पिछली कड़ी यहां पढ़ें- छिपलाकोट अंतर्यात्रा : कभी धूप खिले कभी छाँव मिले- लम्बी सी डगर न खले
मनीराम पुनेठा जी की दुकान में शाम के समय अखबार बटोरने गया तो पूरे दस दिन के अखबार कायदे से बंडल में लपेटे मेरे हाथ में थमा पुनेठा बुबू ने सवालों की झड़ी लगा दी. फिर डांठ भी दिया. ‘नामिक जा रहे हो मुझे बताया तक नहीं. वो तो दामाद जी ने बताया कि कहीं पहाड़ नापने गये हो’. उनके दामाद डॉ हीरा बल्लभ खर्कवाल महाविद्यालय में रसायन विज्ञान के प्रवक्ता थे और हमारे सीनियर. श्रीनगर बिरला कॉलेज में भी हम साथ थे और वहीं से परिचय भी हुआ था. हम लोगों के हिर दा. हमेशा उनके मुँह में मुस्कान बनी रहती. बातें भी बहुत अपनापन भरी. वह दुकान में बैठे कोई पत्रिका उलट पलट रहे थे. मैंने उसके कवर पर नजर डाली, ‘उत्तँड मार्तण्ड’. कलकत्ता से छपी. आश्चर्य होता था पत्र पत्रिकाओं की इतनी सहज सुलभता इस दुकान में कैसे रही हमेशा.
(Pithoragarh People Memoir Mrigesh Pande)
‘अब चलो दुमँजले. कब से कह रहे थे, स्वामी जी से मिला दो. आओ, आज कल यहीं हैं. चिलकोटी जी भी हैं, पाण्डेजू वकील साब भी हैँ, सब बैठे हैँ ऊपर, मैं भी चल रहा हूँ. ये अखबार का गट्ठा यहीं रख दो. स्वामी जी कुछ बतायें तो नोट कर लेना सब, बलाते कम हैं पर जो बताया वह सोल आने खरा. लो ये डायरी रक्खो. इसमें नोट करना हाँ. वो गुस्सैल भी हैं जरा में झड़क जाते हैं. ये शेखर को देखना हाँ, दुकान से इधर-उधर न जाये’. उन्होंने अपने विश्वस्त को आदेश दिया. गले में उंगलियां फेरी और हमारी ओर देख बोले, ‘गला खराब हो जाता है अब मौसम बदलते ही’.
दीप और मैंने एक दूसरे की ओर देखा. पुनेठा बुबू अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए. टोपी तो सर पे थी ही सामने कलमदान पे रखा काफी लम्बा सा मफलर उठाया और गले में दो बार लपेट आगे-पीछे बराबर किया. कोने में रखी छड़ी उठा अब वह भी चलने को तैयार थे.हिरदा ने उनकी बांह पकड़ दुकान से बाहर को जाती ढलान पर सहारा दिया.
‘बस, ठीक. आओ हो. अरे मेरी वो होमियोपैथी की गोली निपड़ गई. वो सौजू के यहाँ से ला दो तो’. उन्होंने हिरदा से कहा. पुरानी बाजार को जाते माहेश्वरी की दुकान के बगल में शाह जी का दवाखाना था. हिर दा ‘आया हाँ’ कह चल दिए.
‘चाय चुई कम पीना कह रखा सौजू ने दवा की गोली के अगल-बगल, पर बिन चहा तो मेरे कुछ छिरकता ही नहीं. पहले तो भौत जल्दी ठीक हो जाती रही ये गले की खरखराट.नरंगी गरम राख में डाल दो. दो-एक घंटे में भुनी जाँए, तो खा जाओ. कुकुर खांसी तक ठीक हो जाने वाली हुई. अब तो ये बाजार वाले नरंगी के बजाय पिल-पिल सन्तरे भिड़ा रहे. असली माल तो पहाड़ का ही हुआ. पार से भी खूब आते हैं.’
खाँसते खर्खराते बोले वह दुकान से निकले तो गुप्ता जी घड़ी साज सामने थे, उनसे दुआ सलाम में लग गये.
मुझे याद आईं कांच की वो ढेर शीशियां जो लकड़ी के आयता कार डिब्बोँ में सजी रहती और क्रम से उनके नाम होते आर्निका, अकोनाइट, थूजा.. हमारे बप्पाजी को शौक चढ़ गया था होमियोपैथी का. कलकत्ता से भट्टाचार्य एंड कंपनी के पारसल आते जिनमें कुछ में तरल होता जिससे अलकोहाल की खुशबू आती और कुछ पैकेट ग्लोबूल्स, छोटी-छोटी सफेद चीनी की गोलियां. कांच के समकोण से मुड़े डंडे से टिंचर की एक आध बूंद गोलियों पर टपकाई जातीं और उससे पहले लाल जिल्द वाली मोटी सी किताब के न जाने कितने पन्ने पलटते हमारे बप्पा, ‘सिर्फ बीमारी नहीं बीमार के पूरे ढांचे को समझना पड़ता है होमियोपैथी में, तब जो जाकर दवा जड़ हिलाती है रोग की’, कह वह भट्टाचार्य की मोटी किताब पढ़ अपना नवीन ज्ञान बांटते भी जाते.
‘ये बुआ तो हर समय फुस-फुस, पट-भट कर पादती रहती है तो इसकी जड़ भी खतम हो जाएगी क्या’? मैं अपनी छोटी बहिन सरिता जिसका नाम बुआ बप्पा जी ने ही रखा था, की ओर देख, उसकी समस्या प्रकट कर उसे चिढ़ा देता तो वह कुनमुनाती. बप्पा की डांठ भी सुननी पड़ती,’हर बात में खिचरोली करता है ये कुनुआ साला.’
मेरे दिमाग में सूट बूट पहने सर में हैट लगाए डॉ सनवाल चलने लगे जिनकी मल्लीताल अशोक सिनेमा के ऊपर वाली सड़क और आर्य समाज के ठीक नीचे दुकान थी. हमारे बप्पा उनसे मार्गदर्शन लेने अक्सर जाते. उनके साथ जब भी जाना होता तो डॉ सनवाल से उनके वार्तालाप के बीच मुझे और भाई बहनों को वहीं थोड़ा घूमघाम व लटकने की आजादी होती वो भी गंगा सिंह या नितुवा के साथ जो हमारी फौज को कण्ट्रोल में रखने के लिए साथ रहते. बप्पा जी तो जब-तब किसी से बातचीत ही करते दिखते.
जैसे ही बप्पा जी सनवाल डॉक्टर के दवाखाने मे कुर्सी पे जम जाते तो मैं सीधे नीचे अशोक सनीमा को सरक जाता. बाकी भाई-बहिन गंगा सिंह और नितुआ के हवाले होते. नितुआ भी मेरे साथ आने की फिराक में रहता पर ये गंगा सिंह तो पूरा चुगलखोर था. सारी बात बप्पा को बताता. मैंने भी कसम खाई थी कि इसके लड़के को जो मुझसे छोटा था और हमेशा डरा-सहमा रहता था उसे फिल्मों के साथ मैं सुट्टे-बीड़ी की भी ऐसी आदत पाड़ूँगा कि ये देखते रह जायेगा. अपने लड़के को खूब डरा झस्का के रखता है और कहता है, ‘खूब ताकतवर बन दौड़ लगा तभी जायेगा फौज में’. गंगुवे का एक साला जो है फौज में, नितुवा ने बताया उसके लिए खूब लट्ठे लाता है तीन एक्स वाले. उसे भी चखाई है.
