हम उत्तराखंड राज्य की स्थापना की 18वीं वर्षगांठ मनाने जा रहे हैं. इस राज्य को बनाने का सबसे पहला संगठित विचार सन 1958 में श्रीनगर गढ़वाल में आया था जब वहां के तात्कालिक राजनीतिक, सामाजिक विचारकों एवं चिंतकों ने राज्य की कल्पना को सार्थक बनाने के लिये हर संभव प्रयास किये थे. विभिन्न प्रकार के जन आंदोलन हुए जिनमें उत्तराखंड के लोक जनमानस ने बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी की थी. कई आंदोलनकारियों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी तो कईयों ने अपनी जान की कुर्बानी तक दे दी थी. जनता के इस सच्चे, सार्थक, अभूतपूर्व आंदोलन को कभी भुलाया नहीं जा सकता है जो अब इतिहास में दर्ज हो गया है.
उत्तराखंड राज्य के बनते ही यहां के जनमानस को लगने लगा कि हम एक विशालकाय राज्य उत्तर प्रदेश से आजाद हो गये अब क्यों न हम अपने राज्य को भारत के अन्य राज्यों से श्रेष्ठ बनाएं. यहां के स्थानीय पर्यावरणविद, आर्थिक विशेषज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविदों ने अपने विचार विभिन्न समाचार पत्रों, गोष्ठियों एवं सेमीनारों में बहुत प्रभावी ढंग से रखे.
हर पांच वर्षों में चुनाव हुए, मुख्यमंत्री, जम्बो कैबिनेट और ढेर सारे नौकरशाहों के साथ शासन सत्ता चलने लगी जो अभी तक जारी है. हर नये सत्तासीन मुख्यमंत्री राजनीतिक दल यहां की खुशहाली के वादे कर सत्तासीन हो जाते हैं. आरोप प्रत्यारोप की राजनीति दलों के भीतर होती हैं. बेहतर विकास के दावे कर दिये जाते हैं पर ये सब कथन आज भी उपहास बने हैं. आज भी गरीबी, बेरोजगारी, पलायन, विषम आर्थिकी ज्यों की त्यों पैर जमाये है.
उत्तराखंड की भौगोलिक परिस्थितियों में विविधतायें हैं. एक तरफ तराई क्षेत्र ‘लू’ के थपेड़ों से प्रभावित होता दूसरी तरफ हिमालयी क्षेत्र शून्य तापमान के बर्फीली हवाओं से त्रस्त रहता है. जहां तराई क्षेत्र अच्छी कृषि उपज देता है वहीं पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाला अपना भरपेट भोजन का कृषि उत्पादन नहीं कर पाता. ऐसे में उसको यहां से पलायन करने को मजबूर होना पड़ता है.
उत्तराखंड के पास जीवनयापन करने के प्राकृतिक संसाधन तो उपलब्ध हैं. कल-कल करती हुई हमारी लोक पूजित नदियां भागीरथी, भिलंगना, मंदाकिनी, अलकनन्दा, पिंडर आदि जो उत्तराखंड के हिमालय के उच्च गिरीश्रृंगों से पिघलती हुई बर्फ के पानी से हमारे तराई के क्षेत्र को सिंचित कर अपने कार्य का निष्पादन कर आगे बढ़ती हुई करोड़ों लोगों की जीवन दायिनी है. ये समस्त नदियां हमेशा से हमारी आस्था की प्रतीक रही हैं. क्या ये नदियां विशालकाय बांध बनाकर बिजली बनाने तक की सीमित रह गयी हैं ? क्यों न छोटे-छोटे बांध बनाकर यह कार्य किया जाय. भूगर्भ की दृष्टि से हिमालय विश्व की सबसे नवीन पर्वत श्रृंखला है. विभिन्न प्रकार की भूगर्भीय हलचलें यहां आये दिन होती रहती है जिसे भूकम्प एवं भूस्खलन व आपदा के रूप में देखा जा सकता है. यहां की नदियों में सिल्ट की मात्रा भी अधिक रहती है जो आने वाले वर्षों में बांधों के लिये खतरे की घंटी है और मानव निर्मित भयावह प्राकृतिक आपदा का रूप ले सकती है इसकी जद में समीपवर्ती ग्राम, कस्बे, नगर आ जायेंगे. इसलिये छोटे बांधों को ही प्राथमिकता दी जाये.
उत्तराखंड में जबरदस्त पर्यटन की संभावनायें हैं. सिर्फ यहां पर एक ठोस पर्यटन नीति को बनाने एवं लागू करने की आवश्यकता है. फिलहाल यहां पर्यटन चार धाम तक सीमित रह गया है. साहसिक पर्यटन में यहां कई अनछुए क्षेत्र हैं. जिसके लिये आधारभूत ढांचा बनाने की आवश्यकता है. यहां साहसिक पर्यटन ट्रेकिंग, पैराग्लाइडिंग, राफ्टिंग, स्कींग, पर्वतारोहण के सैकड़ों स्थान हैं. जिन्हें आधारभूत ढांचे की दरकार है. पर्यटन नीति बनाते समय दूरस्थ क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को बैठक में आमंत्रित किये जाने की आवश्यकता है. जिससे यहां का युवा वर्ग इस कार्य को करने में सक्षम हो. पर्यटन और पर्यावरण के बीच संतुलन स्थापित करने की आवश्यकता है. जो एक ठोस पर्यटन नीति द्वारा संभव हो सकता है. अभी हाल ही में वेदनी और ऑली बुग्याल में जरूरत से ज्यादा टेंट लगने एवं पर्यटकों की अधिक आवाजाही से बुग्यालों की स्थिति खराब हो गयी थी. इस पर एक गैर सरकारी संगठन ने कोर्ट में याचिका दर्ज कर दी थी.
सम्मानित कोर्ट ने बुग्यालों में रात्रि शिविर लगाने की अनुमति पर रोक लगा दी. अभी यह मामला सम्मानित कोर्ट में है. यह सब इसलिये हुआ क्योंकि पर्यटन और पर्यावरण के बीच संतुलन नहीं है. ट्रेवल ऐजेन्सी छः महीने तक बुग्याल में टेंट लगाकर इस क्षेत्र के पर्यावरण को बिगाड़ रही थी. जिससे उत्तराखंड के पर्यटन को जोरदार धक्का लगा. दूसरी ओर कई ट्रेकिंग स्थलों के मार्ग खस्ताहाल हैं. मार्ग में कई स्थानों में पुल टूटे हैं. मार्ग अवरुद्ध हैं. मार्गों में रास्ते के मार्क नहीं लगे हैं जिससे पर्यटक आधे मार्ग से वापस आ जाते हैं. इसे सुधारने की आवश्यकता है.
उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में वन औषधीय वनस्पतियां बहुतायत में है. जिसे आयुर्वेदिक दवाइयां व मसाले आदि के प्रयोग में लाया जाता है. इनकी मांग बहुत ज्यादा होती है जिसकी पूर्ति मांग के अनुरूप नहीं हो पाती है. इन औषधीय वृक्ष एवं वनस्पतियों को समीपवर्ती गांवों में उत्पादित किया जा सकता है. जो कि यहां के तापमान के अनुरूप अच्छे ढंग से उत्पादित हो सकती हैं. जरूरत इस बात की है कि इसकी तकनीकि ग्रामीणों को प्रदान की जाये व अच्छी विपणन नीति बनाकर इसको ग्रामीणों से खरीदकर वाजिब धनराशि प्रदान की जाये.
उत्तराखंड की कृषि क्षेत्र की जोत छोटी-छोटी हैं. इसमें हल्दी, अदरक, गहत, भट्ट, लोबिया, राजमा, उरद आदि का उत्पादन कर इनका उत्पादन बढ़ाया जा सकता है. सरकार की योजनायें आम आदमी तक पहुंचाने के लिये विभिन्न योजनाओं का प्रारूप ग्राम स्तर पर किया जाये. जिसमें स्थानीय लोगों की भागीदारी निर्धारित की जाये.
– अल्मोड़ा के रहने वाले डॉ. महेंद्र सिंह मिराल जियोलॉजी साइंटिस्ट हैं. डॉ. महेंद्र सिंह मिराल ने हिमालय ग्लेशियर पर वर्षों काम किया है.
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