इस मनुष्यभक्षी का कार्यकाल समाप्त हो गया था. जिन लोगों ने उसे मृत्यु तक पहुँचाया था, वे हीरो बन चुके थे. उन्हें फूलों की मालाएं पहनाई जा रही थीं और गाँव की सबसे ऊंची बैलगाड़ी पर शान-बान से बैठाकर सड़कों पर घुमाया जा रहा था. इसी के पीछे एक दूसरी बैलगाड़ी में वह मरा हुआ बाघ आँखें खोले पड़ा था. उसकी लाश गाड़ी में फैली थी और पूँछ नीचे लटकती चली जा रही थी. गाँव के लोगों ने दिनभर के लिए सारा कारोबार बंद कर दिया था, और मर्द, औरत, बच्चे, बूढ़े, सभी या तो जुलूस के पीछे चल रहे थे या जगह-जगह खड़े होकर उस प्राणी को देख रहे थे जिसने इतने दिनों तक उनका जीना हराम कर रखा था. सब इस बाघ की ही बातें कर रहे थे—इसने पूरे पाँच साल इलाके के अनेक गाँवों में आतंक मचाये रखा था.
(R K Narayan Story)
हम भी एकटक इस दृश्य को देखते जुलूस के साथ चल रहे थे तभी उस महाबातूनी ने पीछे से हमारा कंधा थपथपा कर कहा, ‘बहुत चकित हो रहे हो! अच्छा, जब यह लाश देखते-देखते थक जाओ तो मेरे पास चले आना और मेरी बात सुनना…”
हम सचमुच काफी थक चुके थे, इसलिए वहीं रुक गये और भीड़ जैसे ही आगे बढ़ गई, उसके साथ हो लिये. वह हमें एक ऊँची टेकरी पर ले गया और एक नीम के पेड़ के नीचे बैठकर अपनी कहानी सुनाने लगा :
मैं एक दफ़ा कोप्पल में ठहरा था जो मेम्पी क्षेत्र में बहुत बिखरा हुआ बसा छोटा-सा गाँव है. तुम सोचोगे कि दुनिया के इस बिलकुल उजाड़ कोने में मैं क्या कर रहा था. बताता हूँ. तुम्हें याद होगा कि मैंने अक्सर तुम्हें एक फर्टिलाइजर कंपनी के एजेंट के रूप में काम करने की बात बताई है. महीने के पच्चीस दिन मुझे गाँव-गाँव जाकर लोगों को इस कंपनी के माल का प्रचार करना पड़ता था, उसके लाभ समझाने पड़ते थे. उसी के एक दौरे में मैं कोप्पल गया था. इसे वास्तव में गाँव ही नहीं कहा जा सकता-चालीस घर, दो ऊँची नीची सड़कें और चारों तरफ जंगल-ही-जंगल. ऐसी बेकार-सी जगह भी कंपनी किसी को क्यों भेजती थी, यह मेरी आज तक समझ में नहीं आया…. दरअसल, अगर रेल की लाइन पर यह स्टेशन न होता, तो इसका उन्हें पता ही न चलता. यहाँ से एक ब्रांच लाइन ही गुजरती थी और एकाध गाड़ी ही रुकती थी, बाकी सब धड़ाधड़ आगे निकल जाती थीं. इसकी सभ्यता का केन्द्र स्टेशन ही था, नीले कपड़ों में एक कुली और एक समझदार-सा बूढ़ा स्टेशन मास्टर, हरी पगड़ी पहने, लाल और हरे दोनों झंडे हमेशा हाथों में थामे रहते थे.
तुम्हें स्टेशन के बारे में भी बता दूँ. इसकी कोई इमारत नहीं थी, रेलगाड़ी का ही डिब्बा था जो अपनी सेवा समाप्त करके यहाँ खड़ा कर दिया गया था. जिसके पहिये भी नदारद थे. इसकी एक खिड़की से स्टेशन मास्टर टिकट बाँट देता था और जंगल में होकर गुजरते उन एकाध यात्रियों से बातचीत करता था. जो भटकते हुए यहाँ आ जाते थे. दरवाजे पर साँप की तरह एक लता लंबाई तक लिपटी हुई थी. इस तरह रेल के एक भूतपूर्व डिब्बे का उपयोग कर लिया गया था.