बड़े फ्रेम और कांच और जाली के भीतर सनीमा के ये तरतीब से लगे फोटो. अब गंगा सिंह को क्या मालूम कि कैसे महिपाल का चलाया तीर सुनहरी नागिन में बदल जाता है. यही हीरोइन अनीता गुहा जो रामायण में सीता माई बन जाती है यहां लोचदार बन कितना मटक-मटक नाची खलनायक बी ऍम व्यास के झस्काने पर. ये तो रावण भी गजब का बना था. उस पर रंगीन फ़िल्म, डायरेक्टड एंड ट्रिक फोटोग्राफी बाई बाबू भाई मिस्त्री. कभी साहिब बीबी और गुलाम के फोटे होते ब्लैक एंड वाइट वाले पर ऐसी बहुत सोच विचार वाली फ़िल्में मुझे बड़ा सर दर्द लगतीं थीं. कागज के फूल तो सर के पार गुजर गई. दिनेश दद्दा के साथ इसी हॉल में देखी थी. गुरु दत्त उनका फेवरेट हीरो था और वह उसी की तरह बोलने की कोशिश करते थे क्योंकि गुरु दत्त के भी दाँत टेढ़े मेढ़े थे और दिनेश दा के भी, पर देखी क्योंकि वहीदा रेहमान मेरी प्यारी हीरोइन जो थी. पता नहीं कैसे और क्योंकर उसने कमलजीत टाइप से शादी कर ली? अरे वही शगुन पिक्चर वाला जिसके गाने लाजवाब थे पर हीरो अजीब सा चिक्कन. मुझे तो रंजन बहुत स्मार्ट लगता था. होठों की लकीर से चिपकी मूछें और हाथ में पकड़ी तलवार. क्या तलवार बाजी… असपी का निर्देशन.
परदा सबसे बड़ा अधमताल में लक्ष्मी सिनेमा का था. गेट कीपर भी पड़ोसी. उसका लौंडा पढ़ने में पट्ट सो उसे रटा-धोटा कर और तांक झाँक में उस्ताद बन पास होने की तरकीब और फॉर्मूले मैंने बता दिए थे. गेट कीपर चंन्नू तो मेरे गुण गाता और कई कई फिल्मों का कई कई बार दर्शन लाभ दिलाता. फ़िल्म देखने की सबसे बड़ी हौस होती कैपिटल सनीमा में जहां शाम चार बजे बाद अंग्रेजी फ़िल्म चलती. महेश दा ने मुझे वहां बैन्हर पिक्चर दिखाई जिसमें क्या बोला जा रहा तो मेरे सर के पार गुजर गया पर उसमें रथोँ की दौड़ की फोटोग्राफी तो गजब ही थी. फिर उन्होंने डॉ जिवागो दिखाई जिसकी कहानी फ़िल्म देखने से पहले ठंडी सड़क से आते हुए वह मुझे सुनाते आए थे. उसका हीरो ओमर शरीफ था, जिसकी मैकन्नाज गोल्ड तो गजब ही थी. जब उसमें सोने की चट्टान का सीन आया तो आँखे चुँधिया गई. महेश दा अक्सर कहते कि फ़िल्म की जान स्क्रिप्ट होती है जिस पर ये डायरेक्टर खूब मेहनत करते हैँ. अब देखो कैसे पहाड़ों पर चढ़ मैकन्नाज गोल्ड फिल्मा दी. कितना रिस्क कितनी मेहनत और टेकनिकली साउंड. तभी तो ऑडीयंस पसंद करती है इन्हें.
अब इन फिल्मों को देखने की हौस तो हर बखत होती पर ये समझ में कहाँ आतीं. इसलिए अपनी हिंदी वाली फ़िल्में ही भाती जो खोपड़ी की हर नस तक घुसती. पूरी पिक्चर में खाने को मूंगफली चना-वना हो, मुँह चलता रहे, सीटी पाड़ने की आजादी हो. परदे पर कभी दारा सिंह की फाइट हो, कहीं वो किंग कॉंग दिखे जो जब हनुमान बनता तो बिल्कुल पंजाबी बानर हो जाता. नारद बनने का ठेका तो जीवन ने ले रखा था. एक शेख मुख़्तार याद आता है, बड़ा लम्बा-चौड़ा बदसूरत जो झटके दे-दे, एक ही टोन में डायलॉग बोलता. ए एन अंसारी भी था जो दाँत पीस के संवाद चबाता था, टकलू था अपनी हर फिल्म खुद डायरेक्ट करता था सस्पेंस वाली. ऐसे जासूसी नॉवेल की भी मुझे आदत पड़ गई थी, इब्ने सफी तो उस समय के गुलशन नन्दा से बहुत ही बेहतर लगता.
दीप मुझसे कुछ कह रहा था,’आज जा के स्वामी जी से भेट-घाट का टाइम आया. मैं भी महीनों पहले मिला था कैलाश भोजनालय में जो नागा बाबा का था. ईजा बाबू तब अल्मोड़ा गये थे. अकेला ही था घर में तो रात का खाना उसी होटल में कर लेता. उसके मालिक होते थे रामेश्वर दयाल वत्स. घूमने घामने के शौकीन. खूब बातें करते उन्होंने ही स्वामी जी के बारे में बताया, स्वामी जी अपने बारे में चुप ही रहते. फोटो-वोटो खींचने में भी नाराज हो जाते.’ दीप ने स्वामी जी के बारे में मुझे पहले भी बहुत कुछ बताया था जो उसने नागा बाबा के नाम से प्रसिद्ध रामेश्वर दयाल जी से सुना था.
स्वामी जी तो खोजी थे. देश में आजादी की लहर थी इस लहर में वह निकल पड़े देश के हर प्रान्त की ओर जहां की बोली अलग थी, भाषा अलग थी, जहां रहने वालों की नस्ल अलग थी, वर्ण अलग और कई सम्प्रदायों में बंटे लोग अलग-अलग जाति और धर्म को मानने वाले. स्वामी जी हिमालय की ओर चले,उनके साथ ऐसे लोग जुड़े जो आम लोग भले ही रहे पर उनके अंदर गुलामी की हीन भावना से जूझने और गुलामी की धारा के विरुद्ध अलख जगाने लायक की रीढ़ थी, मात्र राजनीति में लिप्त रह सत्ता में लिप्त रहने का मोह और लालच न था बल्कि इससे आगे की वह थात थी जिसने पीछे चलने वालों के लिए उन्होंने रास्ता तैयार कर दिखाया.
