(विष्णु खरे – 1940 से 2018)
दिल्ली में अपना फ़्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है
(कविता सुनें)
पिता होते तो उन्हें कौन सा कमरा देता?
उन्हें देता वह छोटा कमरा
जिसके साथ गुसलखाना भी लगा हुआ है
वे आज इकहत्तर बरस के होते
और हमेशा की तरह अब भी उन्हें
अपना निर्लिप्त अकेलापन चाहिए होता
लगातार सिगरेट पीना और स्वयं को
हिन्दुस्तानी गेय तथा वाद्य शास्त्रीय संगीत का अभ्यासी व्याख्याकार समझना
उन्होंने अंत तक नहीं छोड़ा था सो अब क्या छोड़ते
इसलिए उनके लिए यही कमरा ठीक रहता
सिर्फ़ रेडियो और टेलीविज़न उनसे दूर रखने पड़ते
माँ होतीं तो उन्हें कौन सा कमरा देता?
माँ भी क़रीब सत्तर की होतीं
और दिनभर तो वे रसोई में या छत पर होतीं बहू के साथ
या एक कमरे से दूसरे कमरे में बच्चों के बीच
जो अगर उन्हें अकेला छोड़ते
तो रात में वे पिता के कमरे में
या उससे स्थाई लगी हुई बालकनी में उनके पैताने कहीं लेट जातीं
अपनी वही स्थाई जगह तय कर रखी थी उन्होंने
बड़ी बुआ होतीं तो उन्हें कौन सा कमरा देता?
क्या वो होतीं तो अभी भी कुँआरी होतीं
और उसके साथ रहतीं?
हाँ कुँआरी ही होतीं – जब वे मरीं तो ब्याहता होने की
उनकी आस कभी की चली गयी थी
और अब अपने भाई के आसरे न रहतीं तो कहाँ रहतीं –
सो उन्हें देता वह वो वाला बैडरूम
जिसमें वह ख़ुद अपनी पत्नी के साथ रहना चाहता है
वैसे माँ के साथ वे भी दिनभर इधर से उधर होती रहतीं
घर की बड़ी औरतें मजबूरन ही
कुछ घंटों का आराम चाहती हैं
क्या छोटी बुआ होतीं तो वे भी अब तक कुँआरी होतीं?
हाँ कुँआरी ही होतीं – जब बड़ी बहन अनब्याही चली गयी
तो उन्हें ही कौन-सी साध रह गयी थी सुहागिन होने की –
सो छोटी बुआ भी रह लेतीं बड़ी बुआ के साथ
जैसे मौत तक उनके साथ रहीं
जब जवानी में दोनों के बीच कोई कहा-सुनी नहीं हुई
तो अब क्या होती भाई-भौजाई बहू और नाती-नातिनों के बीच
इस तरह माता-पिता और बुआओं से और भर जाता घर
इस घर में और जीवित हो जाता एक घर बयालीस साल पुराना
वह और उसकी पत्नी और बच्चे तब रहते
बचे हुए एक कमरे में
जिसमें बेटियों के लिए थोड़ी आड़ कर दी जाती
कितने प्राण आ जाते इन कमरों में चार और प्राणियों से
लेकिन वह जानता है कि हर आदमी का घर
अक्सर सिर्फ़ एक बार ही होता है जीवन में
और उसका जो घर था
वह चालीस बरसों और चार मौतों के पहले था
कई मजबूरियों और मेहरबानियों से बना है यह घर
और शायद बसा भी है
बहरहाल अब यह उसकी घरवाली और बच्चों का ज्यादा है
अब इसका क्या कि वह इसमें अपने उस पुराने घर को बसा नहीं सकता
जिसके अलावा उसका न तो कोई घर था और न लग पाएगा
इसलिए वह सिर्फ़ बुला सकता है
पिता को माँ को छोटी बुआ बड़ी बुआ को
सिर्फ़ आवाज़ दे सकता है उस सारे बीते हुए को
पितृमोक्ष अमावस्या की तरह सिर्फ़ पुकार सकता है आओ आओ
यहाँ रहो इसे बसाओ
अभी यह सिर्फ़ एक मकान है एक शहर की चीज़ एक फ़्लैट
जिसमें ड्राइंग रूम डाइनिंग स्पेस बैडरूम किचन
जैसी अनबरती बेपहचानी ग़ैर चीज़ें हैं
आओ और इन्हें उस घर में बदलो जिसमें यह नहीं थीं
फिर भी सब था और तुम्हारे पास मैं रहता था
जिसके सपने अब भी मुझे आते हैं
कुछ ऐसा करो कि इस नए घर के सपने पुराने होकर दिखें
और उनमें मुझे दिखो बाबू भौजी बड़ी बुआ छोटी बुआ तुम
विष्णु खरे समकालीन सृजन परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण नाम रहे. मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में 9 फरवरी 1940 को जन्मे विष्णु खरे ने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर की डिग्री ली. इन्दौर से प्रकाशित दैनिक इन्दौर में उप-सम्पादक रहे, मध्यप्रदेश तथा दिल्ली के महाविद्यालयों में प्राध्यापक के रूप में अध्यापन किया. केन्द्रीय साहित्य अकादेमी में उपसचिव के पद पर रहे. नवभारत टाइम्स में प्रभारी कार्यकारी सम्पादक रहने के अलावा इसके लखनऊ और जयपुर संस्करणों के सम्पादक की जिम्मेदरी भी सम्हाली. टाइम्स ऑफ इण्डिया में वरिष्ठ सहायक सम्पादक रहे. जवाहरलाल नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में दो वर्ष वरिष्ठ अध्येता के रूप में भी कार्यरत रहे. प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक पायनियर में फिल्म तथा साहित्य नियमित लेखन किया. विष्णु खरे ने दुनिया के ख्यातिलब्ध अन्तर्राष्ट्रीय कवियों की रचनाओं का चयन व अनुवाद कर उसे भारतीय पाठकों तक सुलभ करवाने का महत्वपूर्ण कार्य किया.
विष्णु खरे ने दुनिया के ख्यातिलब्ध अन्तर्राष्ट्रीय कवियों की रचनाओं का चयन व अनुवाद कर उसे भारतीय पाठकों तक सुलभ करवाने का महत्वपूर्ण कार्य किया.
1960 में विष्णु खरे का पहला प्रकाशन टी.एस. एलियट का अनुवाद ‘मरु प्रदेश और अन्य कविताएं’ रहा. इसके बाद आपने पीछे मुड़कर नहीं देखा. आपके द्वारा अनुवादित दर्जनों रचनाओं ने विश्व साहित्य से भारतीय पाठकों का परिचय करवाया. आप बेहतरीन पत्रकार, कवि, अनुवादक तथा साहित्यकार के रूप में हमेशा याद किये जाएंगे.
(ऑडियो: स्वर रुचिता तिवारी, बैकग्राउंड स्कोर: नाज़िर अहमद और केदारनाथ भट्ट का परफॉर्म किया राग मारू विहाग)
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2 Comments
Anonymous
Ati Sunder
lokeshna mishra
एक अति उत्तम कविता अपनेपन की सोच लिए