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नवम्बर की एक सुबह एक रेलगाड़ी मुझे इस स्टेशन पर उतारकर छुक-छुक करती आगे जंगल में चली गई. बगलों में दोनों झंडियाँ दबाये स्टेशन मास्टर मुझे देखकर बहुत खुश हुआ. यहाँ इतने कम मुसाफिर उतरते थे कि कोई नया चेहरा देखते ही उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था. वह खुद ही मेरा मेजबान बन गया और भूतपूर्व रेल के डिब्बे में ले जाकर मुझे एक स्टूल पर आराम से बिठा दिया. बोला, ‘मैं एक मिनट में सब काम निपटा देता हूँ….” फिर कुछ भूरे से कागज उठाये, उन पर कुछ लिखा और वापस रख दिये. उठकर डिब्बे में ताला लगाया और मुझे घर ले चला.
घर बहुत छोटी पत्थर की इमारत थी-सिर्फ एक कमरा, किचेन और आँगन. एक अदद बीवी और सात बच्चे. उसने मुझे खाना खिलाया. मैंने कपड़े बदले. फिर सहायक के साथ मुझे गाँव देखने भेज दिया, जो उसके घर से करीब एक मील दूर था. मैंने चालीस घरों के लोग इकट्ठे किये और मुखिया के घर के सामने उन्हें बिठाकर भाषण दिया. उन्होंने बड़े धीरज से मेरी बातें सुनीं, मेरे दिये फर्टिलाइजर के सैंपिल लिये और इनका उपयोग किस तरह किया जाना है, यह समझने की कोशिश की. फिर मेरी बताई बातों पर टीका-टिप्पणी करते वे अपने काम-धंधे पर चले गये.
इसके बाद झुटपुटा होते मैं अपना सामान समेटकर वापस चला, तब मेरे कान बज रहे थे और गला सूख गया था. इस वक्त दो गाड़ियाँ गुजरनी थीं लेकिन यहाँ रुकने वाली गाड़ी सवेरे साढ़े पाँच बजे आनी थी. स्टेशन मास्टर के घर खाना खाने के बाद मैंने सोचा कि अब मुझे चलना चाहिए. एक कमरे में नौ लोगों के सोने के बाद मेरे लिए वहाँ जगह न होती. मैंने कहा, ‘मैं प्लेटफार्म पर सो जाऊँगा…” तो स्टेशन मास्टर ने कहा, ‘नहीं, हरगिज नहीं. यह बड़ी खतरनाक जगह है. आपके शहर की तरह नहीं, यहाँ बाघ भरे पड़े हैं. ” उसने कहा, ‘मैं स्टेशन के भीतर सोऊँ.’
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यह भी बिलकुल भरा था-एक बड़ी मेज, कुर्सी और स्टूल ने सारी जगह घेर रखी थी. मैंने यह सब एक तरफ सरकाए और एक कोने में लेटने भर की जगह बना ली. यहाँ मुझे आठ घंटे काटने थे.
मैं लेट गया और सुनसान जंगल की तरह-तरह की आवाजें सुनने लगा पेड़पौधों के बीच से गुजरती तेज हवा की आवाजें, कीड़े-मकोड़ों की खू-सँ, तार के खंभों से निकलती, खड़-खड़ यूँ-यूँ.. परेशान होकर मैं उठा, दरवाजा बन्द किया और फिर लेट गया. इससे भीतर सख्त गर्मी हो गई और सो पाना मुश्किल हो गया. फिर उठा, दरवाजा जरा-सा खोला कि हवा आये, कुर्सी उससे टिका दी और जाकर बिस्तर पर लेट गया.