(Pithoragarh People Memoir Mrigesh Pande)
स्वामी प्रणवानन्द के बारे में ये सारी आउटलाइन दीप ने खींच रखी थी. फिर डॉ रामसिंह ने इतना कुछ बताया कि मेरे मन में उनकी काया देखने की इच्छा खूब बढ़ गई.राम सिंह जी ने पिथौरागढ़ ऐंचोली से ऊपर पहाड़ी पर जाती कच्ची सड़क में करीब एक किलोमीटर आगे पेड़ों से घिरी जगह पर अपना दुमंजिला भवन बनाया था जिसमें छुट्टियों के दिन मेरा काफी आना-जाना होता रहता था. फिर छुट्टियों में रामसिंह जी जहां भी अपनी खोजबीन को जाते मुझे भी ले जाते और मैं उन जगहों की फोटो खींचता. उनका बड़ा लड़का भारत उनका कारखाना लौह लक्ष्मी संभालता और बड़ी बेटी नीरप्रभा महाविद्यालय की खूब मुखर छात्रा थी. दो भाई बहिन अभी इंटर तक की पढ़ाई में थे.
रामसिंह जी जहां अपनी खरी बात और जाँच पड़ताल से दिमाग खोल देते तो उनकी पत्नी पहाड़ का स्वाद सादा खाना इतने प्रेम से खिलाती कि उनके घर जाने का कोई अवसर मैंने चुकाया नहीं. वह खूब धार्मिक पूजा पाठ वालीं थीं. बर्त भी रखतीं थी पर राम सिंह जी इन सब को टँटे बाजी कहते. वह तो प्रकृति के उपासक थे.उनके बाग में तमाम पहाड़ी फलों के पेड़ थे, क्यारियों में सब्जी रहती. हल्दी-अदरख होती और यहाँ-वहां सरफर करता कुत्ता. स्वामी जी की किताब ‘कैलास मानसरोवर’ डॉ रामसिंह ने मुझे पढ़ने को दी थी और शेरिंग की ‘हिमालयन तिब्बत एंड वेस्टर्न बोर्डरलैंड’ भी. बड़ा टाइम लगा था इन्हें पढ़ने में तो मैंने थोड़ा थोड़ा कर नोट्स बना लिए. नोट्स बना लूं तो याद भी हो जाता था.
रामसिंह जी के भीतर खोजबीन और तर्कपूर्ण नतीजे रखने की वृति थी. ऐसे इतिहासकारों को वह खूब खरी खोटी सुनाते जो खाली मूली अंदाजे से ऐसा हुआ होगा कह किसी नतीजे पर पहुँच जाते, जनश्रुति है और लोगों का कहना है कह, यहां-वहां से टीप-टाप इतिहास पर लेख और किताब छाप अपना नाम खुद ही रोशन करते. पहाड़ व हिमालय पर डॉ रामसिंह के लेख दिनमान और हिंदुस्तान, धर्मयुग में छपते थे. उनकी देखदेखी दिनमान में मैंने भी वन रावतों पर लेख भेजा जो तुरंत छप भी गया. साप्ताहिक हिंदुस्तान में नैन सिंह सर्वेयर पर रामसिंह जी का लेख पहला था जिसने खूब सुगबुगाहट पैदा की. राम सिंह जी ने बताया कि जब वो 1967 में मार्च के महिने में मुंसियारी इंटर कॉलेज के पैनल निरीक्षण के लिए गये तब वहां प्राचार्य पिथौरागढ़ के ही खूब पढ़ाकू और खोजबीन में लगे रहने वाले श्री कविन्द्र शेखर उप्रेती थे. उनके संग्रह में पंडित नैन सिंह की स्वहस्तलिखित भौगोलिक अन्वेषण से सम्बंधित यात्रा विवरण थे. उप्रेती जी ने वह सब पाण्डुलिपियाँ डॉ रामसिंह को पढ़ने को दीं. रामसिंह ने सब अपने हाथ से लिख कॉपीयों में उतारीँ. तब फोटोकॉपी करने की सुविधा पिथौरागढ़ में थी भी नहीं. उनके आधार पर छह साल बाद, साप्ताहिक हिंदुस्तान के सैलानी अंक, मई 10, सन 1973 को उनका लेख, ‘भारतीय अन्वेषक पंडित नैन सिंह (वामनावतार) प्रकाशित हुआ. उससे लोगों को पता चला कि पंडित नैन सिंह ने पांच सर्वेक्षण यात्राएं कीं जिनमें से काठमांडू से ल्हासा होते मानसरोवर वाली पहली यात्रा व लेह-ल्हासा-तवांग वाली पाँचवी व आखिरी रिपोर्ट इनमें न थी.
डॉ राम सिंह बताते हैं कि इस सीमांत प्रदेश से कैलास मानसरोवर की पूरी जानकारी जहां स्वामी प्रणवानंद ने अपनी यात्राओं के जरिये दुनिया के सामने रखी जो आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी से तत्कालीन संयुक्त प्रान्त आगरा और अवध जिसे अब उत्तरप्रदेश कहते हैं के आखिरी उत्तरी छोर पर स्थित अल्मोड़ा जिले के सीमांत में आ बसे और जिनने कैलास-मानसरोवर इलाके तक लगातार तेइस बरस तक व्यापक भ्रमण किया,अनुसन्धान किया. वहीं पंडित नैन सिंह का जन्म सीमांत की उस आखिरी बस्ती मीलम में हुआ जो भारत- तिब्बत व्यापार की सदियों पुरानी मंडी थी और जिसे अब चीन के द्वारा तिब्बत की स्वतंत्रता के अंत से उजाड़ दिया गया है.
भारतीय उपमहाद्वीप को लाल रंग से पोतने से पहले मध्य हिमालय का यह इलाका एक स्वतंत्र राजतन्त्र की सीमा में आता था और ‘कुमाऊँ’ या ‘कुमौ’ कहलाता था. यहाँ चन्दवंशीय राज था जो 1791ईस्वी में नेपाल के गोरखा शासकों के हाथ में आ गया. फिर 1815 ईस्वी में ईस्ट इण्डिया कंपनी ने कुमाऊँ में अपना झंडा गाड़ दिया.
पिछली कई सदियों से मिलम सीमावर्ती क्षेत्र का सजग पहरेदार रहा जहां के साहसी निवासियों को तिब्बत और उससे लगे तमाम चीन, तुर्किस्तानऔर दक्षिणी रूस के संसाधन संपन्न छोटी-बड़ी राजनीतिक इकाईयों की व्यापारिक और राजनीतिक गतिविधियों की अच्छी समझ थी. गढ़वाल और कुमाऊँ के स्थानीय शासकों के इन सीमावर्ती मंडियों के निवासियों के माध्यम से तिब्बत और उसके पडोसी देशों के साथ परंपरा से व्यापारिक सम्बन्ध भी चले आ रहे थे. कुमाऊँ-गढ़वाल के सदियों पुराने सम्बन्ध और कूटनीतिक जानकारियां भी विरासत में अंग्रेजों के हाथ लग गईं. उनको तिब्बत के भीतरी भू भागों तथा उसके पड़ोसियों के बारे में पर्याप्त जानकारी रखने वाले ‘शौका जनों’’के संपर्क से अपना स्वार्थ साधने का स्वर्णिम अवसर भी मिल गया.हिमालय के संसाधनों को हड़पने की गिद्ध दृष्टि से उत्तर भारत के अधिकांश भू भागों को कंपनी ने अपने शासन के अधीन कर लिया था.
