9 अगस्त 1942 को सूरज की पहली किरण से पहले ही आपरेशन ‘जीरो आवर’ के तहत देश भर में कांग्रेस के सभी बड़े नेता गिरफ्तार किये जा चुके थे. अंग्रेजों की अचानक हुई इस कार्रवाई के कारण पूरे भारत छोड़ो आंदोलन का सारा जिम्मा भारत के युवा कन्धों पर आ चुका था जिसे उसने पूरी जिम्मेदारी के साथ निभाया. उत्तराखंड भी भारत छोड़ो आंदोलन से अछूता नहीं रहा था. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान पूरे भारत में 800 से 900 भारतीय शहीद हुए जिसमें तत्कालीन कुमाऊं के अल्मोड़ा जिले से ही लगभग 16-17 शहीद थे.
ब्रिटिश भारत में टिहरी रियासत को छोड़ पूरे हिस्से को कुमाऊं ही कहा जाता था. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इस क्षेत्र में क्रांति की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि शहरी क्षेत्र की अपेक्षा क्रांति का सर्वाधिक विस्तार ग्रामीण क्षेत्र में हुआ था. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान इस क्षेत्र की सबसे महत्तवपूर्ण घटनाएं सालम क्रांति, सल्ट क्रांति, देघाट गोली काण्ड और बोरारौ में स्वायत्तशासी सरकार की स्थापना थे.
9 अगस्त 1942 को अल्मोड़ा, नैनीताल, गढ़वाल तथा देहरादून जिलों में जगह-जगह जुलूस निकले और हड़तालें हुई. अल्मोड़ा में 9 अगस्त को एक विशाल जुलूस निकाला गया और 10 अगस्त को नगर भर में हड़ताल रही. इसी दिन नैनीताल, हल्द्वानी पिथौरागढ़, पौड़ी, देहरादून और कोटद्वार में भी सभाएं हुईं और गिरफ्तारियां प्रारंभ हुईं. कमीश्नर ऐक्टन, डिप्टी कमीश्नर, के.एस.मिश्र तथा इलाका हाकिम मेहरबान सिंह अल्मोड़ा में दमन के लिये पहुंचे. गवरमेन्ट कॉलेज के छात्रों की सेना और पुलिस से खुलकर मुठभेड़ हुई. पुलिस ने उत्तेजित समूह को नियंत्रित करने के नाम पर लाठियां चलाना प्रारंभ किया. जवाब में छात्रों ने पत्थरों से प्रहार किया. जिससे कमिश्नर ऐक्टन को सिर पर चोट आई. अल्मोड़ा शहर पर 6000 हजार रुपये का सामूहिक जुर्माना किया गया.
ब्रिटिश सत्ता के विरोध की पहली घटना अल्मोड़ा जिले के देघाट नामक स्थान पर हुई. 19 अगस्त 1942 को चौकोट की तीन पट्टियों की एक वृहद सभा का देघाट में आयोजित किया जाना तय हुआ. इस क्षेत्र में ज्योति राम कांडपाल,भैरव दत्त जोशी, मदन मोहन उपाध्याय, इश्वरी दत्त फुलोरिया आदि आंदोलनकारी सक्रिय थे. 19 अगस्त के दिन विनोद (विनौला) नदी के समीप देवी के मंदिर में एक वृहद सभा हुई जिसे पुलिस ने चारों ओर से घेर लिया. शांति पूर्वक चल रही जनसभा के भीतर जाने की हिम्मत पुलिस की न हो सकी लेकिन पुलिस ने सभा से अकेले बाहर निकले एक सत्याग्रही खुशाल सिंह मनराल को हिरासत में ले लिया. जब सत्याग्रहियों को यह बात पता चली तो भीड़ ने घेर कर खुशाल सिंह को छुड़ाने की मांग की. अनियंत्रित भीड़ को काबू में करने के लिये पुलिस ने गोली चला दी. इतिहास में यही घटना देघाट गोली कांड के नाम से जानी जाती है. इस गोली कांड में हरिकृष्ण उप्रेती, हीरामणि गडोला मौके पर ही शहीद हुए. रामदत्त पांडे और बदरी दत्त कांडपाल को भी इस दौरान गोली लगी. रातों-रात में ही पुलिस शहीदों के शव को देघाट से उदेपुर ले गयी और अगले दिन रानीखेत. अंतिम संस्कार सिनौला में किया गया. इसके 8 दिनों बाद पूरे क्षेत्र में अंग्रेजों द्वारा विद्रोह के दमन के नाम पर सार्वजनिक लूट-पाट की गई. उदयपुर, क्यरस्यारी, सिरमोली, गोलना और महरौली गांवों में सामूहिक अर्थदंड लगाया गया.
