इस घटना से सभी चिंतित थे. पुलिस मौके की जाँच कर रही थी. पत्रकार मौके से रिपोर्ट कर रहा था. परिजन और पड़ोसी मौके पर दुखी थे. नेताजी जी मौके पर दुखी तो नहीं थे, पर मौके पर दुख व्यक्त कर रहे थे. इस विशेष अवसर पर कोई ऐसा भी था जो इन सभी से परे, मौके से बहुत दूर, कुछ और कर रहा था. यद्यपि अन्य की तरह यह उसका नित्यकर्म नहीं था. परन्तु वह उसे नित्यकर्म की तरह ही लेता था. वह कवि था. वह घटना पर कविता लिख रहा था. (Poet Satire by Priy Abhishek)
उसका घर घटनास्थल से कोई दो-ढाई हज़ार किलोमीटर दूर था. परन्तु जैसा बताया गया कि कविता लिखना उसका नित्यकर्म था और महान कवि बनने के लिये प्रत्येक घटना पर कविता लिखना आवश्यक भी था. अतः उसे घटना की तपिश को दो-ढाई हजार किलोमीटर दूर से ही अनुभव करना होता था. कभी-कभी कविता लिखते समय उसकी राजनैतिक विचारधारा आड़े आ जाती थी तो वह कविता को सत्ता परिवर्तन के लिये बचा कर रख लेता था. या फिर कभी वह भविष्य में मिलने वाले पुरस्कारों की काल्पनिक शीतलता से भी घटना की तपिश को अनुभव नहीं कर पाता था. परन्तु वह कविता अनिवार्यतः लिखता था. इससे उसका संवेदनशील होना भी परिलक्षित होता था.
किसी फ़रमाइशी कार्यक्रम के कलाकार की तरह वह हर विषय पर कविता लिख सकता था और लिखता भी था. आख़िर उसे बड़ा कवि जो बनना था. साम्प्रदायिकता-भ्रष्टाचार से लेकर घुड़चढ़ी-दष्ठौन तक और उद्घाटन-अनावरण से लेकर उठावनी-तेरहवीं तक. हर विषय पर उसके पास कविताएं थीं. फिर वह कस्टमाइज़्ड कवितायें भी लिखता था. भतीजी के प्रथम आने पर उसने लिखा था-
आज तुम आई हो प्रथम
देखो कितना हर्षित है गगन
अपने साले के विवाह में कवि जीजा होने के नाते उसने जनता की भारी माँग पर नवागन्तुक सलहज की मुँह-दिखाई पर भेंट हेतु लिखा-
केश झरे पराग से अनुराग राखू
मुख मादक गन्ध मंद ज्यूँ गुड़ाखू
परन्तु ये सब लिखने के बाद भी वह स्वयं में एक अधूरापन सा अनुभव करता था. एक कमी सी. फिर उसका काव्य चरमोत्कर्ष पर पहुँचा जब उसने जूली की झबरी के पिल्ले पर लिखा –
वह देखो नन्हा सा शावक
वह देखो नन्हा सा धावक
अब उसे अपनी सम्पूर्णता का अहसास हुआ था. क्योंकि प्रथमतः अब उसे प्राणिमात्र से प्रेम हो चुका था, और द्वितीयतः इन पंक्तियों में मात्राएँ सही-सही थी. परन्तु राजनैतिक प्रतिबद्धता को वह सर्वोपरि रखता था. उससे कोई समझौता नहीं!
एक कवि का भविष्य उसकी राजनैतिक प्रतिबद्धता पर निर्भर करता है. इस हेतु उसने अत्यंत परिश्रम से समान राजनैतिक विचारधारा वाले कवियों, पाठकों, आलोचकों और प्रकाशकों की खोज की. फिर उसी राजनैतिक प्रतिबद्धता वाले पुराने लेखकों की रचनाएँ खोजी और उन्हें पढ़ा. इस तरह उसने अत्यंत श्रमपूर्वक स्वयं को उस राजनैतिक विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध बनाया. यद्यपि वह स्वयं उस राजनैतिक विचारधारा से सहमत नहीं था, उल्टा मन ही मन चिढ़ता था. पर कवि का भविष्य…
एक साहित्यकार अपने साहित्यिक भविष्य का विचार कर अनेक विचारों, घटनाओं से सहमत अथवा असहमत हो सकता है. अतः अपने भविष्य का विचार करते ही वह तत्काल विचारधारा से सहमत हो जाता था. हालाँकि प्रारम्भ में बात ऐसी नहीं थी. इसके पीछे भी एक कहानी थी.
