आजकल तो चौमास या बरसात के महिनों में एक डर बना रहता है कि कहां पहाड़ दरक जाये, कहां नदी रास्ता बदल दे, कहां सड़क पर मलवा आ जाय, कहां जन-हानि हो जाय? लेकिन पहले चौमास इतना भी डरावना नहीं था. सच कहूं तो मुझे बरसात का मौसम बड़ा सुहावना लगता था. बसन्त में जो नई कोपलें फूटती हैं उन पर पूरा यौवन तो बरसात ही लाती है. पहाड़ों में गरमी के मौसम में वनाग्नि वगैरह से जो नुकसान होता है पेड़-पौधों का, बरसात की बूंदें उन पर मरहम का काम करती हैं.
(Rainy Season Memoir Uttarakhand)
ऐसा नहीं है कि पहले बरसात के मौसम में डर नहीं था. डर तो था पर यह डर ऐसा नहीं था कि आपकी रूह कांप जाय. तुलसीदास जी की पक्ति – घन घमन्ड नभ गरजत घोरा प्रियाहीन डरपत मन मोरा, जैसा डर था. कहीं बिजली कड़कती घड़म-चड़म होती और हम जहां भी होते तुरन्त अपने घर पहुंचने की कोशिश करते या वहीं आस-पास सुरक्षित ठिकाना ढूढते और निश्चिन्त हो जाते. खेत में गये हों या गाय चराने कहीं भी बारिस हो तो हम आस-पास उड्यार (गुफा) या बड़े पत्थर की ओट में बैठ जाते थे और गायें भी चरना छोड़ एक जगह इकठ्ठा हो जाती थी. हम वहीं बैठकर बारिस का मजा लेते और आसपास के जंगल में कोई दूसरा ग्वाला अपनी गायें बकरियां लेकर आया हो और वह मुरली की तान छेड़ दे तो रिमझिम बारिस का मजा दुगुना हो जाता था. उड्यार में बैठे बैठे मन में ये आशंका भी रहती कि बारिस कितनी लम्बी चलेगी?
कभी-कभी जंगल या खेत के पास कोई अजनबी हिटन-बटाव् भी वहां आ जाता तो ये भी एक नया अनुभव होता था. मैने नोट किया है तब पहाड़ के लोग प्रकृति के बहुत नजदीक थे उनके मित्र हो गये थे तो मौसम का पूर्वानुमान सटीक लगा लिया करते थे मसलन बादल किस रंग का है किस दिशा से बारिस उरी के आई है? हवा किधर चल रही है? सुरज छिपते वक्त दिन उघाड़ गया कि नहीं इन बातो का निचोड निकालकर अगले दिन का अनुमान लगा लिया करते थे.
(Rainy Season Memoir Uttarakhand)
चौमास में पालतू पशुओं के भी मजे हैं. घा-पात की इफरात रहती है. जंगल जाने वाले जानवरों को हर जगह हरी घास मिल जाती है. महिलाओं को भी हरी घास के लिए मशक्कत नहीं करनी पड़ती धान की निराई करो तो घास, घर के आसपास सफाई करो तो घास, इजर मांगो में घास ही घास हुई. पहाड़ में तो कहवत भी है – ह्यूनैकि रिस्यार, चौमासै घस्यार मतलब आसानी हुई. हां हर तरफ कच्यार होने से घास काटने में दिक्कत तो हुई ही पर पहाड़ की वो नारी ही क्या जो इन दिक्कतों को मुख लगाये. एक और परेशानी चौमास में होती है वो है लगातार पानी में काम करने पर पैरों की अगुलियों के बीच कांधूं हो जाती है. कांधूं में पैरों के अगुंलियों के बीच गलने लगता है जिसमें खुजली के साथ दर्द होता है और खून बहने लगता है. लेकिन आश्चर्यजनक तथ्य ये है कि आज तक कांधूं में किसी ने डांक्टर को नहीं दिखाया होगा. इसका इलाज पध्योड़ नामक एक बदबूदार वनस्पति से ही परम्परागत रूप से होता आया है.
चौमास की सबसे अच्छी बात ये है कि ये मौसम पहाड़ों में संगीतमय सा हो जाता है. कहीं बारिस की रिमझिम तो कहीं बारिस से पत्थर वाले मकानों की बन्धार लगाये बर्तनों की कन-कन-टन-टन-टप्प-टप्प. ये अब लिंटर वाले मकानों में तो लुप्त हो चुका है. चौमास में कीड़े मकोड़े किन-किन टिन-टिन, टुरुक्क, ट्वीईई ट्वीईई की आवाज और बीच-बीच में तीतर का “तीन पाई तीतुड़क्क” की गूंज कहीं घुघूती की घूर-घूर. ऐसा लगता है सब बरसात के स्वागत में गीत गा रहे हों. कभी-कभी तो हल्की-हल्की बादलों की गड़गड़ाट और भड़म्म-घड़म्म भी अच्छी लगती है. गाड़ गधेरों की कल-कल छल-छल भी इस मौसम में सुहानी लगती थी. ये कल-कल छल-छल कब तेज बारिस के चलते कब सुगाट-गुगाट में बदल जाय पता नहीं चलता था.