पनार नदी के दोनों ओर का हिस्सा सालम पट्टी कहलाता है. सालम क्षेत्र की जनता रामसिंह धौनी के समय से ही जागृत थी. 1930 के बाद दुर्गादत्त पांडे, प्रतापसिंह बोरा, रामसिंह ‘आजाद’, रेवाधर पांडे आदि ने बढाया. तिलक दिवस के दिन राष्ट्रीय झंडे का अपमान इस क्षेत्र में क्रांति का प्रमुख कारण माना जाता है. देवीधुरा के मेले में आयोजित सभा में सालम क्षेत्र को स्वाधीन घोषित कर दिया गया. सालम क्रांति से संबंधित प्रमुख व्यक्तियों में प्रताप सिंह बोरा, शेरसिंह, रामसिंह ‘आजाद’, रेवाधर पांडे, लछमसिंह आदि हैं. गांधीजी के आदेशानुसार जब रामसिंह ‘आजाद’ ने फरारी त्याग कर गिरफ्तारी दी तो उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई. उनके पक्ष में भूतपूर्व उपराष्ट्रपति गोपालस्वरुप पाठक और इंद्र सिंह नयाल ने अपील की. इसके बाद रामसिंह ‘आजाद’ को 38 वर्ष की सजा और पांच हजार का जुर्माना तय किया गया. रेवाधर पांडे भूमिगत जीवन से 1947 में प्रकट हुए.
अपनी राजनीतिक सक्रियता के कारण सल्ट क्षेत्र को 1930 में ही ‘कुमाऊँ का बारदोली’ कहा जाने लगा था. सल्ट का खुमाड़ गांव तो राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन का तीर्थ माना जाता है. कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं की गिरफ्तारी के विरोध में यहा भी सभाएं हुई और सल्ट क्षेत्र को आजाद घोषित कर दिया गया. पूरे क्षेत्र में जहां सरकारी कर्मचारी मिलते उनसे ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के नारे लगवाये जाते और उन्हें खादी के कपड़े पहना कर ही मुक्त किया जाता.
सल्ट के खुमाड़ गांव में 5 सितम्बर को एक जनसभा आयोजित तय की गई. सभी अंदोलनकारी नेता जनता के जुलूसों के साथ खुमाड़ पहुंचे. पाली परगने का तत्कालीन परगनाधिकारी तब जॉनसन था. जॉनसन एक बार पहले भी सल्ट की जनता से पत्थरों की मार खा चुका था. इस बार जॉनसन पूरी तैयारी के साथ आया. उसने खुमाड़ में भीड़ को हटने का आदेश दिया लेकिन भीड़ जस की तस खड़ी रही. तभी भीड़ से एक युवक नेनुआं आया और जॉनसन का गला पकड़ उसे धरती से 6 इंच की उचाई पर उठा दिया. अग्रेजी सेना जब जॉनसन को बचाने के प्रयास में आगे बड़ी तो नैनुआं ने जॉनसन को पांच फीट उंचा उछालता हुआ फेंक दिया जॉनसन जमीन पर गिरने के बाद आठ सिपाहियों समेत रगड़ता हुआ छः-आठ फीट दूर गिर पड़ा.
सैनिक संभल कर पुनः नैनुआं की ओर मुड़े ही थे कि नैनुआं भीड़ में गायब हो गया. इसके बाद डर से जॉनसन तो लौटने को तैयार था लेकिन वहां उपस्थित पटवारी और पेशकार ने जॉनसन के आत्मसम्मान पर ऐसी गहरी चोट की कि जॉनसन और पुलिस ने भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां चलाना प्रारंभ कर दिया. इसके बाद जॉनसन सारे मार्ग पर भीषण दमन और आतंक फैलाता हुआ चला गया.