हिमालय व हिमालय पार के इलाकों का भौगोलिक सर्वेक्षण कई पाश्चात्य अन्वेषकों ने किया इनमें विलियम स्पेंसर वेव (सन 1808), पशुचिकित्सक विलियम मूरक्राफ्ट (सन 1812), कुमाऊँ-गढ़वाल विजय के बाद जॉर्ज विलियम ट्रेल (सन 1816से 1832),थॉमस लुसिंगटन (सन 1838से 1848), कैप्टन वी. टी. मांट गोमरी (सन 1865), थॉमस-थॉमसन (सन 1866), श्लाग इट वाइट बंधु (सन 1854-58) मुख्य थे परन्तु सबसे प्रामाणिक योगदान की मान्यता पंडित नैन सिंह को मिली.
28 फरवरी 1856 को जर्मन खोजी श्लाग इट बाइट बंधुओं, एडोल्फ व हरमन से पंडित नैन सिंह का परिचय लद्दाख व तुर्किस्तान की यात्रा की तैयारी करते समय हुआ. पंडित नैन सिंह को साथ रखने की सहमति उन्हीं के परिवार के एक बिरादर ‘माणी कंपासी’ ने दिया जो ‘मनबुड़ो-पेशकार’ के नाम से कुमाऊँ में प्रसिद्ध हुए. इस दल के साथ नैन सिंह ने कुछ समय तक सर्वेक्षण किया फिर वह अपने सीमांत में लौट प्राइमरी पाठशाला में अध्यापक बन गये. फिर 12 जनवरी,1863 को उन्हें सर्वे विभाग में नौकरी मिल गई. फिर सन 1864 से मार्च 1875 तक वह ट्रिग्नोमेट्रिकल सर्वे की सक्रिय सेवा में लगे. इन ग्यारह वर्षों में मध्य एशिया व तिब्बत के बारे में उन्होंने विस्तार से वैज्ञानिक सूचनाएं एकत्रित कीं. नि:संदेह वह सरकारी सेवक थे पर उन्होंने अपनी खोजों और अनुभवसिद्ध अवलोकनों को जनसामान्य के लिए अपनी भाषा में लिखा भी. उनके साथ उनके चचेरे भाई किसन सिंह और कल्याण सिंह नाम के दो सहयोगी लगातार रहे.उनकी ‘रपोट यारकंद’ मध्य एशिया के तमाम देशों के व्यापारिक मार्गों की वह दास्तान है जिससे उन रास्तों की पहचान बनी जिनसे हो अंग्रेज कराकोरम और पामीर के पार पश्चिमी चीन, दक्षिणी रूस और ईरान की सीमा के उत्तर के मध्य बसे छोटे- छोटे देशों तक अपनी पहुँच बना गये और ऐसा रास्ता भी पा गये जो अफगानिस्तान और कश्मीर के महाराजा के इलाकों से हो गुजरता था.. यह मार्ग प्राचीन रेशम मार्ग से भी जुड़ा था.
यारकंद का सीधा सम्बन्ध ब्रिटिश भारत से नीती और माणा के गिरद्वारों से बना. उनके यात्रा उल्लेख विवरण और चर्चाएं कलात्मक व प्रवाहमय हैं.भौगोलिक तथ्यों के संकलन में वैज्ञानिक खोजबीन के साथ उन्होंने मानव भूगोल की विषय वस्तु का रोचकता व ह्रदयग्राहिता से समावेश कर उपयोगी जानकारियों के संचय व संग्रह से आगे सहानुभूति व संवेदना से प्रसूत लोगों के दुख, पीड़ा व दुनिया से कटे-फटे होने की विडंबनाओं का मार्मिक चित्रण भी किया है. बच्चों को अक्षाँश-देशांतर सम्बन्धी जानकारी देने हेतु उन्होंने ‘अक्षाँश-दर्पण’ लघु पुस्तिका भी लिखी.
पंडित नैन सिंह के द्वारा की गई लम्बी यात्राओं का जो वृतांत है उसमें स्थलों की वास्तविक भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक दृश्यों का सौंदर्य, मानव बस्तियों के विस्तार, उद्योग-व्यवसाय, इतिहास, कला और संस्कृति से सम्बंधित बहुविध विवरणात्मक-तथ्यपरक सूचनाएं अंकित की गईं हैं.
(Pithoragarh People Memoir Mrigesh Pande)
तुम इस इलाके में जाने, पहाड़ को चढ़ने और छायाँकन का शौक रखते हो तो यहाँ के बारे में जो लिखा गया है उसे जानो, पढ़ो, सुनो. तब जा कर वह सिलसिला बनेगा जिससे कहीं भीतर तक तुम इस हिमालय को छू पाओगे. इसलिए भी सीमांत के इस इलाके की खोजबीन में पंडित नैन सिंह की परंपराओं को आगे बढ़ाने में स्वामी प्रणवानन्द सरीखे खोजी परिज्रावक का योगदान समझना भी जरुरी है.
रामसिंह जी ने बताया कि स्वामी प्रणवानंद ने वैज्ञानिक विषयों पर शोध-अनुसन्धान की नवीनतम प्राविधियों व मेथोडलॉजी का कोई विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया था. न ही वह किसी के अधीन हो किसी नियम से बंधे. वह तो बस उन पथों की पहचान करते थे जो कैलास की तरफ जाते हैं. फिर ये मध्य हिमालय तो रहा ही ऐसा जहां देश भर से ज्ञानी ध्यानी आए,कोई कवि था, परिज्रावक के चोले में खोजी था, आस्था और विश्वास की कड़ी पिरोता संत था, कोई यहाँ के फ्लोरा-फोना की छानबीन करने वाला, यहाँ की चिड़िया यहां के पक्षियों की बात समझने वाला विशेषज्ञ. यहाँ रविंद्र नाथ ठाकुर आए, विवेकानंद और रामतीर्थ के चरण पड़े, स्वामी सत्यदेव परिज्रावक, राहुल साँकृत्यायन, सालिम अली की कड़ी में स्वामी प्रणवानंद का योग कैलास-मानसरोवर के यात्रा पथों की खोज में प्रामाणिक रहा. उनके लेखन में धार्मिक विवरण, दंत कथा, अन्धविश्वास व रूढ़ि वादी प्रकरण से हट हिमालय की भू संरचना, जलवायु, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, जीव-जंतु, नृतत्व, इतिहास व पुरातत्व को अधिमान दिया गया. उनकी खोजबीन और नतीजों से रॉयल सोसाइटी ऑफ़ लंदन ने उन्हें अपना फेलो चुना. उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभव, निरीक्षण, परीक्षण, गहन पर्यंवेक्षण से भारत तिब्बत के सीमांत की जिस तल्लीनता से जाँच पड़ताल की उसे वैज्ञानिकों ने अकाट्य पाया. भारत सरकार ने उनकी प्रशस्ति में उन्हें पद्मश्री से विभूषित किया.
