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  1. मृगेश पाण्डे

    हमारी आदतों में शामिल हो गया है पॉलीथिन। झोला ले कर चलने की आदत ख़तम हो गए है। मुझे याद है मेरे पिता पान खाने के बाद सड़क पर चलते कागज के रैपर को फिर जेब में ठूंस लेते थे और जब कोई कूड़ेदान दीखता वहां डालते थे। तब नैनीताल कितना साफस्वच्छ था। टूरिस्ट भी मर्यादित होते थे। तल्लीताल बी दास की वाइन शॉप में बोतल भी बांसपपेर की थैली में शालीनता से दी जाती थी। हनुमानगढ़ी जाते कूड़ा खड्ड तक से बदबू के भबके नहीं आते थे। अब तो अपने घर का कूड़ा पड़ोस में फ़ेंक दो की नी यत है.अपने मंदिरों को हम तथाकथित प्रसाद,तेल,अक्षत डाल -डाल कच्यार का गोठ बना देते हैं और धूप बत्ती के इन्सेंस से अंजानी सांस की बिमारियों को फैलाते हैं.मेरा एक प्यारा तिब्बती सफ़ेद झबुआ कुत्ता मोती कैडबरी का रेपर खा मर गया था। अब कितनी गायें व जानवर इस प्लास्टिक से मरते हैं ?अल्मोड़ा जाते चितइ के ट्रंचिंग ग्राउंड हों या हल्द्वानी-दिल्ली के हमेशा जहर उगलते कूड़े के विशाल साम्राज्य ,घातक दवाइयां जो बीमार के मरने के बाद समशान में नदी में ही प्रवाहित कर देते हैं लोग। वह हम ही हैं। देश की माटी देश के जल देश के वन हम ही बर्बाद कर रहे। .

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