अपने साहित्य शैशव में उसकी कविताओं का सभी ने मज़ाक उड़ाया था. उसके काव्यकर्म को अत्यंत हीनता की दृष्टि से देखा. उसे अगम्भीरता से लिया. महान आलोचक ने तो उसे प्रथम दृष्टि में ही नकार दिया था.
फिर उसने ‘जी’ पक्का करके महान आलोचक की सभी किताबों को पढ़ डाला. फिर वह महान आलोचक की पुस्तकों का महान आलोचक से उल्लेख कर-कर के महान आलोचक की प्रशंसा करने लगा. महान आलोचक के हृदय में निश्चित ही इससे गुदगुदी होती होगी-ऐसा उसका विश्वास था. परन्तु उसका यह विश्वास गलत था. Poet Satire by Priy Abhishek
महान आलोचक की शरण में वह तीन सौ इकसठवें क्रमांक पर उपस्थित हुआ था. उससे पूर्व उसके जैसे तीन सौ साठ कवि-लेखक वहाँ पहुँच चुके थे. सभी एक से एक कुशल, प्रवीण, निष्णात, गृहकार्य में दक्ष. कवि समझ गया की प्रतिस्पर्धा कठिन है. अब उसे महान साहित्यकार बनने के लिये और अधिक श्रम करना था, और गहरे उतरना था.
एक दिन वह महान आलोचक के वाहन का पंक्चर बनवा कर लाया. श्रीमती आलोचक के वस्त्रों हेतु फिनाइल की गोलीयां खरीद कर लाया. श्रीमती आलोचक की कृपा से वह कुशलता से धुली और साबित मूँग दाल में अंतर करने लगा, जो कि छंद साधने से भी कठिन कार्य था. यहाँ तक की अब वह कमलगट्टा और लभेड़े का अचार डालने में भी पारंगत हो गया. वह मन ही मन जानता था कि इन सब कार्यों को सीखने से उसकी कविता समृद्ध हो रही है. परन्तु इतना सब करने के उपरांत भी महान आलोचक का हृदय नहीं पिघला.
अंत मे थक-हार कर उसने महान आलोचक से कहा- “शिष्यस्तेsहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम.” अर्थात मैं आपके अधीन पीएचडी करने को तैयार हूँ. आप मेरे गाइड बनिये.
तब जाकर महान आलोचक ने उसे दीक्षा देते हुए बताया कि यह कविता साधारण कविता नहीं है. कविता की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा, “प्रस्तुत कविता में ‘नन्हा सा शावक’ ही वे परिस्थितियां है जो क्रांति की नींव रखती हैं, अर्थात सुप्त क्रांति. और ‘नन्हा सा धावक’ ही क्रांति का सूत्रपात है, अर्थात जाग्रत क्रांति.” Poet Satire by Priy Abhishek
“आहा! मुझे पता था, मुझे पता था! मैं बहुत अच्छा लिखता हूँ,” कवि ने स्वयं से कहा.
उसका कविता का काम अब सफलतापूर्वक चल पड़ा. गोष्ठियां, सम्मेलन, लेखकसंघ, पत्रिकाएं, समीक्षा, प्रकाशन ,पुरस्कार और न जाने क्या-क्या. महान आलोचक ने उसके ऊपर नेमतों की बरसात कर दी हो जैसे. सब कुछ ठीक-ठाक चल ही रहा था कि अचानक एक दुर्घटना घट गई.
एक राज्य के एक स्कूल में मध्याह्न भोजन खाने से बच्चों को उल्टी-दस्त हो गये. उनको अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा. परन्तु जैसा पाठक सोच रहे हैं ,गलत है. वह दुर्घटना ,यह नहीं थी. दुर्घटना कुछ और थी. पाठक जानते हैं कि कवि अत्यंत संवेदनशील था. इस घटना से व्यथित होकर कवि ने लिखा–
असली नीयत हो गई जाहिर
अंदर का सब आया बाहिर
“वाह!” कवि ने स्वयं से कहा. उसे पता था की इसकी दूसरी पंक्ति ‘अंदर का सब आया बाहिर’ में उल्टी-दस्त के अतिरिक्त भी अनेक बिम्ब उभरते हैं.
“बिम्ब बिम्ब बिम्ब, मैं उभारूँगा बिम्ब.” वह गुनगुनाता रहता.
