1949 से 1950 तक तथा 1952 से 1958 तक गढ़वाल (वर्तमान पौड़ी,चमोली व रुद्रप्रयाग का संयुक्त नाम) के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड चेयरमैन रहे, स्वतंत्रता सेनानी श्रीधर आजाद, आजाद जी के नाम से पूरे गढ़वाल में लोकप्रिय रहे. लोकप्रियता का कारण उनका जनपद के सर्वोच्च पद पर रहते हुए भी आचार-व्यवहार में निर्लिप्त भाव से कार्य करना रहा है. किमोठी जाति उपनाम तो उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही छोड़ दिया था. 1941में पौड़ी और बरेली जेल में उन्होंने अपना नाम पूरी ठसक और निडरता से श्रीधर आज़ाद दर्ज़ करवाया था. जनपद चमोली के पोखरी विकास खण्ड में आज़ाद जी का जन्म 1919 में भिकोना गाँव में हुआ था.
(Shridhar Azad)
सन् 1941 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में आज़ाद जी को 9 माह की जेल और 50 रुपए का ज़ुर्माना हुआ था. 1942 में दो साल तक नज़रबंद भी रहे. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ही अपनी पहचान गुप्त रखने के लिए आज़ाद जी ने जो एक बार लम्बा भगवा चोला धारण किया तो फिर आजीवन उसे ही अपनी वेशभूषा बनाए रखा. लम्बी दाढ़ी और भगवा चोले में वे पहली नज़र में सन्यासी ही लगते थे. ऐसा उनके साथ अक्सर होता था कि वे किसी स्कूल में जाते और गुरूजी कहते कि बाबाजी भिक्षा तो गाँव में मिलेगी. इस पर वे कहते कि भिक्षा नहीं मुझे हाज़िरी रजिस्टर दे दो, मैं आज़ाद हूँ.
उस समय चेयरमैन के पास काफी अधिकार भी थे. चलते-चलते ही उन्होंने हजारों युवकों को शिक्षक के रूप में हस्तलिखित नियुक्ति पत्र थमाए. शिक्षा के साथ ही अन्य सड़क आदि विकास कार्य जो उनके कार्यकाल में हुए उनकी विशेषता ये है कि आज़ाद जी स्थलीय निरीक्षण कर आवश्यकता का स्वयं परीक्षण कर ही स्वीकृति प्रदान करते थे. कार्यकाल का उनका अधिकतर समय पूरे गढ़वाल क्षेत्र में लम्बी-लम्बी पदयात्राओं में ही व्यतीत होता था.
आज़ाद जी से तीन मुलाक़ात मेरी रहीं पर तीनों की स्मृति मानस पटल पर अमिट हैं. पहली बचपन की है. एक दिन स्कूल से घर लौट कर देखा कि किचन में रोटियों की ऊँची ढेरी, तीन-चार दर्जन केले, बड़े टोकरे में सेब-संतरे भरे हुए. पूछने पर माँ ने बताया कि मेहमान आ रहे हैं. खाद्य सामग्री को देखकर मुझे लगा था कि कम से कम आठ-दस लोग होंगे. बाद में देखा कि एक जोगीनुमा आदमी आए और सारी खाद्य सामग्री… आज़ाद जी अपनी डाइट के लिए भी प्रसिद्ध रहे.
दूसरी स्मृति उनकी, गाँव में ही किसी आयोजन में शामिल होने को लेकर है. सामूहिक भोज में भोजन करने के लिए वे पंक्ति में बैठ चुके थे तभी किसी बुजुर्ग ने मुझे आवाज़ दे कर कहा कि जल्दी से साफ जगह से थोड़ा दुबड़ा और कुणजा (दूब और गुलदाउदी) तोड़ कर ले आ. मुझे लगा कि इनसे मरहम टाइप की कोई औषधि बनायी जानी होगी पर आश्चर्य हुआ ये देखकर कि आज़ाद जी इनको अपनी पत्तल में ही एक किनारे रखकर भोजन के साथ चाव से खाने लगे.
(Shridhar Azad)
तीसरी स्मृति तब की है जब उनकी अवस्था 80 से ऊपर हो चुकी थी. गोपेश्वर बस स्टैंड पर एक भगवाधारी तेजस्वी चेहरे वाले वृद्ध को बस से उतरते देखा तो समझते देर नहीं लगी कि आज़ाद जी हैं. तुरंत अपने स्कूटर से उतर कर मैंने चरणस्पर्श कर पिताजी और गाँव का नाम बताकर अपना परिचय दिया. मैं मन ही मन खुश हो रहा था कि आज एक ऐतिहासिक व्यक्ति को स्कूटर में लिफ्ट दूंगा पर उन्होंने मेरा ऑफर निर्विकार भाव से ठुकरा दिया ये कह कर कि मैं पैदल ही चलता हूँ. फिर मैं स्कूटर किनारे खड़ा कर उनका थैला लेकर उन्हें उनके भतीजे के आवास तक ले जाते हुए साथ चला. रास्ते में मैंने एक बेवकूफी और करी उनसे कहा कि मैं आपका साक्षात्कार लेना चाहता हूँ. जवाब में उन्होंने उसी निर्विकार भाव से कहा कि मेरी इसमें कोई रुचि नहीं. आत्मप्रचार की अभिलाषा से मैं बहुत दूर पहुँच गया हूँ. अचानक से मुझे लगा कि जैसे अगल-बगल साथ चलने वाले हम दोनों में जमीन-आसमान का फासला हो.
श्रीधर आज़ाद जी ऐसे प्रशासक के रूप में सदैव याद किए जाएंगे जो ऋषियों की भांति सद्कार्य में हमेशा संलग्न रहे. सच्चे मायनों में वे आधुनिक राजर्षि थे. वर्ष 2005 में 8 सितम्बर को निर्वाण प्राप्त आज़ाद जी तन-मन से आजीवन आज़ाद रहे अमर स्वतंत्रता सेनानी और गढ़वाल के किंवदंती पुरुष डिस्ट्रिक्ट बोर्ड चेयरमैन आज़ाद नानाजी को उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर विनम्र श्रद्धांजलि.
(Shridhar Azad)
1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. .
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