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आज सत्तर साल बाद यहां दूर बेंगलुरू में अपने बचपन का पुष्योंण याद आ गया. पौष माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन ही हम पुष्योंण का त्यार मनाते थे. इसे घुघुतिया, मकर संक्रांति या उत्तरायणी भी कहते हैं, यह तो बहुत बाद में पता लगा.
(Pushyon Makar Sankranti Memoir)
तब हम अपने गोरु-बाछों यानी पालतू पशुओं के साथ माल-भाबर के गांव ककोड़ में होते थे. ठंडे पहाड़ का अपना गांव कालाआगर याद आता रहता था जहां से दूर उत्तर में साफ-सुकीला हिमालय दिखाई देता था.
तब हमारा ककोड़ गांव चारों ओर घने जंगलों से घिरा हुआ था. उनमें श्यूं-बाघ भी खूब थे. आए दिन श्यूं-बाघों की डर-भर और उनके हमले की खबरें सुनते रहते थे. घास के बने हमारे बड़े गोठों में नीचे हमारे गोरु-बाछ रहते थे और ऊपर टांड़ में हम सोते थे. रात को घास और लकड़ियों का बना मज़बूत दरवाज़ा कस कर बंद कर दिया जाता था. और, अक्सर ही रात के अंधेरे में गोठों के पास से निकलने वाली पथरीली बटिया (कच्चा रास्ता) पर बाघ रुक कर दहाड़ता ताकि सनद रहे कि वह है वहां. उस रास्ते बाघ-बाघिन गैन के घने जंगल से निकल कर रात में कनौट की गीली गल्ली को पार कर म्यळगैर के जंगल की ओर जाते थे. उसी गल्ली के ऊपर साल, शौंर्यां,बबूल वगैरह के पेड़ों के बीच धार (चोटी) पर हमारी जंगल की पाठशाला थी. कोई इमारत नहीं थी स्कूल की. वह पूरा इलाका श्यूं-बाघों और अन्य वन्यजीवों का ही था जिसमें हम भी रहते थे और रातों को अक्सर बाघ की कलेजा कंपा देने वाली दहाड़ सुना करते थे- “आआआऊऊऊ !”
आज वह सारा इलाका नंधौर वन्यजीव अभयारण्य का हिस्सा बन चुका है. ककोड़ गांव वहीं है. गैन का घनघोर जंगल अब नहीं रहा, वहां भी गांव बन गया है. सीमेंट-कंक्रीट के घर हैं.
(Pushyon Makar Sankranti Memoir)
जब हम जाड़ों में वहां रहते थे, तब एक ही त्योहार आता था- पुष्योंण जिसका हमें इंतज़ार रहता था. वही त्योहार का एक दिन था जब सभी की छुट्टी होती थी- हमारी भी और हमारे पशुओं की भी. परिवार के सभी जन उस दिन घर में होते थे. न ददा गोरु-बाछों को लेकर जंगल चराने जाते थे, न ईजा-भाभी घास काटने या खेतों में काम करने. बाज्यू भी घर में ही रहते. गोरु-बाछों को भी उस दिन ठौर से खोल कर चरने के लिए जंगल में नहीं ले जाया जाता था. उन्हें ठौर पर बंधे-बंधे ही बढ़िया, कोमल औंस का हरा चारा खिलाया जाता था. औंस का चारा सामने की पहाड़ी के पार औंसानी से एक-दो दिन पहले ही काट कर जमा कर लिया जाता था. जानवर उस दिन बैठे-बैठे चारा खाते और दिन भर जुगाली करते रहते.
घर में पहले दिन गुड़ के घोल में गेहूं का आटा गूंध कर खूब घुघुते बनते. त्यार की सुबह हम बच्चे उनकी माला पहन कर कौवों को पकवान देते-
“ले कावा बड़
मैं कें दे ठुल-ठुल गड़ो!”
(ले कौवा बड़ा, मुझे देना बड़ा-बड़ा खेत)
“ले कावा दै
मैं कें दे भलि-भलि ज्वै!”
(ले कौवा दही, मुझे देना भली-भली पत्नी)
पकवान सुबह-सुबह बनते- लगड़ (पूरी),बड़ा, त्वाप (पुए), हलुवा, खीर और बाबर (सिंगल). बाबर भीगे हुए चावलों को पीस कर बनाए जाते थे. उनमें खमीर उठाया जाता. कुछ लोग खमीर के लिए उदाल के पौधे की जड़ भी पीस कर चावल के पेस्ट में मिला लेते थे. इससे बाबर अधिक खस्ता और स्वादिष्ट हो जाते. यह अब तक नहीं समझ सका हूं कि बाबर नाम क्यों रखा होगा जबकि इतिहास के बाबर से इसका कुछ लेना-देना न था, न है.
