मोहिनी मोहक है. मोहिनी मनभावन है. मोहिनी आज भैया के पास खड़ी है. मोहिनी स्थिर है. मोहिनी स्वाधार है. उसका एक पैर पंक मे उगे छोटे से टापू पर स्थापित है, और दूसरा पैर सुदूर स्थित भैया के ठेले के चक्रों को जोड़ने वाले लौह दण्ड पर टिका है. मोहिनी की जीन्स विस्तारवान है.
(Priy Abhishek Satire)
मोहिनी चंचला है. मोहिनी चपला है. परंतु मोहिनी सौम्या भी है. अर्थात मोहिनी शरीर से धन्नो और बातों से बसंती है.
वह धन्नो की तरह शरीर को चंचल करते हुऐ बसंती सी वाणी में कहती है- “भैया!कल क्यों नहीं आये थे?”
भैया वीतरागी है. विरलभाषी है. भैया कहता है- “सादी में गया था.”
(Priy Abhishek Satire)
मोहिनी नेत्रों और जिव्हा से लालायित है. वह अपने नेत्रों को भैया जी के हाथों पर केंद्रित कर त्राटक कर रही है. भैया अपने कार्य में एकाग्रचित्त है. समाधिस्थ है.
मोहिनी परीक्षक है. मोहिनी प्रमाणक है. वह कहती है- “भैया, फूले-फूले खिलाइये, पिचके वाले नहीं गिनूँगी.”
भैया मौन है.
मोहिनी अपने दुग्धधवल हाथों से अपना भाग माँगती मक्षिकाओं को उड़ाती रहती है. मोहिनी समदर्शी है. समतावादी है. वह कहती है- “भैया एक आटे का,एक सूजी का- ऐसे करके खिलाओ!”
भैया भी समदर्शी है. समतावादी है. वह एक ही चमचे से पानी, छोले, खट्टी-मीठी चटनी, ठेले की कील और निकटस्थ श्वान की गर्मी निकालता है.
(Priy Abhishek Satire)
मोहिनी सजग है. मोहिनी सतर्क है. वह कहती है- “भैया!आपने एक बताशा कम दिया है.”
भैया निर्मोही है. अपरिग्रही है. वह एक और बताशा दे देता है.
फिर वह मीनाक्षी अपने चंचल नैनों से कटाक्ष करती हुई कहती है- “और मीठी चटनी वाला आखिरी?”
भैया निर्लिप्त है. वह एक बताशा मीठी चटनी का भी दे देता है.
मोहिनी शुचिता है. मोहिनी शुचिकर्मा है. वह पुनः धन्नो की तरह हिलती हुई बसंती सी वाणी में कहती है- “भैया, भिसलेरी नहीं है? बोतल, बोतल, पानी की बोतssल?”
भैया अवधूत है. वह कुछ क्षण ध्यानस्थ होता है फिर उस निकटस्थ श्वान के बगल में रखे प्लास्टिक के कनस्तर की ओर संकेत कर देता है.
मोहिनी भी कम अवधूतिका नहीं है. वह निर्भीकता से हट!हट!हुश! कर के श्वान को शीतल पंक से उठने पर विवश कर देती है. उसके बाद प्लास्टिक के कनस्तर से स्टील के मग्गे में जल निकाल कर गटागट जलपान करती है. फिर अपने दुग्धधवल हाथों को झटकती है.
(Priy Abhishek Satire)
उसके हाथों से झटके पानी का कुछ भाग पुनः गोलगप्पे के पानी से एकाकार हो कर अपना वर्षाचक्र पूर्ण करता है.
फिर वह तन्वंगी किसी मृगी की तरह उछल कर पंक के उस पार पहुँच जाती है. जहाँ उसकी आर्यदेश से आयातित, आर्यश्रेष्ठ मर्सडीज़ खड़ी है. मोहिनी उसमें बैठ कर फुर्र हो जाती है.
भैया ज़ोर से छींकता है. शायद ज़ुखाम है उसे…
(Priy Abhishek Satire)
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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2 Comments
Vandana Bahuguna
Bahut hi khoob!
विवेक भावसार
बहुत सुन्दर व्यंग्य , भाषा सौन्दर्य अदभुत है…. ! जय हो !!