मैं सो गया और सपना देखने लगा. मैंने देखा कि एक पहाड़ी के किनारे खड़ा हूँ और नीचे घाटी में देख रहा हूँ हलकी पीली चाँदनी बिखरी पड़ी है. दूर एक पेड़ के पास बिल्ली-जैसे कई प्राणी ढाल पर चल रहे हैं, उनकी छायाएँ जमीन पर पड़ रही हैं, शान से धीरे-धीरे आगे बढ़ते वे बड़े अच्छे लग रहे हैं. मैं इस दृश्य को देखता इतना मगन हो गया कि यह नहीं देख पाया कि वे अब नीचे उतरने की जगह ऊपर चढ़ने लगे हैं और मेरे बहुत पास आ पहुँचे हैं. मैं मुड़ता हूँ तो क्या देखता हूँ कि अब वे बिल्ली की तरह छोटे नहीं रह गये हैं बल्कि बड़े होकर भूरे बाघ बन गये हैं. यह देख कर मैं डर जाता हूँ और दौड़कर स्टेशन के कमरे में पहुँच जाता हूँ.
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इस जगह आकर सपना खत्म हो गया, क्योंकि दरवाजे से अड़ी कुर्सी लुढ़क कर मेरे ऊपर आ गिरती है. मैं आँखें खोलता हूँ तो देखता हूँ कि एक बाघ दरवाजे से भीतर आने की कोशिश कर रहा है.
मेरी चेतना के लिए यह एक ऐसा गडु-मडु क्षण था, जब मैं समझ नहीं पा रहा था कि मैं अभी सपना ही देख रहा हूँ या जाग गया हूँ. पहले मुझे लगा कि स्टेशन मास्टर ही भीतर आ रहे हैं, लेकिन सपने ने दिमाग को तैयार कर दिया था मैंने तारों भरे आकाश में स्पष्ट देखा कि पूँछ हिलाता, हुंकार भरता और बिजली जैसी चमकती आँखों से देखता बाघ ही भीतर घुस रहा है.
मैं समझ गया कि फर्टिलाइजर कंपनी को अगले दिन से मेरे प्रचार-भाषणों से वंचित हो जाना पड़ेगा. लेकिन बाघ खुद कुसों की खड़खड़ाहट से कुछ डर सा गया था और वहीं आकर रुक गया था. वह मुझे कोने में चुप खड़ा देख रहा था और शायद अपने आप से कह रहा था-‘मेरा डिनर तो सामने खड़ा है लेकिन पहले मैं जान लें कि यह शोर किस चीज का है.’
कहा जाता है कि जंगली जानवर आदमी से तो नहीं डरते लेकिन मेज-कुर्सी जैसे फनीचर से डरते हैं. मैंने देखा है कि सर्कसों में मैनेजर लोग जानवरों के सामने एक से ज्यादा कुसों नहीं रखते. ईश्वर की कृपा है कि ऐसी बातें, जब उनकी जरूरत हो तो तुरंत याद आने लगती हैं और हमें बचाने में मदद करती हैं. मैंने देखा कि बाघ मुझे और कुर्सी दोनों को देख रहा है, तो लपककर मैंने मेज और स्टूल को भी हिम्मत करके अपनी तरफ जोर लगाकर खींच लिया. मैं कोने की तरफ पीठ किये बैठा था, और बड़ी-सी मेज दोनों दीवालों से सटी मेरी रक्षा में आकर खड़ी हो गई थी. मैं इसके अंदर घुस गया था और स्टूल को भी अपने सामने अड़ाकर खड़ा कर लिया था. मेज हटाते समय बहुत सी चीजें इसके ऊपर आ गिरी थीं-टेबिल लैंप, आलपिनें और एक बड़ा-सा चाकू.
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इस रक्षा-गृह से मैंने बाघ पर एक नजर डाली-वह मुझे बड़े ध्यान से देख रहा था. शायद सोच रहा हो कि मेरा डिनर मेरी पकड़ से कितना बाहर पहुँच गया है. अब उसने सँभलकर पहले एक, फिर दो कदम आगे बढ़ाये और गले से गुर्राने की आवाज निकाली, जिससे पूरा स्टेशन हिल उठा.
मेरा अंत समीप आ गया था. मैं उस स्त्री पर दया करने लगा जिसके भाग्य में मेरी पत्नी बनना लिखा था.