(Pushyon Makar Sankranti Memoir)
पुष्योंण का हम बच्चों के लिए सबसे बड़ा कुतूहल और रोमांच का काम होता था कान छेदना! हर साल पुष्योंण के त्यार के दिन छोटे बच्चों के कान छेदे जाते थे. किसके कान छेदने हैं, यह ईजा तय करती. ईजा या किसी काकी को कान छेदने का अनुभव होता.
सत्तर साल पहले पुष्योंण के दिन मेरी भी बारी आ गई. मैंने ईजा से पूछा, “ईजा, कान क्यों छेदते हैं?”
उसने कहा, “पोथी, ठुल ह्वै बेर भौत लोग कान में सुनाक त्वाप (मुनड़े) पैरनी. आपन काकाक देखीं त्वैली ?” (बेटा, बड़े होकर कई लोग कान में सोने के त्वाप पहनते हैं. अपने काका के देखे तूने?”
“हां देखे. मैं बड़ा होकर न पहना चाहूं तो”
“तो नहीं पहनेगा. वैसे भी तू तो पोथी इस्कूल में पढ़ेगा. इस्कुल्या जो क्या पहनते हैं त्वोपे?”
“तो फिर क्यों छेद रही हो मेरे कान?”
ईजा बोली, “बहुत सवाल पूछता है तू. बड़ा होकर अगर तू पूछने लगा- सबके कान छेद रखे हैं, मेरे क्यों नहीं छेदे? तो मैं क्या कहूंगी?”
फिर क्या पूछता? ईजा ने खाने को गुड़ दिया और बोली, “ले मुंह में यह गुड़ की डली रख ले. कोई पीड़ा नहीं होगी, खाली चस्स होगी और कान छिद जाएगा.”
चस्स हुई और मेरे दोनों कान छेद दिए गए. सुई पर लगे मोटे धागे को कान की लव के नीचे घुमा कर बांध दिया गया.
(Pushyon Makar Sankranti Memoir)
कुछ समय बाद कान के छेद का घाव भर गया और उसमें पहाड़ से मंगाई काली कन्याठी की पतली,खोखली सींक डाल दी गई. खोखली सींक होने के कारण कान की लव में छेद बना रहा. कान सूजने या पकने पर सुबह की ओस लगाने की हिदायत दी जाती थी.
घाव सूख जाने के बाद काली कन्याठी की सींक की जगह चांदी की बालियां पहना दी गईं.
और काली कन्याठी? यह ठंडे पहाड़ में रास्तों, खेतों के खड़े भीड़ों (दीवारों) पर उगने वाला छोटा-सा फर्न था जिसकी उल्टी तरफ चांदी-सी चमकीली होती थी. दूर ससुराल से तीन-चार साल बाद अकेले या कभी भिना (जीजा) के साथ सुबह मुंह अंधेरे चल कर जंगलों, गाड़-गधेरों (नदी-नालों), पहाड़ों को पार कर देर शाम मायके पहुंचने वाली मेरी दीदी काली कन्याठी की पत्ती मेरी उल्टी हथेली में रख कर अपनी हथेली से दबाती. और, फर्न की उस पत्ती की सफेद छाप मेरी हथेली के ऊपर छप जाती !
फिर पत्ती का क्या होता, मुझे पता नहीं होता. यह तो मुझे तीन-साल बाद ही पता लगता जब दीदी दुबारा मायके आकर अपनी मखमली दगेली (वास्कट) की जेब से निकाल कर मुझे उस पत्ती के सूखे टुकड़े दिखा कर कहती,” भैया, यो देख, मैंने इस पात की छाप तेरी हथेली पर लगाई थी. याद है तुझे? अपने भया की हथेली पर छाप छोड़ने वाली वह पत्ती मैंने खल्दी (जेब) में संभाल कर रखी है, यह देख.” मैं दीदी का मुंह ही देखता रह जाता था.
(Pushyon Makar Sankranti Memoir)
लेकिन, बाज्यू ने जिस दिन पहाड़ के झोपड़ी वाले स्कूल में भर्ती कराया, उस दिन स्कूल के गेट पर ही मेरे कान की चांदी की बालियां, गले की सूती और हाथ की धागुलियां यह कह कर उतार ली थीं कि “बेटा, अब तू इस्कूल में पढ़ेगा, इस्कुल्या बनेगा, अब इनका क्या काम.”
हर साल त्योहार आते हैं, पुष्योंण का त्यार भी आता है लेकिन वे दिन, वे त्यार कुछ और ही थे. तब ईजा थी, दीदी थी. बाज्यू, ददा-भौजी थे. हमारे पंद्रह-बीस गोरु-बाछ थे.
त्योहार आते हैं और उदास कर जाते हैं.
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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