मैं कुछ दिन पहले पूर्णागिरी मंदिर गयी थी तो मैंने देखा कि घुरड़ और बंदर मंदिर से फेंके गये कूड़े को खाने के लिये आ रहे हैं. इस कूड़े में भी प्लास्टिक का कचरा (Plastic Pollution) ही अधिक था. इस तरह का खाना खाने से इन जानवरों के स्वास्थ्य में कितना गहरा असर पड़ेगा इसका शायद अभी हमें अनुमान नहीं है पर अगर इसे अभी ही नहीं रोका गया तो आने वाले समय में परिणाम अच्छे तो नहीं ही होंगे.
प्लास्टिक की उत्पत्ति होने के बाद ऐसा लगा था जैसे उसके आ जाने से दुनिया बदल जायेगी और जिन्दगी ज्यादा आसान हो जायेगी क्योंकि प्लास्टिक के आ जाने से पशुओं की चमड़ी के लिये उन्हें मारने और पेड़ों के कटने की संख्या में कमी का अनुमान था. इसलिये माना गया कि प्लास्टिक पर्यावरण को सुरक्षित रखेगा. हालांकि प्लास्टिक बहुत मायनों में फायदेमंद भी रहा क्योंकि चिकित्सा में इस्तेमाल किये जाने वाले कई कांच की चीजों को प्लास्टिक ने बदल दिया और इससे इनकी गुणवत्ता भी बढ़ी. परन्तु इस तरह के इस्तेमाल के लिये उच्च गुणवत्ता के प्लास्टिक का इस्तेमाल किया जाता रहा पर रोजमर्रा के इस्तेमाल के लिये निम्न गुणवत्ता के प्लास्टिक का इस्तेमाल किया जाने लगा जिसमें कई तरह के प्लास्टिक के बर्तन, थैलियां, डिब्बे, खिलौने और इस तरह के कई और सामान भी हैं. इन उत्पादों ने स्वास्थ्य के साथ तो खिलवाड़ किया ही, साथ ही इन्होंने कभी न खत्म होने वाले कचड़े का ढेर बनाना भी शुरू कर दिया जिससे पर्यावरण को नुकसान होने लगा.
अमेरिका में जार्जिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक शोध में पाया कि 2015 तक इंसान ने 8.3 बिलियन मीट्रिक टन प्लास्टिक पैदा किया जिसमें से 6.3 बिलियन मीट्रिक टन प्लास्टिक ने कूड़े का रूप ले लिया. अगर प्लास्टिक उत्पन्न करने की स्थिति ऐसी ही रही तो 2050 तक धरती 12 बीलियन मीट्रिक टन कूड़े से पट जायेगी.
प्लास्टिक की संरचना कुछ इस तरह की बनी होती है जो कि कभी भी नष्ट नहीं होती. ये हमेशा वैसी ही पड़ी रहती है और धरती में ढेर के रूप में एकत्रित होती रहती है. प्लास्टिक का कूड़ा फैल कर इधर-उधर चला जाता है. इसमें से कई सारा कूड़ा तो पानी में पहुँच जाता है और नदियों से होता महासागरों तक भी चला जाता है. एक पूर्वानुमान के अनुसार 2050 तक समुद्र में मछलियों से ज्यादा प्लास्टिक का कूड़ा मिलने लगेगा.
कहने में बहुत सरल लगता है कि प्लास्टिक को फेंक देने से ही क्या हो जायेगा? पर इसके पीछे इसके विज्ञान को समझना भी जरूरी है कि पर्यावरण और इस धरती के लिये प्लास्टिक क्यों खतरनाक होता जा रहा है.
प्लास्टिक जैविक रूप से अपघटित नहीं होता है. प्लास्टिक के घटक खंडित होकर पर्यावरण में जहरीले रसायनों जैसे पैथलेट्स और बिसफिनोल ए को छोड़ना शुरू कर देते हैं. यह रसायन शरीर का संतुलन बिगाड़ते हैं और बांझपन, एलर्जी और कैंसर का खतरा उत्पन्न कर देते हैं. प्लास्टिक को जलाना तो और भी ज्यादा खतरनाक है क्योंकि जलाने पर और भी खतरनाक गैसों को छोड़ना शुरू कर देता है. सीपीवीसी, निओप्रिन, सीपीई प्लास्टिक इस तरह के प्लास्टिक हैं जिन्हें जलाने पर ये डाइआक्सिन गैस छोड़ते हैं. ये गैस बेहद घातक है और कई गंभीर बिमारियों को जन्म देती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यदि डाइआक्सिन एक बार मानव शरीर या पर्यावरण में घुल जाये तो यह वहां पर चट्टान की तरह इकट्ठी हो जाती है और फिर हमेशा के लिये वहीं बनी रहती है.