फिर मैंने कुर्सी उठाई और ढाल की तरह सामने खड़े बाघ के सामने हिलाईवह रुका और आगे बढ़ने की जगह एक-दो कदम पीछे हट गया. इसके बाद फिर हम दोनों कुछ देर तक एक-दूसरे को देखते रहे और दाँव-पेंच पर विचार करते रहे. मैं साँस रोककर इन्तजार कर रहा था. बाघ मुझे घूरता हुआ अपनी पूँछ तेजी से चारों ओर घुमा रहा था, जो दीवार से टकराती तो ‘थड’ की आवाज होती. फिर वह मेरी तरफ से बिना आँखे हटाये नीचे झुक आया और सामने के पंजों से जमीन पर खरोंचे मारने लगा. मुझे लगा, यह हमला करने के लिए पंजे तराश रहा है. यह छोटा-सा डिब्बा पूरा जू बन गया था. मुझे झुरझुरी आने लगी. वह सामने के पंजों से जमीन खरोंचे जा रहा था, जिसकी आवाज से मुझे दहशत होने लगी थी.
फिर एकाएक वह उछला और पूरे जोर से सारे फर्नीचर पर एक धक्का मारा. मुझे लगा कि मैं इसके बीच पिस जाऊँगा, लेकिन भला हो रेलवे वालों का, जो सबसे ज्यादा मजबूत लकड़ी से अपने काम की चीजें बनाते हैं. इससे मेरी रक्षा हुई. बाघ मेज को तोड़ नहीं सका, उस पर बैठकर रह गया. उसके पंजे ही सामने थे. उसने इन्हें मारने की कोशिश की, लेकिन कुर्सी और स्टूल से मैंने उन्हें रोक लिया.
मेज बाघ के वजन से दब रही थी और मैं यह दबाव महसूस कर रहा था, उसकी साँस भी मुझ तक पहुँच रही थी. वह बार-बार अपने पंजे मेरी तरफ फेंक रहा था. इससे मेरे बदन के कुछ टुकड़े तो निकालकर वह खा ही सकता था, लेकिन मैं एकदम बीच में सिकुड़कर जम गया था, उसके पंजों की पहुँच से बस बाल बराबर दूर…
वह तरह-तरह की खतरनाक आवाजें कर रहा था और मेरे सिर के ऊपर जोरजोर से धमक रहा था. अगर वह नीचे उतर आता तो कुर्सी को एक किनारे ढकेल सकता था लेकिन कुर्सी की बनावट उसे परेशान करती रही. वह इसे खतरा समझकर इससे दूर हो जाना चाहता था.
(R K Narayan Story)
मैं एक जगह आकर रुक गया था. फिर वह मेज से नीचे कूदा और उसके चारों तरफ यह देखने के लिए एक चक्कर लगाया कि कहीं जरा-सी सेंध मिल जाये. मैंने कई दफा कुर्सी उसके सामने घुमाई, लेकिन उसने इसे छूकर देखा तो समझ गया कि यह कोई खतरनाक चीज नहीं है.
यह समझकर उसने इसे सामने से हटाने की कोशिश की. लेकिन मैं ज्यादा चालाक निकला, मैंने कुर्सी अपनी तरफ खींचकर उसे मेज के कोने से फैंसाकर वहीं जमा दिया. अब एक तरफ कुर्सी और दूसरी तरफ स्टूल मेरी रक्षा में तैनात थे.
बाघ अब मेरे सामने घुटनों पर आ बैठा और सोचने लगा कि कैसे क्या करूं? लेकिन मेज, कुर्सी और स्टूल सब मिलकर मेरी अच्छी हिफ़ाजत कर रहे थे और मैं इनके बीच आराम से बैठा था. उसने अब जरा ध्यान से इस चक्रव्यूह का निरीक्षण किया और देखा कि कहाँ से पंजा भीतर डालकर हमला किया जा सकता है.
उसे पंजे लायक जगह आसानी से मिल गई और पंजा मेरे सामने आ पहुंचा. इसके नाखून मेरी आँखों के सामने हिलने लगे. अब मुझे भी गुस्सा आ गया. मैं उसी को जैसे वह चाहे, सब कुछ क्यों करने दे रहा हूँ? मैं क्रोध से भभकने लगा. इधर-उधर देखा तो पाया कि स्टेशन मास्टर का लंबा चाकू भी सामने पड़ा है.
