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सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर! नाम बड़ा नाज़ुक है. बहुत मनन के बाद ऐसा नाम ज़ुबां पर उतरता है. एक सजग विनम्रता और चौकन्नापन दिखता है मुझे. बड़ी बारीक कारीगरी से बहुत स्थूल कार्यक्षेत्र को समेट लेने का हुनर. बाज़ार बड़ा कारसाज है.

इनफ्लूएंसर!

मैं नाम पर अटक जाता हूं.

दरअसल ये एक बड़ा फेनोमेना है. बहुत प्रभावशाली… देखा! मैने कहा था ना ये नाम मुझे बांध रहा है. प्रभावशाली! मेरी नज़र आज की ताज़ा ख़बर पर अटकती है. केरल के एक जवान, छब्बीस बरस के लड़के को इस वजह से गिरफ्तार किया गया कि वो आपत्तिजनक और भ्रामक बातें अपने यूट्यूब हैंडल से कर रहा था. ये उम्र और इनफ्लूएंस कर देने की इतनी क्षमता!

मल्लापुरम जनपद में एक दुकान के उद्घाटन के मौके पर आपत्तिजनक और गलत सूचना भेजकर ट्रैफिक जाम करवा देने का आरोप है थोप्पी नामक उस लड़के पर. वैसे थोप्पी उसका स्क्रीन नाम है. मोहम्मद निहाद एक गेमर है जिसे एंडोर्स करने वाले कोई सात लाख लोग हैं उसके हैंडल पर. सात लाख. बहुत बड़ी संख्या नहीं है, लेकिन `फुह!’ करके छोड़ देने वाली भी नहीं.

ख़बर की तफसील में ख़बर ये भी है कि केरल सरकार ने तेरह यूट्यूबर एकेए सोशल मीडिया इनफ्लूएंसरों के ठिकानों पर छापे मारी की है जिनकी सलाना आय एक करोड़ से ज्यादा है. नए नियमों के मुताबिक हर वो सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर जीएसटी एक्ट के अंतर्गत रजिस्टर होना चाहिए जिसका सलाना टर्न ओवर बीस लाख से ज्यादा है. यानी इनपर 18 प्रतिशत का टैक्स वाला नियम लागू होगा. ध्यान देने की बात ये है कि ये पेड प्रमोशन कंटेंट से होने वाली आय से इतर आय की बात हो रही है. पेड प्रमोशन कंटेंट तो व्यापारिक आय के रूप में टैक्सेबल होगी ही.

एक रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2016 में वैश्विक इन्फ़्लुएन्सर बाज़ार 1.6 बिलियन डॉलर का था जो अब 2023 में बढ़कर 16.4 बिलियन डॉलर का हो चुका है. यही वजह है कि इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की रडार पर हैं सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर्स.

मज़ेदार बात ये है कि ये रडार अभी कंटेंट की प्रामाणिकता या उसकी गुणवत्ता को अपने डैने में आच्छादित करने से मीलों दूर है. सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर की ऑडिट खुद ब्रांड करता है. पेड प्रमोशन कंटेंट देने वाले ब्रांड की प्राथमिकता सिर्फ इतनी रहती है कि वो ये देख ले कि ऐसा तो नहीं कि बन्दे के फालोवार्स फेक हों. बस! इससे ज्यादा मामला उनकी सोशल रिस्पोंसबिलिटी में नहीं है.

बाज़ार बड़ा कारसाज है. वो मौके पर आंखों पर पट्टी बांधने का खेल कर जाता है.

इस बात के मद्देनज़र मुझे इस ख़बर ने भी गिरफ्त में लिया है कि एक राज्य सरकार प्रचार-प्रसार का काम सोशल मीडिया इनफ्लूएंसरों को देने वाली है. ऑफिशियली! अन ऑफिशियल तौर तरीकों में तो जंगल में मैन वेर्सेज़ वाइल्ड चल ही रहा था. आशा करना मूर्खता होगी कि सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर के ओवरआल इम्पैक्ट असेसमेंट नाम की कोई चिड़िया सरकारी छज्जों पर बैठती भी होगी. यहाँ तो बस इतना जान लेना ही काफी होगा कि वो माइक्रो इनफ्लूएंसर है या मेगा यानी उसके मानने जानने वाले फॉलोअर्स कितने हैं और उसपर प्रिंट मीडिया का रेट लगेगा या इलेक्ट्रोनिक का. संख्या बड़ा निर्णायक स्थान रखने लगी है. संख्या बड़ी कारसाज है. संख्या किसी चीज़ को अच्छा या बुरा साबित करने लगी है. संख्या बताती है कि कोई कवि कवि है या कथा वाचक!

बहुत से सोशल साइंटिस्ट ये कहते हैं कि थोप्पी उस अराजक इंटरनेट उप संस्कृति (सब कल्चर) वाहकों का प्रतिनिधि है जो तबाहकुन है, स्त्री द्वेषी है और हिंसक है. ये तीन शब्द अपने आप में एक लंबा और गहरा चिंतन मांगते हैं ख़ास तौर पर तबाहकुन. ये एक अकेला शब्द सक्षम है उन अंतर्धाराओं को समझने के लिए जो फिलहाल समाज की भीतरी तहों में बह रही हैं. इस शब्द को मिलिटरी के नहीं राजनीति के चश्मे से पढ़िए. पिछले कुछ सालों में अपने पंथ की उग्र उपस्थिति दर्ज कराने के लिए किए गए कार्यों से ज्यादा खतरनाक रहा है वो इंजेक्शन जिसमें भ्रामक सूचनाओं, तथ्यों की तोड़ मरोड़ और इतिहास की शातिर व्याख्या का रसायन भरकर समाज को दिया गया. स्पष्ट और मुखर राजनीति का भी उतना प्रभावी असर नहीं होता जितना फेक न्यूज़, डॉक्टर्ड वीडियो, एडिटेड फोटो, मीम और ट्विस्टेड फैक्ट्स का. कारण बहुत स्पष्ट है. अपने बाहरी कलेवर में राजनैतिक तौर पर ये उतने तीखे नहीं दिखते. इनपर मुलायम सी कोई धार्मिक, कलात्मक, सांस्कृतिक परत चढ़ी हुई होती है जो एक किस्म की चिकनी भावनात्मक अपील से ग्लेज़्ड की गयी होती है.

