जैसे-जैसे आप पहाड़ चढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे ढाबों, भोजनालयों, रेस्टोरेंट्स का आकार छोटा होता जाता है. न सिर्फ उनका आकार बल्कि मैन्यू भी पहाड़ चढ़ते हांफ जाता है. दुर्गम क्षेत्रों में तो सब कुछ एक छोटी सी छानी में समा जाता है. वहां आप खाना भी खाते हैं और किसी कोने में पड़े तखतों में रात भी गुजार सकते हैं.
पहाड़ी भोजनालयों का मौखिक मैन्यू बहुत छोटा सा होता है, चाय के साथ कुछ बेकरी आइटम, काले-सफेद चने, आलू के गुटके और खाना. कुछेक जगहों पर आपको उबला अंडा, आमलेट, बन-मक्खन, पकौड़ी और चौमिन में से भी कुछ चीजें मिल जाती हैं. मैगी इन भोजनालयों में अवश्य ही मिला करती है, देसी बंदे और बिगड़ैल बच्चे इसके ग्राहक होते है. वैसी मैगी दुर्गम पहाड़ों का एकमात्र लग्जरियस भोजन तो है ही.
जब भी में मैदानी इलाकों के ढाबों में यात्रियों से होने वाली खुली लूट के बारे में सुनता हूँ तो पहाड़ी भोजनालय बरबस याद आते हैं. मन इनके लिए कृतज्ञता के भाव से भर उठता है. इनमें स्थानीय, बाहरी व्यक्तियों व सैलानियों को एक ही भाव से परोसा जाता है और सबसे समान कीमत वसूली जाती है. हालांकि इन दिनों पर्यटकों से खचाखच भरी रहने वाली जगहों में लूट लेने वाली मैदानी प्रवृत्ति पनपती जरूर दिख रही है. हाल के दिनों में केदारनाथ में 100 रुपए का घटिया आलू परांठा बेचे जाने के भी किस्से मैंने सुने हैं, अलबत्ता मैं ऐसी किसी लूट का गवाह नहीं रहा हूँ.
ज्यों ही आप तराई से पहाड़ की तरफ चढ़ते हैं मैदानी इलाकों के इंसानों की तरह के जटिल, कुटिल मैन्यू से भी आपका पीछा छूटने लगता है. न मैन्यू बनाने वाले ने इसे बनाने में कुटिल गणित लगाया होता है न खाने वाले को लगाना पड़ता है. चाय-नाश्ते के आइटम कमोबेश मैदानी क्षेत्रों के ही दामों पर मिलते हैं. भोजन में मिलता है खाना. इसका मतलब होता है भरपूर खाना. बच्चों या कम भूखे लोगों के लिए अक्सर आधा खाना भी मिलता है. इस खाने में ताजा सब्जी-रोटी, दाल-भात को आप इफरात मात्रा में खा सकते हैं, साथ में चटनी-प्याज वगैरह भी मिलता ही है. हमेशा ही भोजन ताजा, स्वादिष्ट और पौष्टिक हुआ करता है.
यह ताजा और घर जैसा जायकेदार भोजन खिलाया भी बहुत आग्रह के साथ जाता है. प्रायः इन भोजनालयों में 1 या 2 लोग ही होते हैं, जो पकाने से लेकर परोसने तक की प्रक्रिया संपन्न करते हैं. कोई कम खाए तो संचालक थोड़ा और खाने का आग्रह करते हैं, जैसे आप इनके ग्राहक न होकर मेहमान हों. भोजन एकदम ताजा और स्वास्थ्यकर हो इसका बहुत ज्यादा ध्यान रखा जाता है.
‘भैजी! इतने खाने से क्या होता है,’ ‘दाज्यू! ये खाना तो अभी हजम हो जायेगा’ जैसे स्नेहिल आग्रह से ये ग्राहक की थाली में थोड़ा और परोस देते हैं.
इस ताजे और भरपूर पौष्टिक भोजन की कीमत हुआ करती है— 60 से 100 रुपया फुल डाइट. नंदा राजजात यात्रा तक में सड़क मार्ग से 13 किमी दूर बेदिनी बुग्याल में स्थानीय ग्रामीणों द्वारा लगायी गयी अस्थायी छानियों तक में भरपूर भोजन की कीमत 80 रुपया रखी गयी थी. जबकि सड़क मार्ग के आखिरी गाँव वाण से निकटतम बाजार 30 किमी की दूरी पर है और वाण से बेदिनी तक माल की ढुलाई खच्चर या कुलियों के जरिये ही की जाती है. मैदानी इलाकों में इस तरह के मेलों की कल्पना करें जहाँ ग्राहक सिर्फ आपके भरोसे हो, उसके पास निकटतम विकल्प 13 किमी दूर हो. दुकानदारों की मनमानी का जबरदस्त चित्र आँखों में कौंध जाता है.