एक खोजी तेइस साल तक भारत के सीमांत से तिब्बत होते कैलास-मानसरोवर के चप्पे-चप्पे पर अपने कदमों के निशान छोड़ रहा हो और अपने गुरू स्वामी ज्ञानानंद के सूत्र ‘अंर्तरात्मा की पुकार और खोज बीन की लालसा’ में अपना सम्पूर्ण हिमालय को समर्पित कर एकनिष्ठा से जुटा हो तो उस पर कृपा तो बरसेगी ही. अपनी सूरत और वेश भूषा से वह बाबा जैसा भले ही लगे पर न तो वह कभी किसी धार्मिक चर्चा में शामिल होता और न ही आध्यात्मिक आदर्श में उलझता. यायावरी उसका स्वभाव थी और सम्बंधित सन्दर्भ साहित्य का अध्ययन मनन कर लेखन उसका शौक. उन्हें कभी गपबाजी करते या निरुद्देश्य बहस करते उन संगियों ने भी न पाया जिनके पास, जिनके समीप वह रहे.
अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ में वह करीब साठ साल तक रहे. पहले एडवोकेट रामदत्त चिलकोटी के घर और फिर सिलथाम में जनार्दन पुनेड़ा के यहां. चिंतन-मनन-लेखन में डूबे स्वामी जी की मुख मुद्रा गंभीर रहती. फालतू की बात छेड़ने वालों को वह डपट देते. अंध श्रद्धा व रूढ़िवादी बात कहने वालों को लताड़ लगाते. हर कोई उनसे बात करने क्या सामने जाने में संकोच करता था. लोगबाग उन्हें दुर्वासा जैसा क्रोधी मानते थे, यह जान वह कहते कि यह अच्छा है कि इससे फालतू लोग उनका समय नष्ट नहीं कर पाते. स्वामी जी अपनी सेहत का खूब ध्यान रखते. उन्हें भेषजोँ व जड़ी-बूटियों का खूब ज्ञान था और आयुर्वेद पर पूर्ण विश्वास. स्वामी जी गृहस्थ थे, अपनी जिम्मेदारियों को निभा वह परिवार का मोह त्याग बस हिमालय की अस्मिता की पहचान में जुट गये थे.
स्वामी जी के बारे में बताए कई प्रसंग मेरे मन में इस कौतुहल के साथ आ रहे थे कि बस अभी उनसे भेंट होगी. बहुत नजदीक से उन्हें देख पाऊँगा. अभी गाँधी चौक को जाती सड़क पर खूब चहल पहल थी. ऊपर सब्जी की बड़ी दुकान में उसके मालिक पुनेड़ा जी से गपियाते अपने पांडेजी पुलीसिया दिखे.खिलखिलाते हँसते मुस्काते जीवंत. उनके साथ जिला लाइब्रेरी के रणवीर सिंह पांगती भी थे. हमेशा की तरह बंद गले के कोट में. ऊपर की जेब में कई पेन, व कंधे के नीचे बांह के बंधन में गोल लपेटे अखबार. उन्होंने मुझे देख लिया. अब दोनों हमारी तरफ ही नीचे को उतरने लगे. पांगती जी महज लाइब्रेरी के कुशल इंचार्ज ही न थे बल्कि खूब पढ़ाकू भी थे. आँखों में डबल लेंस का चश्मा चढ़ा रहता. रुमाल से बार बार आँखों को पोंछने की आदत थी उनको. मैंने उनको बताया कि रोज होमियोपैथी की सिनेरेरिया मारेटिमा की बूंदे डालें जो सिनेरेरिया के रंग-बिरंगे छोटे फूलों से बनती है. उनको ऐसी फली कि अब उनके बंद गले के कोट की जेब में वह स्थायी वास पा चुकी थी.
पांगती जी ने जिला लाइब्रेरी से स्वामी जी की किताब देते मुझे बताया था कि स्वामी जी का असली नाम कनकदंडी वेंकट सौम्याजुलू था और वह आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी वाले स्थल के हैँ जहां सन 1896 में उनका जन्म हुआ. आगे मैं जाना कि लाहौर के डी ए वी कॉलेज से उन्होंने स्नातक की उपाधि ली. आर्य समाज की संस्थाओं से जुड़ स्वाधीनता संग्राम में युवकों की प्रबल भागीदारी की और आजादी के मतवाले बने. अपनी पढ़ाई पूरी कर युवा वेंकट ने सरकारी सेवा की पर यह उन्हें गुलामी का बंधन लगी. अब वह स्वाधीनता संग्राम में असहयोग आंदोलन में सक्रिय हुए. चौबीस वर्ष की आयु से वह लगभग छह वर्ष तक पश्चिमी गोदावरी जिले में कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्त्ता रहे. फिर अपने गुरूजी ज्ञानानंद की प्रेरणा से उन्हें एक नया नाम-नई कार्य दिशा प्राप्त हुई.
डॉ राम सिंह जी के घर पर स्वामी जी पर लेखों का संग्रह जिल्द बाँध कर रखा था.अभी वह रफ था और वह उस पर काम कर रहे थे. वह उन्होंने मुझे पढ़ने को दिया. उनमें कुछ शोध लेख भी थे तो देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं पर हिमालय की चिंताओं पर मनन-चिंतन की गुंजाइश वाले आर्टिकल भी. राम सिंह जी तमाम लीप पोत कर साधु सन्यासी बने ढोंगियों पर कटाक्ष कर असली साधना उसे मानते जो स्वामी जी कर गये.
(Pithoragarh People Memoir Mrigesh Pande)
ये सारे आयाम सिर्फ ऐसा ही व्यक्तित्व समेट सकता है जो साधक हो और स्वामी जी ने अपनी साधना स्थली चुनी हिमालय. हिमालय और उसकी अस्मिता. उन पथों पर चढ़ना, बस चलते ही जाना जो कई गिरिद्वारों को पार कर शिव के वास की ऊर्जा का संचरण करती है.
उन्होंने श्रीभगवत् गीता का तेलुगू भाष्य किया. भारतीय तंत्र साधना में “श्री यँत्र” पर गहन अनुसन्धान कर गढ़वाल में चमोली जनपद के नौटी ग्राम स्थित सिद्धपीठ में स्थापित किया. उन्होंने “मेरु यँत्र” पर भी कार्य किया. सोलह हजार फिट की ऊंचाई पर रुपकुण्ड के सदियों पुराने अवशेष की जानकारी लखनऊ विश्व विद्यालय के नृवंश शास्त्री प्रोफेसर मजूमदार के द्वारा सबको ज्ञात होने पर स्वामी प्रणवानन्द ने जो कंकाल वहां से एकत्रित किये उनके लिए राज्य संग्रहालय लखनऊ में एक विशेष प्रकोष्ठ बनाया गया. इसके अतिरिक्त उन्होंने तिब्बत की पांगटा इलाके की परित्यक्त गुफा बस्ती का पुरातात्विक अध्ययन, भागलपुर के पास प्रागैतिहासिक गुफाओं की खोज, तिब्बत की नदी-घाटियों व झीलों के जीवाश्म पर पूरी खोजबीन की. उनके पास देश के जाने माने पुरालिपि शास्त्रियों व पुरातन धातु के सिक्कों पर काम कर रहे विद्वानों के नाम पते थे जिनसे संपर्क कर उन्होंने कई शंकाओं का समाधान किया.
