अशोक पाण्डे

आज गिर्दा की तेरहवीं पुण्यतिथि है

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ज़िंदगी भर गिर्दा एक फिल्म बना सकने की हसरत पाले रहा – शेखर जोशी की कहानी ‘कोसी का घटवार’ को बड़े परदे पर दिखा सकने के उसके सपने की उसके बहुत से अन्तरंग लोगों को याद होगी.  गुसाईं और लछमा के अकथ मोहब्बतनामे के एक-एक दृश्य का विजुअल उसने गढ़ा हुआ था.
(Remembering Girish Chandra Tiwari Girda)

फ़ौज की नई-नई नौकरी में लगे गुसाईं के घुटने पर सर रखे लेती हुई किशोरवय लछमा काफल खा रही है. जंगल के एकांत में गुसाईं पके हुए लाल काफलों से भरी उसकी मुठ्ठी भींच देता है. काफलों का रस टपककर गुसाईं की पतलून पर लाल धब्बा बना देता है. प्रेम में पगी लछमा चुहल में उसे छेड़ती है.

गिर्दा कहता था इस दृश्य में कैमरा काफल के लाल धब्बे के क्लोज़ अप से ऊपर पेड़ों की तरफ तब तक चढ़ता जाएगा जब तक कि लाल फूलों से लकदक बुरांश की एक टहनी तक नहीं पहुँच जाता. यह शॉट तकरीबन स्लो मोशन में लिया जाना था. पार्श्व में बांसुरी पर विरह के पहाड़ी गीत न्यौली की धुन बजने लगेगी. कैमरा इस बार बुरांश के एक लाल फूल पर तब तक क्लोजअप में जाएगा जब तक कि पूरी स्क्रीन लाल न हो जाए.

क्लोज़ अप से वापस लौटते हुए यह लाल रंग लछमा की मांग में भरे लाल सिंदूर पर ठहरेगा जिसकी शादी किसी और से कर दी गयी है. गुसाईं छुट्टी के बाद ड्यूटी जा चुका है. न्यौली की धुन अब विवाह के मंत्रोच्चार में जज्ब होने लगेगी. किसी अनिष्ट की तरफ इशारा करता एक कव्वा लछमा की डोली के ऊपर कांव-कांव करने लगेगा.

“यहाँ से कैमरा एक बंजर पहाड़ की ऊंचाई दिखाएगा साहब!” आँखों में आँखें डालता गिर्दा कहता, “यह लछमा के आगे के मुश्किल जीवन का एक रूपक हुआ. समझे!”

साल में हमारी एक बैठक ऐसी ज़रूर होती जब उसे ‘कोसी का घटवार’ याद आता और वह दिमाग में कंसीव किया हुए फिल्म के किसी दृश्य की तफसील में रपट जाता.
(Remembering Girish Chandra Tiwari Girda)

फिल्म के आख़िरी दृश्य में गुसाईं की पनचक्की से गेहूँ पिसा कर लौट रही वर्षों पहले विधवा हो चुकी लछमा अपने दरिद्र घर के दरवाजे की सांकल खोल रही है. सांकल की खड़क मीलों दूर काम पर लगे गुसाईं को हकबका देती है और वह दिवास्वप्न देखने लगता है. लछमा चूल्हे पर रोटी पका रही है. गुसाईं उसे अपने सपने में देख रहा है. वह बेली हुई रोटी को अपने हाथों की सधी हुई गति से तवे पर डालती है. रात हो चुकी है. झोपड़ी के बाहर डली खाट पर लेटा गुसाईं पूरे चाँद को देख रहा है.

“अब चाँद जो हुआ उसको हम लछमा की पकाई रोटी में बदल देने वाले हुए!” फिल्म के क्लाइमेक्स सीन को किसी रहस्य की तरह उद्घाटित करने के बाद गिर्दा बीड़ी सुलगाने को कुरते की जेब में माचिस ढूँढने को हाथ घुसाता. बीड़ी सुलग जाती तो उसे होंठों के किनारे पर लगाए-लगाए सामने जो भी सतह होती उस पर लयबद्ध थाप मारता हुआ कहता,

“आसमान में चाँद की चमक हलके-हलके मंद पड़ती जाती है और हुड़के-थाली पर जागर की विकट धुन बजने लगती है …”

गिर्दा की पिक्चर कभी नहीं बनी. उसने उस स्क्रिप्ट को भी अपने दिल-दिमाग तक ही महदूद रखा. हर बार मैं उससे कहता कि दृश्यों की तरतीब को कागज़ पर तो उतार ही दे.

“आदमी की जिन्दगी में सारे काम पूरे जो क्या होने वाले हुए बब्बा!” माथे पर बल डालता हुआ गिर्दा मेरी बात को हवा में उड़ा दिया करता.

आज उसकी तेरहवीं पुण्यतिथि है.
(Remembering Girish Chandra Tiwari Girda)

अशोक पाण्डे

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  • यह ऐक बेहतरीन कहानी हैं
    जो मैं जब भी नजर से गुजरती हैं पढ़ता हूं ।यह
    च॔द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी उसने कहा था से मिलती जुलती है ।

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