एक उपन्यास की यह पंक्तियां हैं – “पुलिस कर्मचारी की एक हसरत रहती है कि वह सम्मान से जिए और बराबरी से मर सके” (Policemen Dying on Duty Should be Properly Compensated)
यह दोनों हसरतें उसकी आज 21वीं सदी में भी पूरी होती नहीं दिखतीं. हो सकता है इसके पीछे आज तक भारतीय पुलिस का ब्रिटिश उपनिवेशवाद की परछाई मुक्त न हो पाना रहा हो. हो यह भी सकता है कि देश के राजनीतिक मत के निर्धारण में उसका और उसकी राय का महत्वहीन बने रहना रहा हो. जो भी हो समाज को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली और ताकतवर समझे जाने वाली इस संस्था का स्वरूप एक नारियल जैसा ही है जो बाहर से कठोर और जटाधारी है लेकिन अंदर कोमल पानी-पानी. (Policemen Dying on Duty Should be Properly Compensated)
इस बात को समझने के लिए बीती 22 अक्टूबर को नैनीताल में महामहिम राज्यपाल महोदया के एस्कॉर्ट में शामिल दो पुलिसकर्मियों – कांस्टेबल नंदन सिंह और कांस्टेबल ललित मोहन – की दुर्घटना में काल-कवलित हो जाने की त्रासदी के पसमंजर में देखना होगा. इस दुर्घटना में दो अन्य पुलिसकर्मी घायल भी हुए थे. कर्तव्य परायणता में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने की परंपरा का इससे बेहतर कोई और नमूना हो सकता है? अपने पास उपलब्ध संसाधनों में सुरक्षा की भावना में पूरी तरह डूबे देश के इन जांबाज सिपाहियों ने अपने प्राणों तक की परवाह नहीं की .
यह देख कर अपार दुःख होता है कि इस लोकतांत्रिक समाज में, जहां हर दुर्घटना अथवा शराब पीने जैसी अपराधिक घटना के बाद मृत्यु पर भारी भरकम मुआवजे दिए जाने की परम्परा हो, सोशल मीडिया पर इन पुलिस कर्मचारियों के परिवारों की आर्थिक सहायता के लिए क्राउडफंडिंग की अपील करनी पड़ रही है.
यह प्रकरण पुलिस के एक भयावह स्याह पक्ष को दर्शाता है कि मुसीबत में किस तरह पुलिस अकेली पड़ जाती है. (Policemen Dying on Duty Should be Properly Compensated)
ऐसे में कुछ सवाल जायज तरीके से पूछे जाने चाहिए.
क्या प्रदेश के महामहिम की सुरक्षा से बड़ी कोई और ड्यूटी है?
और यह भी कि उस ड्यूटी को अंजाम देते हुए दी गई शहादत के लिए शहीद का दर्जा क्यों नहीं है? यह क्यों और कैसे है कि आज भी पुलिस की सबसे निचली इकाई पाई-पाई के लिए मोहताज है. क्यों कर इन शहादत प्राप्त पुलिस कर्मचारियों के पक्ष में किसी बड़े अनुदान की महामहिम खुद आकर घोषणा क्यों नही करती?
क्राउड फंडिंग के सहारे पुलिस को छोड़ देना क्या खुद सरकार की बदनामी नहीं है! ऐसे प्रश्नों पर विचार का समय शायद सरकार के पास नहीं है.
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1 Comments
कमल लखेड़ा
सरकारें सिर्फ लेना जानती हैं, देने की परंपरा राजनीति ने नहीं सीखी