बाड़ों क्यारियों में साग-पात भी खूब हो जाता है. बाड़े में जाओ कुछ भी हरा चून चान कर ले आओ और थोड़ा ज्यादा भुटंण डालकर वैला लो और हो गया स्वादिष्ट टपकिया तैयार. गरमी में पहाड़ के नौले धारे में पानी कम हो जाता है और चौमास आते ही पानी से डब्ब भर जाते हैं. हम बच्चों के लिए पानी का वह मौसम कौतूहल भरा हो जाता था. पहाड़ों में जगह-जगह चौमासी स्त्रोते जिन्हें छ्वा फूटना बोलते हैं फूट जाते हैं. बचपन में हम इनमें बहुत खेला करते थे. कही पर ताल जैसी बना दी कही पर बान काटकर पानी इधर-उधर चला दिया. कहीं पर छ्वा के पास पत्ता या केले का तना लगाकर धारा सा बना दिया. प्यास न हो तब भी उसका पानी पीते और हाथ पैर धोने लग जाते. कभी ताल बनाकर पानी कचुव कर दिया फिर उसके साफ होने का इन्तजार करने लग जाते. कही छ्वा फूटे जगह पर खोदने लग जाते थे और देखने की कोशिश करते कि पानी कहां से आ रहा है? कहीं खेतों में जाने वाले बान पर बूजा लगाकर पानी रोकते कहीं अचानक पानी छोड़ते और पानी का वेग देखकर प्रफुल्लित होते. कभी-कभी इन खेलों को उपद्रव में भी बदल देते जैसे – किसी के खेत का पानी तोड़ देते किसी और के खेत में कर देते और उनका आपस में लड़ना देखकर गुदगुदाते और कभी किसी के डब्ब भरे खेत की मेंड़ तोड़कर बहते पानी का आनन्द लेते.
(Rainy Season Memoir Uttarakhand)
पहाड़ों में छ्वा घरों के आसपास या किसी-किसी के गोठ में भी फूट जाते हैं. मुझे बड़ी शौक थी कि मेंरे घर के आस-पास भी छ्वा फूटे हालांकि ये घर के आसपास के स्त्रोते परेशानी ही करते थे फिर भी हमें तो खेल से मतलब था बडों की परेशानी से हमें क्या लेना देना?
बारिस के मौसम में अक्सर हम स्कूल जाने से भी बच जाते थे. लेकिन कभी-कभी घर से निकलने के बाद किसी तेज गधेरे के कारण रास्ते में रुकना पड़ता था. कोई सयाना आ गया तो वो गधेरा तरा देता था. बरसात में भीगी घास के कारण पेन्ट भीगने से बचाने के लिए पेन्ट घुटनों से उपर तक मोड़कर जाना अब भी याद आता है.
कहीं जाना हो तो बरसात से बचने के लिए छाता नहीं के बराबर होती थी. प्लास्टिक की पन्नी का मौंण मिलता था बाजार में उसी को सिर पर डालकर बारिस से बचते थे. ये न होने पर जूट के बोरे को बीत से मोड़कर मौंण का आकार देकर काम चला लिया जाता था पर यह ज्यादे कारगर नहीं हुवा बस तसल्ली हुई कि सिर में कुछ डाला है. एक रिंगाल के सीकों को छीलकर और बीच में पत्ते फसांकर भी मौंण बनता था इसका नाम क्या था फिलहाल याद नहीं आ रहा.
पाथर वाले मकानों में छत टपकना भी एक आम बात होती थी इसके लिए कमरे के अन्दर चूने वाली जगहों पर लोटा, परात, बाल्टी लगाया करते थे और इन बर्तनों की स्थिति लगातार देखनी होती थी क्योंकि टपकने की जगह बदलती रहती थी.
चौमास में पहाड़ में एक चीज और होती थी जुग (जोंक) लगना. ये जुग जब लगते थे तब पता नहीं लगता था हल्की खुजली का अहसास तब होता था जब जुग खून चूस चुका होता था. कई बार तो जुग खून चूसकर गिर जाता और हमें बहुत बाद में पता चलता था. जुग काटे की जगह खून रोकना कठिन होता था. खून रोकने का रामबांण इलाज था बीड़ी के बन्डल का कागज चिपकाना. ये आघुनिक बैन्डएड से भी अच्छा उपाय था. हालांकि जुग लगने पर कोई नुकसान वैसा नहीं होता था पर एक कुरबुरैल जुग जहरीला भी होता था जिसके काटने पर वहां पर पक जाता था. जंगल जाने वाले गाय भैसों के नांक में भी ये जुग घुस जाते थे फिर नमक या तम्बाकू डालकर निकालना पड़ता था.
तब आज के जैसे भूस्खलन नहीं होते थे कहीं-कहीं छोटे स्तर पर हुआ करते थे जिन्हें हम पैर आना कहते थे. जिससे पैर वाली जगह का भूगोल कुछ बदल जाता था जिससे नुकसान के साथ कभी फायदा भी हो जाया करता था. कभी नदी खेत में या चरागाह में आ रही हो तो रास्ता बदलने पर किसान को फायदा हो जाता था कभी नये रास्ते बन जाया करते और कभी आश्चर्यजनक रूप से नये सदानीरा छ्वा फूट जाते थे.
इसी मौसम में स्याप-किड़ भी निकलते हैं कुछ परेशानी भी होती है गाय-भैंसों को डांस (मच्छर) लगते हैं. महिलाओं को बाहर के काम में दिक्कत होती है पर पहाड़ी तो पहाड़ी हैं दिक्कतों को कैसे साधा जाता है अच्छी तरह जानते हैं. बस हर मौसम का आनन्द लेना जानते हैं न शिकवे न शिकायत.
(Rainy Season Memoir Uttarakhand)
वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
इसे भी पढ़ें: जब पहाड़ के बच्चों का मुकाबला अंग्रेजी मीडियम से न होकर हिन्दी मीडियम से था
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें