लगभग तीन दशक बाद ‘मण्डल-राजनीति’ का नया दौर शुरू हुआ है. रोचक बात यह है कि इस बार वही भारतीय जनता पार्टी इसकी जोरदार पहल कर रही है जिसकी ‘कमण्डल-राजनीति’ की काट के लिए 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिशों से धूल झाड़ कर उसे लागू करने की तुरुप चाल चली थी. 2019 के लिए भाजपा मण्डल और कमण्डल दोनों का एक साथ इस्तेमाल कर रही है.
चार बातों पर गौर करिए. एक- बीते शुक्रवार को केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने घोषणा की कि 2021 की जनगणना में ओबीसी (अन्य पिछड़ी जातियों) की गिनती की जाएगी. 1931 की जनगणा के बाद ऐसा पहली बार होगा. इस घोषणा से पिछड़ी जातियों और उनके नेताओं की पुरानी मांग पूरी की गयी है. यूपीए सरकार ने 2011 की जनगणना में यह गिनती करायी थी लेकिन कुछ गड़बड़ियों के कारण वह रिपोर्ट जारी नहीं की गयी.
दो- कुछ समय पहले ही केंद्र सरकार पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिला चुकी है. अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग की तरह अब इसे भी संवैधानिक शक्तियां प्राप्त हो गयी हैं.
तीन- ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण कोटे में अत्यंत पिछड़ी जातियों के वास्ते अलग से कोटा निर्धारित करने के लिए अक्टूबर 2017 मोदी सरकार ने समिति गठित की थी. आशा की जाती है कि समिति शीघ्र ही अपनी रिपोर्ट सौंप देगी. ‘कोटा भीतर कोटा’ लागू हुआ तो अति पिछड़ी जातियों की यह शिकायत दूर होगी कि ओबीसी आरक्षण का ज्यादातर लाभ चंद जातियां उठाती रही हैं.
चार- जिस दिन राजनाथ सिंह ने ओबीसी जनगणना कराने का ऐलान किया उसी दिन उत्तर प्रदेश में भाजपा ने पिछड़ी जातियों के नायकों को सम्मानित करने के अभियान की शुरुआत की. इस अभियान में विभिन्न जिलों में तेली, साहू-राठौर, नाई, चौरसिया, विश्वकर्मा, गिरि-गोस्वामी, आदि 28 ऐसी जातियों को सम्मान और गौरव-बोध कराया जाना है जो ओबीसी में शामिल होने के बावजूद आरक्षण के लाभों से वंचित या अल्प-लाभांवित हुए हैं.
हिदुत्व और उग्र राष्ट्रवाद के साथ ‘सबका साथ, सबका विकास’ का यह मिश्रण भाजपा की चुनावी रणनीति का मुख्य हिस्सा है. ओबीसी पर भाजपा का यह फोकस नया नहीं है. 2014 की उसकी जीत में ओबीसी का भी बड़ा योगदान था. 2017 में उत्तर प्रदेश भाजपा को तीन चौथाई बहुमत दिलाने में उच्च जातियों एवं दलितों के अलावा ओबीसी वोटों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही. लेकिन इस नये फोकस के खास कारण हैं.
सन 2014 के चुनाव नतीजों का ‘लोकनीति’ का अध्ययन बताता है कि भाजपा को दलितों के वोट बहुत बड़े पैमाने पर मिले थे. उसके बाद के सर्वेक्षणों में भी दलितों में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ते जाने के संकेत थे. याद कीजिए कि 2014 के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के सभी बड़े नेता दलित-हितैषी दिखने का हर जतन कर रहे थे. अम्बेडकर के अस्थि कलश के सामने शीश नवाते प्रधानमंत्री से लेकर दलित घरों में भोजन करते भाजपा के शीर्ष नेताओं की तस्वीरें मीडिया में छायी रहती थीं. ‘लोकनीति’ के सर्वे में पाया गया था कि मई 2017 में दलितों में भाजपा का समर्थन 32 फीसदी तक बढ़ गया था. लेकिन मई 2108 में सामने आया कि भाजपा से दलितों का बड़े पैमाने पर मोहभंग हुआ है. एससी-एसटी एक्ट को नरम करने के सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद यह बदलाव देखा गया. व्यापक दलित वर्ग तो आंदोलित हुआ ही, स्वयं भाजपा के दलित सांसदों ने नेतृत्त्व से नाराजगी व्यक्त की थी.
देश भर में दलितों के उग्र प्रदर्शन के बाद हालांकि मोदी सरकार ने संसद में विधेयक लाकर एससी-एसटी एक्ट को फिर से बहुत सख्त बना दिया है, लेकिन दलितों की नाराजगी दूर नहीं हुई है. ‘लोकनीति’ के अनुसार पिछले कुछ महीनों में भाजपा को दलितों का समर्थन 2014 के स्तर से नीचे चला गया है. दूसरा बड़ा बदलाव उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में आया, जहां भाजपा ने 2014 में 80 में 73 सीटें जीती थीं. सपा-बसपा के गठबंधन ने यहां समीकरण बदल दिये हैं. दलित वोटों का बड़ा हिस्सा और मुख्यत: यादव वोटों का जोड़ भाजपा पर भारी पड़ रहा है. इसलिए भाजपा ने ओबीसी आबादी के उस दो-तिहाई हिस्से पर फोकस किया है जो अपने को उपेक्षित महसूस करता रहा है.
भाजपा के पास उच्च जातियों का अपना मुख्य वोट-बैंक बरकरार है. केंद्र की सत्ता कायम रखने के लिए उसे जो अतिरिक्त समर्थन चाहिए, वह कहां से सुनिश्चित हो? पिछली बार इसका बड़ा भाग दलितों से मिला था. इस बार दलित छिटक रहे हैं तो उसकी भरपाई के लिए कुछ गोटें बैठानी होंगी.
लगता तो यही है कि इसी आवश्यक अतिरिक्त समर्थन के लिए भाजपा ने मण्डल के साथ कमण्डल का जोड़ बैठाने की कोशिश की है. विशेष रूप से उन जातियों को आकर्षित करना होगा जो ओबीसी कतार में सबसे पीछे और उपेक्षित हैं. उनकी शिकायत रही है कि ओबीसी आरक्षण की मलाई यादव, कुर्मी जैसी कुछ जातियां खाती रही हैं. यादव वैसे भी यूपी में सपा और बिहार में राजद के साथ हैं.
उपेक्षित ओबीसी समुदाय को अपनी तरफ कर सकी तो भाजपा को दोहरा लाभ होगा. वह स्वयं तो मजबूत होगी ही, यूपी में सपा के कमजोर होने से बसपा से उसका गठबंधन ढीला पड़ सकता है, जो भाजपा का सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है. यह रणनीति कितनी सफल होगी, वक्त बताएगा.
नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं. देश के वरिष्ठतम पत्रकार-संपादकों में गिने जाने वाले नवीन जोशी उत्तराखंड के सवालों को बहुत गंभीरता के साथ उठाते रहे हैं. चिपको आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘दावानल’ अपनी शैली और विषयवस्तु के लिए बहुत चर्चित रहा था. नवीनदा लखनऊ में रहते हैं.
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