मैंने चाकू उठाया और जोर से पंजे में घुसा दिया. दर्द से बाघ ने चीख मारी और पंजा वापस खींच लिया. फिर वह उतरा और गुस्से में भरकर कमरे में उखाड़पछाड़ करने लगा. लेकिन इसमें उसे सफलता नहीं मिली. हारकर फिर उसने पंजा भीतर डाल दिया.
अब मुझ में कुछ हिम्मत आ गई थी और इस बार फिर चाकू का उपयोग करके मैंने पंजे का एक हिस्सा काट लेने की कोशिश की. नाखून सहित पंजे का एक हिस्सा सचमुच नीचे आ गिरा. फिर क्या था, मेरे और उसके बीच की लड़ाई चलनी शुरू हो गई. वह बार-बार पंजे से वार करता और हर बार मैं कुछ-न-कुछ काट लेता. मुझे यह बताते अच्छा लग रहा है कि थोड़ी देर में मैंने उसके तीन पंजे काट लिये. अब लड़ाई खत्म हो गई. मैं भी उसी की तरह खूखार हो उठा था. अब ये पंजे, सोने में मढ़े मेरी तीनों बेटियों की गर्दन में हार बनकर लटक रहे हैं. कभी मेरी तरफ आओ तो देख भी लेना.
(R K Narayan Story)
उसी क्षण बाघ मुझे छोड़कर बाहर निकल रहा था, और इन्हें देखकर वह इनकी ओर झपटा. दोनों ने सरपट भागना शुरू किया. स्टेशन मास्टर ने घर पहुँच कर ही दम लिया और भीतर से दरवाजा बंद कर लिया. सहायक एक पेड़ पर चढ़ गया. बाघ उसे नीचे खड़ा घूरता रहा. दोनों तब तक एक-दूसरे को देखते रहे जब तक एक मालगाड़ी हूँ-हूँ करती सीटी देती और आग उगलती स्टेशन पर आकर खड़ी न हो गई. बाघ ने खतरा भाँप कर जंगल की तरफ रुख किया और तेजी से भाग निकला.
इसके बाद बाघ इस दिशा में कभी नहीं आया, यद्यपि दूसरे इलाकों में वह अपनी हरकतें करता रहा. मेरी फिर उससे मुलाकात नहीं हुई-अभी आधे घंटे पहले जब वह बैलगाड़ी की सवारी कर रहा था, मैंने उसे फौरन पहचान लियादाहिने पंजे को देखकर, जिसके तीन हिस्से और नाखून गायब हैं. तुम लोग उन वीर-बहादुरों से बहुत प्रभावित दिखाई दे रहे थे जिन्होंने बंदूकों के बल पर उसे जीता है, इसलिए मैंने सोचा कि मैं तुम्हें एक ऐसे मामूली आदमी की कहानी सुना हूँ जिसने अकेले और खाली हाथ उसका सामना किया और उसे परास्त किया.
महाबातूनी की कहानी खत्म हुई तो हम गाँव में फिर वहीं पहुँच गये, जहाँ बाघ की लाश इनाम की ट्राफी की तरह रखी गई थी, और उससे छुटकारा दिलाने वालों को हीरो की तरह सम्मान दिया तथा खिलाया-पिलाया जा रहा था. वे शहर से आ रही लारी का इन्तजार कर रहे थे. हम भीड़ में घुसकर बाघ की लाश के पास पहुंचे और उसका दायाँ पंजा देखने की बात कही. गैस का लैंप पास लाया गया और हमने पंजा देखा-सचमुच उसकी तीन अंगुलियाँ कटी हुई थीं और इस जगह एक काला दाग था. इन्हें काटने वाले ने चाकू जरूर हथोड़े की तरह चलाया होगा.
पूछने पर शिकारियों ने कहा, ‘पता नहीं यह कैसे होता है. हमने कई बाघों में यह बात देखी है. सुना है कि कुछ आदिम जातियाँ जब शिशु बाघों को पकड़ती हैं तो ताबीज के तौर पर उनके अंगूठे काट कर रख लेती हैं. शिशु-बाघों को मारना अच्छा नहीं समझा जाता.’
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आर. के. नारायण
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