हमें अकसर ही ऐसी तस्वीरें देखने को मिल जाती है जिसमें दिखाया जाता है कि किस तरह प्लास्टिक समुद्र को अपनी गिरफ्त में ले रहा है और मासूम समुद्री जीव इनमें फँस कर अपनी जान गंवा रहे हैं. यह हालत सिर्फ महासागरों की ही नहीं है. धरती की स्थिति तो और भी खतरनाक है. एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक में उत्पादित प्लास्टिक की मात्रा इससे पहले की सारी हदों को पार कर चुकी है.
एक और सर्वेक्षण के अनुसार इंडानेशिया, थाइलेंड और वियतनाम जैसे एशियाई मुल्कों को प्लास्टिक प्रदूषण में सबसे अधिक योगदान है. भारत भी इसमें कोई कम पीछे नहीं है. भारत में प्रतिदिन 15000 टन से अधिक प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है. जिसमें से 6000 टन से अधिक कचरा ढंग से संग्रहित न किये जाने के कारण फैल जाता है. राजधानी दिल्ली की स्थिति तो और भी खराब है. दिल्ली देश का सबसे अधिक प्लास्टिक कचरा उत्पन्न करने वाला शहर है.
हाल ही में प्लास्टिक पर वैश्विक रिपोर्ट जारी हुई है जिसके अनुसार प्लास्टिक की उपस्थिति पर्यावरण में प्रदूषण को स्थाई बना रही है. धरती से दूरस्थ इलाकों जैसे आर्कटिक और पैसिफिक आइलेंड में भी प्लास्टिक की अधिकता बढ़ी है. समुद्रों से भी हर साल 80 लाख टन प्लास्टिक निकाला जा रहा है. 2050 तक यह आंकड़ा चार गुना बढ़ जाने का अनुमान है.
अफ़सोस इस बात का है कि प्लास्टिक के दुष्परिणामों के समझने के बावजूद भी दिन-ब-दिन प्लास्टिक का इस्तेमाल बढ़ रहा है. 2013 में एक अमेरिकन प्रति वर्ष लगभग 109-किलोग्राम प्लास्टिक का इस्तेमाल कर रहा था. चीन में यह दर 45 किलोग्राम थी और भारत में स्थिति काफी बेहतर थी. यहां यह दर 9.7 किग्रा ही थी पर पिछले कुछ वर्षों में प्लास्टिक के इस्तेमाल में सालाना 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
समय आ गया है कि प्लास्टिक के इस्तेमाल पर गंभीरता से सोचा जाये और इसके विकल्पों को खोजा जाये.
विनीता यशस्वी
विनीता यशस्वी नैनीताल में रहती हैं. यात्रा और फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी पिछले एक दशक से नैनीताल समाचार से जुड़ी हैं.
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1 Comments
मृगेश पाण्डे
हमारी आदतों में शामिल हो गया है पॉलीथिन। झोला ले कर चलने की आदत ख़तम हो गए है। मुझे याद है मेरे पिता पान खाने के बाद सड़क पर चलते कागज के रैपर को फिर जेब में ठूंस लेते थे और जब कोई कूड़ेदान दीखता वहां डालते थे। तब नैनीताल कितना साफस्वच्छ था। टूरिस्ट भी मर्यादित होते थे। तल्लीताल बी दास की वाइन शॉप में बोतल भी बांसपपेर की थैली में शालीनता से दी जाती थी। हनुमानगढ़ी जाते कूड़ा खड्ड तक से बदबू के भबके नहीं आते थे। अब तो अपने घर का कूड़ा पड़ोस में फ़ेंक दो की नी यत है.अपने मंदिरों को हम तथाकथित प्रसाद,तेल,अक्षत डाल -डाल कच्यार का गोठ बना देते हैं और धूप बत्ती के इन्सेंस से अंजानी सांस की बिमारियों को फैलाते हैं.मेरा एक प्यारा तिब्बती सफ़ेद झबुआ कुत्ता मोती कैडबरी का रेपर खा मर गया था। अब कितनी गायें व जानवर इस प्लास्टिक से मरते हैं ?अल्मोड़ा जाते चितइ के ट्रंचिंग ग्राउंड हों या हल्द्वानी-दिल्ली के हमेशा जहर उगलते कूड़े के विशाल साम्राज्य ,घातक दवाइयां जो बीमार के मरने के बाद समशान में नदी में ही प्रवाहित कर देते हैं लोग। वह हम ही हैं। देश की माटी देश के जल देश के वन हम ही बर्बाद कर रहे। .