बोरारौ क्षेत्र में चनौदा गांधी आश्रम की स्थापना 1937 में शांतिलाल त्रिवेदी द्वारा की गई. यह इस क्षेत्र में राष्ट्रीय चेतना का केंद्र था. अल्मोडा के डिप्टी कमिश्नर ने कुमाऊं कमिश्नर को लिखा था कि जब तक यह आश्रम चालू है इस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन का चलना मुश्किल है. इसे राजद्रोह फैलाने वाला आश्रम कहा जाने लगा. 21 अगस्त 1942 को रानीखेत से गोरी फौज ने आश्रम का डेरा डाल दिया. आश्रमवासी अहिंसक और शांत बने रहे. सरकार ने विद्याधर वैष्ण्व, कुशलसिह खर्कवाल सहित सात कार्यकर्ता आश्रम से गिरफ्तार किये. भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बोरारौ घाटी क्षेत्र में स्वायत्तशासी सरकार के गठन का प्रयास किया गया. 12 अगस्त के दिन पूरे क्षेत्र में हड़ताल का आयोजन किया गया. यहां आयोजित सभाओं में प्रयाग दत्त जोशी की सलाह पर तय किया गया कि नवंबर-दिसम्बर तक एक समानांतर सरकार गठित कर दी जायेगी. 15 अगस्त के दिन प्रयाग दत्त जोशी को गिरफ्तार किया गया और इसके बाद क्षेत्र में क्रान्ति के दमन हेतु तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर एक्टन समेत ब्रिटिश सेना ने भीषण दमन चक्र चलाना प्रारंभ कर दिया. सितम्बर के माह में आश्रम को सील कर दिया गया और आश्रम पर 35 हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया. गिरफ्तार सत्याग्रहियों को अल्मोड़ा जेल ले जाते समय ब्रिटिश सेना को स्थान-स्थान पर विरोध का सामना करना पड़ा.
15 अगस्त 1942 को लेजम (थल) के हरिदत्त पंत को कनखल में तिरंगा फहराते हुए भाषण देते हुए घायल किया गया. 18 अगस्त 1942 को मुनस्यारी में आंदोलन की तैयारी हुई. जन्माष्टमी को मिलम क्षेत्र में आंदोलन हुआ. 31 अगस्त को टोटासिलंग के सरकारी लीसा डिपो में भयंकर आग लग गई. इसका आरोप बोरारौ आश्रम पर लगा.
भारत छोड़ो आंदोलन की एक महत्वपूर्ण विशेषता भूमिगत आंदोलनकारियों की भूमिका थी. उत्तराखंड क्षेत्र से प्रमुख भूमिगत आंदोलकारियों में मदन मोहन उपाध्याय, मथुरा दत्त भट्ट, तारादत्त भारद्वाज आदि थे. अधिकांश भूमिगत सत्याग्रहियों की भूमि नीलाम हो गयी और उनके गांव व परिवार वालों को भीषण यातनाएंड दी गईं. बहुत से भूमिगत आंदोलनकारियों ने उग्रवादी कार्यक्रम जैसे तार काटना, डाक बंगले या सरकारी सम्पत्ति, लीसा,लकडी डीपो जलाना, डाकखानों, पुलों, मार्गों को क्षति पहुंचाना, में भाग लिया. इनमे शामिल आंदोलनकारियो में श्यामलाल वर्मा, दीवान सिन्ह, शंकरदत्त त्रिपाठी, शिवसिह लक्ष्मीदत्त पांडे, चंद्रदत्त तिवारी तथा अम्बादत्त बेलवाल प्रमुख थे. गढ़वाल जिले में इस कार्य में कप्तान नौटियाल, छवाण सिह नेगी, हरिराम मिश्र आदि प्रमुख थे. 26 जनवरी 1943 को दिल्ली में वायसराय निवास के सामने वर्तमान विजय चौक पर जिन सत्याग्रहियो ने तिरंगा फहराकर भय और आश्चर्य पैदा कर दिया था उनका नेतृत्व करने वाले फरार कवि श्रीराम शर्मा ‘प्रेम’ थे.
1944 के बाद पूरे देश की तरह राज्य में भी भारत छोड़ो आंदोलन सुस्त होने लगा था. भारत छोड़ोआंदोलन के दौरान उत्तराखंड के आम ग्रामीणों ने न केवल जेलों में बल्कि घरों में भी कुर्बानी दी. परिवारों की तबाही हुई. यह सब सहा गया क्योंकि इसके पीछे आजाद हिंदुस्तान का सपना था.
-काफल ट्री डेस्क
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