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डूबना एक शहर का : प्रसंग टिहरी

अपने डूबने में यह हरसूद का समकालीन था
शहरों की बसासत के इतिहास को देखें तो
यह एक बचपन का डूबना था
(Poem Harish Chandra Pande)

इतिहास से बाहर जाएँ, जैसे मिथक में
तो यहाँ एक मुक्ति दा नदी बाँधी जा रही थी
और यह डूबना उसी का अभिशाप हो सकता था

यहाँ हर चीज़ अपने ही अंदाज़ में डूब रही थी
भरी हुई बाल्टियां, ड्रम, जग
समाधि जैसी ले रही थीं
खाली बर्तन ना ना ना करते हुए डूब रहे थे… गुडूप
(Poem Harish Chandra Pande)

पानी की उठती दीवारों में वनस्पतियाँ छिनी जा रही थीं
आहिस्ता-आहिस्ता

जो जितना उम्रदराज था
उसके उतने ही अधिक दिन डूबे
जिसके जितने अधिक दिन डूबे
उसकी उतने भर अधिक आयतन की यादें उभरीं

प्रारंभिक पाठशाला की दीवारें अधिक उम्रदराज थीं
बनिस्बत डिग्री के
जाने कितनी तबील उम्र लिए बैठा था श्मशान
सबसे पहले वही डूबा
(Poem Harish Chandra Pande)

आरतियाँ अजान अरदास सब डूबने में एक साथ थे
आंदोलनों की दरियां डूब रही थीं धूल के साथ
जमाने से नीचे-नीचे बहती आई नदी ने
पुल के गुरुत्व को लाँघ लिया था

वह आदमी जो इकत्तीस जुलाय दो हजार चार को
शहर छोड़ कर गया बताया गया
उसकी पीठ देखने वाली कोई आँख न थी
सिवाय एक घंटाघर के
जो अपने डूबने से पहले सबके डूब-समय का इंदराज करता रहा था

बाँध एक विचार था दो फाड़
कहना मुश्किल था
यह खुशहाली का ऊपर उठता हुआ स्तर था
या एक दुखांत नाटक का रिहर्सल

बहरहाल
सावन-भादो इसे नगाड़े की तरह बजाते हैं
चाँद इसकी सतह पर जमकर स्केटिंग करता है

अभी यह शिवालिक की गोद में बैठा समुद्र का शावक है

पर्यटक आँखें, अपलक देख रहीं हैं इसका जल विस्फार
और विस्थापित आँखें मुंदकर
अतल में सोई अपनी सिंधु घाटी को देख रही हैं
(Poem Harish Chandra Pande)

हरीश चन्द्र पाण्डे

अस्सी के दशक में समकालीन कविता में जिन महत्वपूर्ण कवियों ने पहचान बनायी उसमें हरीश चन्द्र पाण्डे का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है. समकालीन हिन्दी कविता में हरीश चन्द्र पाण्डे एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं. अल्मोड़ा के एक गांव में 28 दिसम्बर 1952 में जन्मे हरीश चन्द्र पाण्डे इलाहाबाद में महालेखाकार कार्यालय से सेवानिवृत्त हुए. उनके संग्रह ‘कुछ भी मिथ्या नहीं है’ के लिए उन्हें 1995 का सोमदत्त सम्मान दिया गया. कविताओं की उनकी पहली किताब ‘एक बुरूँश कहीं खिलता है’ थी.

हिन्दी साहित्य जगत में इसे काफ़ी चर्चित पुस्तकों में गिना जाता है. यह पुस्तक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के सर्जना पुरुस्कार से सम्मानित हुई. प्रतिष्ठित केदार सम्मान और ऋतुराज सम्मान भी इस कवि को मिल चुके हैं. हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है यथा – अंग्रेजी, बांग्ला, उड़िया, पंजाबी तथा उर्दू. वर्ष 2006 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उनका संग्रह ‘भूमिकाएं ख़त्म नहीं होतीं’ प्रकाशित हुआ.

इन्हें भी पढ़ें:

एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय
वे मगहर में नहीं अपने घर में मर रहे हैं
ऐसी दुर्लभता को बचाया ही जाना चाहिए
जिसे हँसने की तमीज नहीं वो भी जाए भीतर
जब तक सामर्थ्य है देखूंगा दुनिया की सारी चहल-पहल
उसका विवेक फांसी के लीवर की तरह होता है

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