सीमांत के उच्च इलाकों में कस्तूरा मृग, बाघ, हिम तेंदुआ, भालू व अन्य जानवरों का अवैध शिकार तेजी से बढ़ रहा था. साथ ही भारत-नेपाल सीमा पर पर्यटन व शोध अनुसन्धान की आड़ में देश की महत्व पूर्ण सूचनाओं के आदान प्रदान में विदेशी ख़ुफ़िया एजेंसियां भी अपने मुखबिर फैलाये रखतीं थीं. ऐसी घुसपैठ पूरी तिब्बत-नेपाल सीमा पर थी. स्वामी जी भारत-तिब्बत सीमा क्षेत्र के विशेषज्ञ के रूप में जाने जाते थे और इस सम्बन्ध में दिखने वाली समस्याओं पर सरकार उनसे सलाह मशविरा करती रही.
राम सिंह जी ने बताया कि पिथौरागढ़ से बाहर जा उच्च अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों की वह देश भर में फैले अपने संपर्क से खूब मदद करते थे. लखनऊ मध्य रेलवे में उनके चेले लक्ष्मी नारायण गुप्त का कृष्णा नगर में आवास था जिसमें वह अक्सर ठहरते. पिथौरागढ़ से आए छात्रों से अक्सर सम्पर्क बनाए रखते.
स्वामी जी के जीवन की विविधता व उनके लेखन की गहराई के बारे में डॉ राम सिंह ने मुझे बहुत कुछ बताया. डॉ रामसिंह से कॉलेज में रोज ही भेंट होती. डॉ रामसिंह हमेशा खादी पहनते. उनके साथ जब दो चार दिन की लम्बी यात्रा पर जाना होता तो गांव-गांव उनके लोगों से घनिष्ठ रिश्ते देख मुझे अचरज भी होता था. उनका खूब स्वागत सत्कार होता. गुमदेश की उनके साथ हुई यात्रा बड़ी कठिन उतार चढ़ाव वाली थी कितने किसम की कंटीली झाड़ियां, कुरे-किरमोले, उबड़-खाबड़ ढुँगों से बिछे रास्ते जिस पर वह गाँधी आश्रम की चमड़े की चप्पल और धोती पहन लमालम चलते गये. ऊपर कुरता, बंडी, सफेद ऊनी स्वेटर, जैकेट, लम्बा मफलर होता. कहते ठंड तो कान और सीने में लगती है, इसलिए ये ढके-छुपे हों. अपने झोले में भुने चने और गुड़ रखते जो चलते- चलते मुझे भी खाने को मिलते. कहते लोग काजू-बादाम खा तो जाते हैँ पर उसे पचाने का परिश्रम नहीं करते. बैठे-बैठे पादते रहते हैँ. फालतू की बातों व आपसी चकल्लस में वह कभी नहीं उलझते. महाविद्यालय की मीटिंग में भी अपनी राय बेबाक हो देते भले ही वह उच्च अधिकारियों के खिलाफ ही क्यों न हो. कुर्सी पर बैठे-बैठे सो भी जाते, मुझे लगता ध्यान कर रहे, यही तो योगानंद जी का क्रिया योग है.
उनके घर जाने-माने लेखक और विद्वान आते, सभी बड़े सरल सहजता से भरे. वाचस्पति और चित्रकार हरपाल त्यागी से मेरी भेंट उनके ही घर हुई. उनके कारखाने लौह लक्ष्मी में भी कारीगर, मजदूरों, मशीनों की खटपट के साथ इतिहास के अनुभव सिद्ध अवलोकन की कार्यशाला लगी होती. वह एक तरफ सामान का बिल बनाते तो दूसरी तरफ अपनी तेज साफ लिखावट से रजिस्टर के पन्ने भर रहे होते.
सारी चीजें जुड़ते जुड़ते अब स्वामी प्रणवानंद जी के दर्शन का सुयोग पाने की प्रतीक्षा में थीं. दीप और अपने रणवीर सिंह पांगती जी को पुलिसिया पांडेजू कोई मजेदार किस्सा सुना रहे होंगे तभी तीनों की खीसें तन-सिकुड़ रहीं थीं. हिरदा अभी होम्योपैथिक साह जी के यहाँ से लौटे नहीं थे. पुनेठा जी की दुकान से ऊपर गुप्ता जी घड़ीसाज के पास हिरदा के इंतज़ार में मैं राम सिंह जी और स्वामी जी की तुलना में मगन था. तभी तेज गति से चलता एक लौंडा अचानक ही मेरा जूता छू ऐसा लोटपोट हुआ कि मैं तो गिरते-गिरते बचा. खुद को संभालते हुए उसे भी सीधा किया. अरे ये तो कैलाश पंत है. कॉलेज में बी. ए. का विद्यार्थी. नाटकों के पीछे पागल. खुद ही लिखता और डायरेक्ट भी करता. हुनर वाला कि नाटक में पात्रों की भीड़ इकट्ठा कर देता. परिधान जुटा लेता और रामलीला में मेकअप करने वाले तो उसके एक इशारे पर किसी भी पात्र को रंगबिरंगा बनाने का मौका न खोते. सब रामलीला में बानर, सीता-राम, रावण-परशुराम की लीपापोती का प्रशिक्षण जो पाए थे. अपने शहर में पारसी थिएटर और नौटंकी का मिला जुला प्रतिरूप दे धाकड़ एक्टर-डायरेक्टर-प्रॉड्यूसर की हैसियत बना चुका था कैलाश.
इस बीच जब महाविद्यालय में अलग-अलग विभागों की नाट्य प्रतियोगिता हुई तो उसमें अर्थशास्त्र विभाग का नाटक चक्रव्यूह प्रथम घोषित हो गया,जो मैंने लिख मारा था.उसका नायक एक अति सीधा-सादा पहाड़ का युवा था जो पढ़ लिख अपने गांव में विकास की लहर लाने के लिए आखिरकार कॉलेज का चुनाव जीत ठेकेदार य माफिया बनने की अपेक्षा विधान सभा चुनाव में इंडिपेंडेंट उम्मीदवार बनने की सोचता है है और फँसता है राजनीति के चक्रव्यूह में. फिर लाल झंडे के नीचे आ एक लाला की फैक्ट्री के आगे धरना प्रदर्शन करता है जहां लाला के गुंडे उसके प्राण पखेरू उड़ा देते हैं.ऍम ए अर्थशास्त्र के पढ़ाकू छात्र भुवन जोशी ने अपने स्वाभाविक अभिनय से,तो इतिहास के छात्र भूपेंद्र तिवारी ने मुख्य खल पात्र सेठ बाजोरिया की कुटिल भूमिका से सबको प्रभावित कर डाला.बड़ी वाहवाही हो गई.