सबसे बड़ी मुश्किल इस बात में है कि इस सरस सलिल सी दिखने वाली खतरनाक टैक्टिक्स को काउंटर करने की रणनीति भी वही बचती है जो इसकी रणनीति है. यानी सबवर्ज़न! इन अ पॉजिटिव वे ऑफ़ कोर्स! पर ये कहना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है इसे अमल में लाना. तब जबकि डिजिटल डेमोक्रेसी सिर्फ दिखने भर के दांत हैं. असल में जनसुलभ और बराबरी से मुहैय्या समझा जाने वाला ये माध्यम बुरी तरह से ग़ैर लोकतांत्रिक है. ऐसे में जनता के खिलाफ़ जनता का सहयोग ज़रूरी लेकिन बेहद मुश्किल होता है क्योंकि जनता खुद विनाशक के रोल में भी होती है. दूसरा, जनता जिस मूल्य को सबसे ज्यादा तूल देती है उसी को पकड़ कर उसका एंटीडोट तैयार करना होता है. मुश्किल इसीलिये आती है कि इसमें लड़ने और मात खाने वाली भी जनता ही होती है. बातों के सिरे बहुत उलझ गए हैं पर ये गाँठ भी लगानी ज़रूरी है कि घातीय दर से बदल रही इस दुनिया के लिए देश का इन्फोटेक क़ानून पर्याप्त नहीं है. कहा जा रहा है कि नए `डिजिटल इंडिया एक्ट’ से ए आई, ब्लॉकचेन टेक्नोलॉजी के अतिरिक्त सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर या नेटीजेंस की दुनिया पर बड़ा असर आने वाला है. यहां राज्य की मंशा को जांचना ज़्यादती तो नहीं ही कही जाएगी. ख़ास तौर पर निजता का अधिकार के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय में बहस के दौरान उलटे-पलते गए इस तर्क से गुजरते हुए- आप कह सकते हैं कि आप भुलाया जाना चाहते हैं लेकिन राज्य आपको भूलना नहीं चाहता-  यू मे से दैट यू वांट टू बी फॉरगोटेन बट द स्टेट डज़ नॉट वांट टू फॉरगेट यू!  

इस तर्क से यह भी याद आया कि भुला दिए जाने का अधिकार यानी `राईट टू बी फॉरगॉटन’ अर्जेंटीना, फिलीपींस जैसे देशों ने लागू कर लिया है. यहाँ के नागरिकों को यह अधिकार है कि पूर्व में की गयी उनकी इन्टरनेट आवाजाही यानी उनके फोटो, वीडियो, ब्राउजिंग या अन्य जानकारियाँ इन्टरनेट से डिलीट कर दी जाएं जिससे सर्च इंजन की खोज में वो ना दिख सकें. हालांकि ये `निजता के अधिकार’ से अलग बात हुई फिर भी जाने क्यों इस आभासी दुनिया में जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास `नाइनटीन एटी फोर’ का कथन हर बात पर हावी है जिसमें वो ये कहते हैं कि अगर आप कोई राज़ बनाए रखना चाहते हैं तो उसे अपने आप से भी छुपाना पड़ेगा! इफ यू वांट टू कीप अ सीक्रेट यू मस्ट हाईड इट फ्रॉम योरसेल्फ! `डिजिटल इंडिया एक्ट’ से आगे इस दुनिया का क्या स्वरूप क्या होगा ये वक्त के पिंजरे में कैद है और आप जानते ही हैं कि किसी सोशल मीडिया इनफ्लूएंसर ने कहा है कि वक्त बड़ा कारसाज है!

पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक प्राचीन शहर जौनपुर में जन्मे अमित श्रीवास्तव भूमंडलीकृत भारत की उस पीढ़ी के लेखकों में शुमार हैं जो साहित्य की विधागत तोड़-फोड़ एवं नव-निर्माण में रचनारत है. गद्य एवं पद्य दोनों ही विधाओं में समान दख़ल रखने वाले अमित की अब तक चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- बाहर मैं, मैं अंदर (कविता संग्रह), पहला दख़ल (संस्मरण) और गहन है यह अंधकारा (उपन्यास) और कोतवाल का हुक्का (कहानी संग्रह)। सम सामयिक राजनीति, अर्थ-व्यवस्था, समाज, खेल, संगीत, इतिहास जैसे विषयों पर अनेक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं/ ऑनलाइन पोर्टल पर प्रकाशित हैं। भाषा की रवानगी, चुटीलेपन एवं साफ़गोई के लिए जाने जाते हैं. भारतीय पुलिस सेवा में हैं और फ़िलहाल उत्तराखंड के देहरादून में रहते हैं. taravamitsrivastava@gmail.com

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