60 से 100 रुपए फुल डाइट के इस पहाड़ी मैन्यू में गजब की सहृदयता दिखाई देती है. आपके या आपके साथ के बच्चे द्वारा बहुत कम खाने पर संचालक स्वविवेक से दाम कम लिया करते हैं. भोजन बनाने में ऐसी कोई चालाकी नहीं बरती जाती जिससे कि खाने वाला ज्यादा न खा सके— मसलन खाने में नमक-मिर्च ज्यादा झोंकना, रोज कद्दू, लौकी आदि सब्जियां परोस देना.
पूरा और आधा खाना का यह सिस्टम सभी पहाड़ी इलाकों में मिलता है. उत्तराखंड, हिमाचल, पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा नेपाल व भूटान के पर्वतीय इलाकों में भी सामान्यतः यही भोजन व्यवस्था चलन में है. सभी पहाड़ी इलाकों में इसकी मौजूदगी इस बात का प्रमाण है कि यह पहाड़ी बाशिंदों की सरलता से उपजी भोजन व्यवस्था है. इस सिस्टम में व्यावसायिकता को एक हद तक नियंत्रित रखा जाता है. यह व्यवस्था पहाड़ में उन पड़ावों पर भी मिलती है जहाँ पर यात्री या सैलानी ही रुका करते हैं. मैदानी इलाकों में इससे मिलता-जुलता थाली सिस्टम है, जिसमें भोजन की मात्रा तय हुआ करती है.
अपने इन्हीं गुणों की वजह से इन ढाबों, भोजनालयों के ग्राहक कभी असंतुष्ट नहीं दिखाई देते. प्रायः सभी ग्राहक अगली यात्रा में उसी जगह को दोहराना पसंद करते हैं. इन जगहों की एक बड़ी खासियत और भी है, यहाँ अपना सामान, बाइक, कार वगैरह को संचालक की जिम्मेदारी पर छोड़कर आप कहीं भी और कितने ही दिन के लिए जा सकते हैं. अगर आप कुछ भूल भी जाते हैं तो इन भोजनालयों के मालिक और स्टाफ चिंतित होकर आपके माल-असबाब का पहरा करते हैं.
-सुधीर कुमार
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9 Comments
Smita vajpayee
सिक्किम में मैन ऐसी ही सरल सहृदयता को महसूस किया है ..
Manoj चंद
बहुत अच्छे लिखे हो भाई । मेरा और परिवार का भी ऐसा experience रहा है । एक बात की तरफ़ ध्यान देना ज़रूरी है cleanliness । स्वच्छता का culture
आशुतोष
निःसंदेह 60 से 100 रुपये में भोजन मिल जाता है एयर उसे आत्मीयता से भी परोसा जाता है, लेकिन शायद ऐसे छानियों में थोड़ा बर्तन या माल मटेरियल की साफ सफाई का ध्यान रखे तो उनमें यात्रीगण खाना खाने में हिचकेगें नही।
मैन खुद कई बार अपने मित्रों को उन्ही छानियों में मैग्गी कहते देखा है, क्योंकि वो कम से कम साफ पानी मे उबाल कर बनाते है तो उनमें गंदगी होने का कम अंदेशा होता है।
वीरेंद्र विष्ट
भरपूर तृप्ति हो जाती है इन पहाड़ी ढाबों में खाना खा कर।
Alok Uniyal
Very true,Recently I spend 3days in Mukteshwar & travelled up to Jageshwar.
We lived in Honestly & relished food direct from owners kitchen.
In whole journey all food rates were reasonable less than city rates.
Aditya Kumar Mamgain
I recall my experience in such pahadi shabad in Chopta and Trijuginarayan. Quite satisfying experience.
चन्द्र शेखर लिंगवाल
तीन धारा का खाना और वो हरा निम्बू पानी, बयासी के परांठे और आलू के गुटके, हल्द्वानी पांडे जी की मैगी और नैनीताल जाते हुए मीट भात ,, सब बढ़िया ।।
बेहतरीन लेख।
Ranu
पिछले तीन साल में दो बार हिमाचल और एक बार उत्तराखंड जा चुके हैं । उनके खिलाने का तरीका इतना स्नेह भरा होता है कि आप एक की जगह चार रोटी खा कर उठते हैं। चंबा के रास्ते में एक मामे दा ढाबा पड़ता है।
उनका धाम इतना स्वाद था कि आज भी याद है
Dr Girish Kumar
I lived in remote block okhalkanda in nainital and remote block Narendra Nagar in tehri from yr 1983 to 1988 during govt service,doctor.still remember those hpy days and enjoyed food etc of thease dabbas,really people are very much simple and honest.still I went nainital many times.