अपनी इस कविता को लेकर वह खुशी-खुशी महान आलोचक के पास पहुँचा. उसने महान आलोचक को बताया कि इस बड़ी दुःखद् घटना पर उसने कविता लिखी है. महान आलोचक ने कविता पढ़ी और कहा- “न तो घटना बड़ी है और न ही इतनी दुःखद जो इस पर कविता लिखी जाय. और कविता बहुत ही वाहियात किस्म की है.” आज महान आलोचक की आँखों में आलोचना की जगह खून उतर आया.
महान आलोचक ने कवि को बहुत लताड़ा और कहा कि उन्हें कवि से इस घटिया कविता की आशा नही थी. आगे से वह उन्हें अपना चेहरा न दिखाये. अब वो ,वो नहीं रहा, जैसा वो हुआ करता था. साथ ही महान आलोचक ने कवि को ‘गैट आउट’ भी कहा.
“गेटआउट, गेटआउट, गेटआउट- अर्थात गेट से बाहर निकल जाओ.” कवि ने मन में अनुवाद किया. कवि अच्छा अनुवादक भी था.
इस दुर्घटना से कवि स्तब्ध था. कवि की इस किंकर्तव्यविमूढ़ता, हतभागिता पर श्रीमती आलोचक को दया आ गई. आख़िर कवि ने चौके में उनका बहुत हाथ बँटाया था. श्रीमती आलोचक ने बताया ,”आपको ऐसा कबता नही न लीखना चईये था. वहाँ पे तो अपना पाल्टी का सरकार है. फीर? अलूचक जी नराज न होंगे त का होंगे?”
आज कवि को एक नवीन बात पता चली. एक साहित्यकार के लिये कोई घटना, दुर्घटना बनेगी अथवा नहीं, यह भी कवि की राजनैतिक प्रतिबद्धता से तय होता है. बहरहाल, इस दुर्घटना से, महान आलोचक के इस व्यवहार से कवि बहुत निराश हो गया. वह अवसाद में चला गया. अपने इस अवसाद पर उसने लिखा-
साथ मिला जो, गया है छूट
ख़्वाब सजा जो, गया है टूट
“मात्राएँ तो ठीक लग रही हैं.” कवि ने स्वयं से कहा.
महान आलोचक ने उससे मुख मोड़ लिया था. वह अकेला था. इस अकेलेपन में आज उसे कविता नहीं, अपनी पीएचडी याद आई. उसकी पीएचडी पर संकट के बादल मंडरा रहे थे. बिना गाइड के साहित्य के भँवर में उसकी पीएचडी की नैया हिचकोले खाने लगी. कवि अब और अधिक चिंतित रहने लगा. अपने साथ घटी इस दुर्घटना को कवि ने अपने एक निकट मित्र को बताया. मित्र, कवि से एक साइज़ बड़ा साहित्यकार था.
मित्र ने कहा,”तुम बहुत बुरे फँसे थे. तुम्हें उसके पास जाना ही नहीं चाहिये था.”
“उस?” कवि ने स्वयं से कहा. महान आलोचक के लिये ‘उन’ के स्थान पर ‘उस’ सुनकर उसे भीतर ही भीतर धक्का लगा. “क्या वे ‘उस’ लायक ही थे? ‘उन’ लायक नहीं?” कवि ने स्वयं से पूछा.
फिर कवि का वह एक साईज़ बड़ा साहित्यकार मित्र कवि को एक अन्य आलोचक सह प्रोफेसर के पास ले गया और वहाँ उन्हें पूरा घटनाक्रम बताया. ये नवीन आलोचक मुस्कुराए और कहा,” तुम बहुत गलत फँसे थे. तुम्हें उसके पास जाना ही नहीं चाहिये था.”
नवीन आलोचक के मुख से महान आलोचक के लिये पुनः ‘उस’ सुनकर कवि आश्वस्त हो गया की महान आलोचक ‘उस’ लायक ही था. फिर नवीन आलोचक ने बताया- “प्रस्तुत कविता में ‘नन्हा सा शावक’ राष्ट्रवाद की नींव है. और ‘नन्हा सा धावक’ राष्ट्रनिर्माण की प्रक्रिया है.”
“आहा! यही इसका वास्तविक अर्थ है.” कवि में उत्साह का पुनर्संचार हो गया.
आज विश्वविद्यालय में पीएचडी का गाइड बदलने हेतु एक आवेदन पत्र आया हुआ था.
(Poet Satire by Priy Abhishek)
प्रिय अभिषेक
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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