(Pithoragarh People Memoir Mrigesh Pande)
नाटक जब खतम हुआ तो कैलाश पंत आया और बोला जिसकी खोज मैं करते रहा वह आज मिली गुरूजी. बस अब तो आप मुझे खर-पीर,बावर्ची-भिश्ती कुछ भी बनाओ बस चेला बना लो. मुझे अपने नाटकों में ले लो प्रभू!
अब कुछ ही अरसे पहले बना चेला यूँ सरे आम पाँव पड़ेगा ये तो न सोचा था. दीप ने मुझे कैलाश के बारे में बताया था. कई बहिनों का एकमात्र भाई है. यहीं धर्मशाला लाइन में घर है. आटे की चक्की है. अभिनय-रंगमंच की भस है जो गेहूं पीसते उसे दुखी बना रही तो बीच-बीच में सुट्टा भी फूँक लेता है. चक्की में आटा पीसते सुर भी लगा रहता है और मनोहर कहानियों के साथ आज़ादलोक के अध्ययन का निचोड़ भी दिमाग पूरी तरह सोख लेता है.
‘आप गुरु जी नामिक गये और मुझे बताया ही नहीं. वो सोबन को ले गये. उल्लू के पट्ठे की तकदीर खुली’. फिर अपनी जीभ बाहर निकाल दाँत से काट सॉरी भी बोल गया.
‘अरे कैलाश, वो अचानक ही जाना हुआ, हम भी रात रहते चल पड़े’.
आइये गुरूजी आपको ये कान्हा की दुकान में गरम पकोड़ी खिलाऊं, ना मत कीजियेगा’. उसने आदेशात्मक निवेदन किया.
‘हम सब अभी ऊपर पुनेठा जी के यहाँ स्वामी प्रणवानन्द जी से मिलने जा रहे. पकोड़ी फिर खा लेंगे’
‘अरे स्वामी जी के चरण छूने तो मैं भी चलूँगा. वो तो मुझे खूब जानते हैं’. कह कैलाश ने अपने कपड़ों पर हाथ मार स्वेटर-कमीज दुरुस्त की फिर ऊपर जेब से कंघी निकाल बाल सेट करने लगा. बाल उसके खूब घने स्टाइलिश थे जरा झटका लगे तो आगे से एक आध गोल लट झूम जाये. चिकने हीरो विश्वजीत की तरह.
‘आओ हो, चलो ऊपर ‘. गुप्ताजी घड़ीसाज से बात निबटा अब पुनेठा जी हमें धाल लगा रहे थे.
हम सब ऊपर पुनेरा जी की बीजों की दुकान तक बढ़ लिए थे. अभी उनके बड़े सुपुत्र जगदीश गद्दी पर थे जो संगीत रसिक के साथ जागृति कला केंद्र के स्थायी आर्टिस्ट व रामलीला के व्यापक कार्यकर्त्ता थे. उनका छोटा भाई दुकान के बाहर कुछ ग्राहक निबटा रहा था. ज्ञान-विज्ञान के ऐसे सवाल वह पूछ बैठता कि अक्सर उसे टालना पड़ता. अभिनय के कीड़े भी उसके भीतर खूब मचलते थे.
‘ये भाऊ,आगे से वो सीढ़ी हैं, उन से चढ़ना है दुमंजिले. जरा मेरा हाथ भी थामो. दुकान में भेटे-भेटे नसें भी तो सिती जाने वाली हुईं.’पुनेठा जी ने मेरा हाथ थाम लिया.
दुमंजिला चढ़ आगे बड़ा सा गालियारा दिखा जहां अख़बारों के पुराने गट्ठर सुतली से बंधे पड़े थे.अखबार का फ्रंट जहाँ नाम तारीख होती है काट कर अलग गड्डी में थे. पत्र पत्रिकाओं के ढेर थे. दीवारों पर कलात्मक सज्जा से फ्रेम की गयीं फोटो थी. इनमें कई बाबा और साधु संतो की फोटो भी थीं. पदमासन में बैठे महावतार बाबा की फोटो छोड़ कर और सारे संतों की छवि में मैं और किसी को नहीं जानता था. ठीक सामने बड़ा तखत था जिस पर दन बिछा था और उसमें पीठ के पीछे लकड़ी के पटल पर पीठ टिकाए स्वामी प्रणवानन्द विराजे थे. साँवले से चेहरे पर कमरे में जले बल्ब के पीले से प्रकाश में वह और गंभीर लग रहे थे. उनके साथ सामने की कुर्सियों में तीन चार और लोग भी थे. उनमें चिलकोटी जी और रमेश चंद्र पांडे जी वकील साब से मेरा परिचय पहले हो गया था. उनके बायें पनामा वाले भसीन जी थे और सुकोली गांव वाले पांडे जी. हम लोगों को देख उनके बीच चल रही बातचीत में विराम आ गया. पुनेठा जी उनके साथ तखत में ही टेक लगा बैठ गये.
दीप और मैंने स्वामी जी के पाँव छुवे. उनका हाथ उठा और कई पलों तक मेरे माथे पर रहा. हाथ का स्पर्श काफी खुरदरा सख्त सा था.
‘ये दोनों पहाड़ घूमने फिरने के खूब शौकीन हैं. अभी नामिक गये थे. दस दिन लगा के आए हैं. दीप जी पंत से तो पहले भी भेंट हुई है अब ये पंडित जी भी आए हैं कॉलेज- इकोनॉमिक्स पढ़ाते हैं. दोनों नैनीताल वाले हैं. कब से पूछ रहे थे आपको’. पुनेठा जी ने हमारा परिचय दिया.
स्वामी जी ने हाथ से बैठो का संकेत दिया. और कुर्सियां तो काफी पीछे थीं इसलिए दीप ने वहीं बैठने का संकेत दिया तखत से एक फुट की दूरी पर जमीन में बिछी दरी पर हम बैठ गये.
‘एस डी पंत की सोशल इकोनॉमी ऑफ़ हिमालय पढ़ी है तुमने? अंग्रेजों ने ही छापी थी ‘.
स्वामी जी की छोटी पर चिंगारी सी सुलगती गहरी नज़र एकटक मुझ पर टिक गई दिख रही थी.
‘हाँ ss, पढ़ी है मैंने. नैनीताल की दुर्गाशाह लाइब्रेरी में है वह किताब’ मैंने हामी भरी.
‘बहुत ऑथेंटिक सर्वे है उनका, पहाड़ पर बुनियादी काम जो इसे जानने अंडरस्टैंड करने में मदद करता है. आगे बढ़ाता है, बाकी तो अंग्रेज कमिश्नर ही लिख गये हैं अपने अपने हिसाब से.’
फिर जैसे कहीं खो गये हों. आंखे मुंद गईं. कुछ पलों के बाद उनकी गंभीर खरखराती तेज आवाज उभरी.
