प्राचीन संस्कृति को अंतिम बुके
पारंपरिक भारतीय कलियों और फूलों की ख़ुशबुएँ
पांडवों की तरह स्वर्गारोहण की सदिच्छा से हिमालय की
ओर चली गई हैं. क्योंकि जिन फूलों का भारतीयकरण
किया गया है उनमें गज़ब की बेशर्मी, हठधर्मी और बिना
ख़ुशबू की कई दिन लंबी ताज़गी है
फिर भी गांधी मैदान में केवल एक दिन की राजनीति में
लगभग पाँच क्विंटल पारंपरिक भारतीय ख़ुशबूदार
फूल कुचले गए. धार्मिक कारणों से छ: हज़ार टन फूल
नदियों में बहाए गए. मांगलिक अवसरों पर
जिन हज़ारों फूलों की बलि दी गई, उनके विसर्जन
की भी कोई ठीक-ठाक व्यवस्था नहीं देखी मैंने
फूलों की अंतिम उपयोगिता हमारी ख़ुशहाली और
आनंद में कुचले जाने की है. हमारा जन्म-मरण
और समर्पण, पुष्प श्रृंगार और पुष्प संहार के बिना
अधूरा है
हो सकता है दस हज़ार टन से कुछ अधिक भारतीय फूल
इस साल सामाजिक या आर्थिक कारणों से नष्ट या सार्थक
हुए हों. फिर भी भारत के मूल माली फूलों पर नहीं
अपनी माली हालत पर रोए. उनके चारों ओर मक्खियाँ
भिनभिनाती रहीं. मधुमक्खियां दूर कहीं अपना शोक-
गीत गाती रहीं अशोक की तरह
पारंपरिक भारतीय फूलों के बिना अब कहां जाएंगी ये
मधुमक्खियाँ? क्योंकि एक मधुमक्खी एक ग्राम शहद
बनाने के लिए लगभग पाँच हज़ार प्रकार के फूलों पर
मधुकरी करने जाती है. बीस हज़ार प्रजाति की भारतीय
मधुमक्खियाँ उदास हैं. इतनी सारी उदासी प्रतिदिन
तेरह हज़ार किलोग्राम शहद का नुकसान कर डालती है
यानि हर बसंत में इक्कीस लाख रुपए की प्रतिदिन हानि…
सखि बसंत आया
सोटों जैसे खिले हुए निर्गंध बुके लाया.
जुलाई, 1940, धंगण गाँव, टिहरी (उत्तराखंड) में जन्मे लीलाधर जगूड़ी ने राजस्थान और उत्तर प्रदेश के अलावा भी अनेक राज्यों के शहरों में कई प्रकार की जीविकाएँ करते हुए शिक्षा के अनियमित क्रम के बाद हिन्दी साहित्य में एम.ए. किया. गढ़वाल राइफल में सिपाही रहे. लिखने-पढ़ने की उत्कट चाह के कारण तत्कालीन रक्षामन्त्री कृष्ण मेनन को प्रार्थना पत्र भेजा, फलतः फौज की नौकरी से छुटकारा मिला. छब्बीसवें वर्ष में परिवार की खराब आर्थिक स्थिति के कारण सरकारी जूनियर हाईस्कूल में शिक्षक की नौकरी की. बाद में पब्लिक सर्विस कमीशन उत्तर प्रदेश से चयनोपरांत उत्तर प्रदेश की सूचना सेवा में उच्च अधिकारी रहे. सेवा-निवृत्ति के बाद नए राज्य उत्तराखंड में सूचना सलाहकार, ‘उत्तरांचल दर्शन’ के प्रथम सम्पादक तथा उत्तराखंड संस्कृति साहित्य कला परिषद के प्रथम उपाध्यक्ष रहे. जगूड़ी ने 1960 के बाद की हिन्दी कविता को एक नई पहचान दी है. इनके प्रकाशित कविता-संग्रह: शंखमुखी शिखरों पर, नाटक जारी है, इस यात्रा में, रात अब भी मौजूद है, बची हुई पृथ्वी, घबराए हुए शब्द, भय भी शक्ति देता है, अनुभव के आकाश में चाँद, महाकाव्य के बिना, ईश्वर की अध्यक्षता में, खबर का मुँह विज्ञापन से ढंका है. ‘कवि ने कहा’ सीरीज में कविताओं का चयन हुआ. प्रौढ़ शिक्षा के लिए ‘हमारे आखर’ तथा ‘कहानी के आखर’ का लेखन किया. ‘उत्तर प्रदेश’ मासिक और राजस्थान के शिक्षक-कवियों के कविता-संग्रह ‘लगभग जीवन’ का सम्पादन किया. इनकी कविताओं के अनुवाद अनेक भाषाओं में किये जा चुके हैं. रघुवीर सहाय सम्मान, भारतीय भाषा परिषद कलकत्ता का सम्मान, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का नामित पुरस्कार. ‘अनुभव के आकाश में चाँद’ (1994) के लिए 1997 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. 2004 में पदमश्री से सम्मानित किये गए.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें