियाँ इनसे मिल जाएँ तो कहाँ नाक रखनी हुई?

मरिजादा नाम की तो कोई चीज ही नहीं रही. ढोंग करने को साला सिलिपकार खुद बाहर कमरे में रखता है. पर कौन नहीं जानता, वहाँ क्या होता है करके? ये आनदेव ही उस दिन कह रहा था, “मैं चिंतामणी के बौज्यू का सराद करके आ रहा था. रतनी की दुकान के पास से गुजरा तो क्या देखता हूँ कि साला रेवती के बालों से खेल रहा था.”
(Uttarakhand Story by Kshitij Sharma)

ये कौन-सा सीधा है. खुद तो उसके पीछे दो महीने से पड़ा है. मुझे कहता है, “बुढ़ापे में खाँसी नहीं तो क्या रेवती आएगी. उल्लू के पट्टे ने जमनसिंह को समझ क्या रखा है. मेरी ही बदौलत रामनगर में टिका हुआ है वरना कौन पूछता इसे. गाँव में तो जजमानियों से छेड़खानी करते समय पीट-पाट दिया था. तब भाग के आया रामनगर बाप हो दे कहने को. मेरा तो दिल ही इतना दयावान ठहरा. चाय-पानी का खोका लगवा दिया. चलो, गलती आदमी से ही होती है. अपने गाँव का पंडित है. पाँच-चार जजमान भी बना दिए. अब जमनसिंह से ही झड़प रहा है-देखो साले को.

रेवती जब से रामनगर आई है, ऐसे ताने सुनने की आदी हो गई है. इसे उसने अपनी नियति ही मान लिया है.

रामनगर वह पहली बार नहीं आई है. दूध पीती होगी शायद तब से आती रही है यहाँ. बौज्यू (पिता) गरीब थे. असौज-कार्तिक तक खेती का काम खतम कर भावार आ जाते थे. बौज्यू जंगल में चिरान-कटान का काम करते थे, माँ और दीदी घास-लकड़ी लाकर रामनगर के बाजार में बेच जाते थे. जब रेवती पर की हई तो थोकदार दिवानसिंह के साथ ब्याह दी गई. आज भी वह सोचती है. क्यों दिया होगा बौज्यू ने कहाँ ? रुपए की ही बात थी तो पहाड़ की रीति ठहरी. कहीं भी मिल जाते. हो न हो सयानाचारी की नाक रखने को थोकदारों में दिया हो. सही कारण न आज जान पाई है न तब जान पाई थी. पर इतना तो जान ही गई थी कि पिता और पति की उम्र में खास अंतर नहीं है. फिर वहाँ माँ की उम्र की दो सौतें थीं. थोकदार जी को कोई औलाद नहीं थी, इसी आस में एक विवाह और कर लिया था. थोकदार दमा के बीमार तो पहले ही थे. घर में कहा-सुनी भी बढ़ गई थी. सुबह-शाम झगड़े होने लगे. उम्र ढलती गई और शरीर घटता गया. रेवती के विवाह से डेढ़ साल बाद वे गुजर गए. छ:-सात महीने तक वह वहीं रही. तब बौज्यू ने दूसरा सौदा तय कर दिया था. पर क्या रेवती बिकने की ही चीज रह गई थी.

एक रात वह भागकर रामनगर आ गई. सोचा, चलो काम तो करना ही है. वहीं घास-लकड़ी बेचकर पेट भर लेगी. बेजोड़ के पतियों के साथ कब तक विधवा होती रहेगी.

पर रेवती को लगा, अब न वह रामनगर है, न वह रेवती. बचपन में जब पिता के साथ रामनगर के बाजार से गुजरती थी तो लोग उसे ‘चेली-चेली, (बेटी) कहकर बुलाते थे. अब ऐसे घूरकर देखते हैं जैसे खा जाएंगे. जिस गली से वह गुजरती है, चोर निगाहें पीछा करने लगती हैं. शुरू-शुरू में वह घबरा जाती थी. धीरे-धीरे जैसे आदत पड़ गई है. रतनराम उसके गाँव का दर्जी था. उसने थोड़ी ठौर दे दी थी. रेवती को उसकी नीयत नेक लगी.
(Uttarakhand Story by Kshitij Sharma)

दिन-भर जंगल से लकड़ियाँ काट लाती है और शाम को बाजार में बेच देती है. दो टैम का खाना निकल ही जाता था. ज्यादा जोड़कर करना भी क्या है इसे. अपना बखत काट ले जाना है. पर लोग बखत काटने नहीं देंगे शायद . बाजार आते-जाते समय उसके कानों में अक्सर आवाज पडती रहती है, “ये है वो ठाकुरों की लड़की जो रतनी दर्जी के यहाँ रहती है.”

“किसी ठाकुर को ही पकड़ लेती.” “अरे थू पड़े ! ऐसी चटोरियों को रखे कौन.” “चीज तो अच्छी है.”

और फिर कहकहे. पर वह सबकी परवाह किए बिना बाजार आती-जाती आते-जाते समय जमनसिंह की दुकान रास्ते में ही पड़ती थी. उसकी बकवास पर एक बार तो वह थूक ही देती थी. कई बार इच्छा हुई, सुना ही दूँ ससरों को, पर वह जाने क्या सोचकर चुपचाप निकल जाती थी. क्या फायदा दस सुनेंगे, दस हँसेंगे.

बसंत पंचमी को गुलीवर बाबा के मंदिर पर मेला लगता है. रेवती और रतनराम भी मेले के लिए जा रहे थे. जमनसिंह की दुकान से थोड़ी दूर रहे होंगे कि उसकी आँखों से आग बरसने लगी. देखते ही झनझना गया, साले की ये हिम्मत! अब तो साथ लेकर मेला भी जाने लगा है. देखा जाएगा, आज साले की अकल ठीक कर देता हूँ.

वे जमनसिंह की दुकान के पास पहुँच गए. जमनसिंह के बदन में आग लग गई.

गुर्राकर बोला, “यहाँ आ बे रतनी.”

रतनराम घबरा गया. वैसे भी सारे बाजार में हो रही थी-रतनी ने ठाकुरों की ब्वारी को रख लिया है. उसने जान लिया, आज तो अधोगत हो ही गई समझो. कौन देगा मेरा साथ!

जमनसिंह की दूसरी आवाज पड़ी उसके कानों में, “ये तेरी क्या लगती.”

रतनराम सुन्न हो गया.

रेवती ने दराँती कसकर पकड़ ली, “तुम पीछे हटो हो रतनराम. मैं बताती हूँ इसे…”

“सब सुन लो कान खोलकर. जब से मैं यहाँ आई हूँ, तुम्हारी बहुत चकर-पकर सुन ली है. अब जो किसी ने रतनराम की तरफ आँख उठाकर भी देखा तो एक-एक को चीर दूंगी इसी दराँती से.” जमनसिंह की तरफ दराँती घुमाकर बोली, “तू इससे क्या पूछता है? मुझसे पूछ-ये मेरा खसम लगता है.”

(Uttarakhand Story by Kshitij Sharma)

15 मार्च 1950 को अल्मोड़ा के मानिला गाँव में जन्मे क्षितिज शर्मा की कहानी ‘किसी को तो रहना है यहाँ’ उनकी किताब ‘उत्तरांचल की कहानियां‘ से ली गयी है. भवानी के गाँव का बाघ, ताला बंद है, उकाव, समय कम है, पामू का घर, क्षितिज शर्मा की कुछ अन्य कृतियां हैं.

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