मध्यकालीन उत्तराखण्ड में थोकदार का पद बहुत महत्वपूर्ण हुआ करता था. थोकदार का काम भी बूड़ों और सयानों जैसा ही था. लेकिन इनके अधिकार बूड़ों और सयानों से कुछ कम हुआ करते थे. राज्य के प्रबंध में इनकी सम्मति नहीं ली जाती थी और न ही इन्हें बूड़ों और सयानों की तरह नक्कारे व निशान रखने का ही अधिकार था. कुमाऊँ की चंदवंशीय प्रशासन व्यवस्था में बूड़े व सयाने (Post of Thokdar in Medieval Uttarakhand)
काली कुमाऊं और पाली परगने को छोड़कर अन्य स्थानों पर थोकदार की नियुक्ति राजा की ओर से ही हुआ करती थी. कभी कमीण और सयाना दोनों भी थोकदार कहे जाते थे, लेकिन बाद में थोकदार शब्द के अलावा कोई अन्य प्रशासनिक पड़ का बोधक नहीं रहा. धीरे-धीरे कमीण शब्द का इस्तेमाल बंद हो चला और सयाना का इस्तेमाल परिवार के किसी वरिष्ठ के लिए किया जाने लगा, वह चाहे थोकदार हो या न हो.
धीरे-धीरे बंदोबस्तों के तहत थोकदारों के अधिकारों को बहुत कम कर दिया गया. पहले इन लोगों के पास राजस्व और पुलिस के भी अधिकार हुआ करते थे. इनके राजस्व के अधिकार पधानों को दे दिए गए. पुलिस के रूप में भी ये उपयोगी नहीं रहे और 1856 में कुमाऊं के सीनियर असिस्टेंट की सिफारिश पर इनसे पुलिस के सारे अधिकार ले लिए गए.
इस तरह कई बंदोबस्तों के बाद थोकदार का पद पूर्णतः समाप्त कर दिया गया.
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(उत्तराखण्ड ज्ञानकोष, प्रो. डी.डी. शर्मा के आधार पर)
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