‘पहाड़ को घूमना है तो हिमालय को जानने की उत्कंठा, उसे समझने की बैचेनी भी होनी चाहिए. वहां रह रहे लोगों से उस जगह के बारे में जानने की ललक होनी चाहिए. कैसे लोग रहते हैं क्या दिनचर्या है कैसे जीवन यापन होता है? उनके सुख-दुख क्या हैं? इसे जानना जरुरी है’.
‘मैंने भी ऐसे ही शुरुवात की थी, कहाँ से कहाँ आ गया. कैलास तक पहुँच गया, हर बार नये रास्ते. हर बार कुछ नया मिला. नई बातें पता चली. देवलोक ‘त्रिविष्टप’ हिमालय-‘तिब्बत’ है. इसे ही देवता, ब्रम्ह ऋषि, सिद्ध, गन्धर्व, किन्नर,चारणों की भूमि माना गया. पुराण पढ़ो तो उसमें, ‘हिरण्यमय’ व ‘स्वर्ण भूमि’कहा गया जिस स्वर्ण को उस समय के पथों-सुवर्णगोत्र, अहिच्छत्रा, सुघ्न, मोयुलो और गोविषाण से लाया जाता था. ये सब रास्ते हमारे उत्तराखंड-तिब्बत के घाटों से हो कर जाते थे. तिब्बत की भूमि तो ‘कांचन भूमि ‘ कही जाती थी.ये रत्नोँ के ढेर वाला स्वर्ण क्षेत्र कहा गया. जहां की बालू भी स्वर्णमयी कही गई : ‘रत्नाना निचयस्त्रम सौवर्णी तंत्र’. वाल्मीकि रामायण में लिखा है: ‘हिम वानिव शैलेन्द्रा स्थिति कांचन पर्वते ‘.
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इतिहासकार हुआ है टॉलमी जिसने उत्तराखंड के सीमांत प्रदेश के निवासियों को ‘तंगण'(टंगण) कहा जिनका वास भागीरथी के पूर्वी तट या गंगा की उपरली धारा से सरयू या काली की उपरत्नी शाखा तक फैला था. तंगण को संस्कृत में टंकण कहा गया जो सुहागा है. इसका व्यापार करने वाले तंगण कहे गये जो यहाँ व्यापार करने वाले भोटान्तिकों के पूर्वज भी कहे गये. महाभारत में वर्णन है कि युधिष्ठिर के राजसूर्य यज्ञ में तंगण स्वर्ण पिपिलिका से निकाला गया सोना, काले व श्वेत चंवर, हिमालय का क्षुद्रा मधु, उत्तरकस देश से माला में पिरोने वाले रत्न व पवित्र जल व कैलास से महबला भेषज ले कर आए थे.कौटिल्य के अर्थशास्त्र के साथ ही ‘कादम्बरी’ और ‘आइने अकबरी’से पता चलता है कि भारत में जो सोना आता है उसका स्त्रोत तिब्बत रहा और रास्ते यही थे वह जो अपने सीमांत के प्राचीन परिपथ रहे.
‘स्वामी जी ये इस इलाके का नाम उत्तराखंड कैसे पड़ गया’?
स्वामी जी अपनी बात खतम कर बड़े स्टील के गिलास में घर के भीतर से आई चाय का घूँट ले रहे थे कि कैलाश पंत की आवाज आई जो पहले उनके चरणों तक तखत में झुका. मेरे से सट कर बैठा वह बड़े मनोयोग से स्वामी जी को सुन रहा था और उसने मेरे हाथ से कॉपी पेन ले कर बड़ी तेजी से नोट भी करना शुरू कर दिया था. मैंने देखा उसकी राइटिंग बड़ी साफ थी,गोल-गोल घूमी हुई. लिखते-लिखते पेन को छटकाने की भी उसकी आदत थी. मुझे हर बार हाथ छटकाने में लगता कि पेन की काली श्याही के छीँटे कहीं दीप की सफेद कमीज पर न पड़ जाएं. दीप ज्यादातर सफेद रंग की कमीज पहनता, रुमाल भी सफेद रंग का होता और उसके कमरे में टेबल कवर, तौलिया, बिस्तर की चादर भी सफेद ही होती.
‘एक रास्ता होता था पाटलीपुत्र से कपिशा को जोड़ने वाला. पाणिनि और आचार्य चाणक्य ने इसे “उत्तरपथ” कहा. तभी से पूरे उत्तर भारत के लिए यही नाम चला. अब पुराणों को देखें तो गंगाद्वार से श्वेत पर्वत या महा हिमालय और तमसा नदी जो टोंस के नाम से भी जानी जाती है और आगे बौद्धाँचल जिसे बधाँ भी कहा गया “केदारखंड” के नाम से जाना गया. इसके पूरब का जो इलाका है,जो काली नदी तक फैला हुआ है उसे “मानसखंड ” कहा गया. कुछ इतिहासकारों का कहना है कि ‘उत्तरापथ’ के पूर्वपद और ‘केदारखंड’ या ‘मानसखंड’ के उत्तरपद के मेल से “उत्तराखंड” नाम आया’.
बोलते बोलते स्वामी जी रुके और गले में लिपटे मफलर से होंठ पोछे.’गला बहुत खरखरा जाता है इस ठंडे में, कोहरा भी तो खूब लग जा रहा.’
‘मी भी गले से परेशान, घर वालों ने तो रोटी दाल में घ्यू डालना भी बंद कर रखा. अरे प्रोफ़ेसर, वो मेरी दवाई लाये होगे न स्योजू से होमियोपैथी वाली, स्वामी जी को चुसा दो. मेरी फिर आ जाएगी. हिरदा तुरंत उठ सामने आए, बोले मर्क सॉल है, आराम मिल जायेगा. शीशी के ढक्कन में ही उसकी गोलियां निकाल उन्होंने स्वामी जी के खुले मुँह में डाल दी. बड़े मनोयोग से स्वामी जी बच्चों की तरह गोलियां चूस रहे थे. हर तीन घंटे में लेनी है और ठंडे पानी का परहेज.
“सब ठंडी का असर है पर ठंडा ही चित्त में बसा है प्रोफेसर. कितनी बार कैलास हो आया ये रास्ते नाप दिए, नये भी मिल गये. अब देखो कुछ दिन अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ बैठूंगा और फिर निकल जाऊंगा. गले को तो आराम मिल गया इस गोली से.पर मुझे तो जाना है अभी उधर बाड़ाहाट होते जाड़ गंगा, निलांङ की ओर ऊपर, बैठो तुम बैठो प्रोफेसर.” हिरदा की दी दवा की शीशी उन्होंने अपनी फतुई की भीतरी जेब में रख ली.
हाँ, तो बात चली थी उत्तराखंड नाम की तो “कितने नाम हुए इस इलाके के, ‘ब्रम्हपुर’,’इलावृत्त’,’रुद्र’, हिमवंत’ और हिमालय तो हुआ ही.
‘हां, मैं कह रहा था कि इस उत्तराखंड नाम के बारे में, तो 1916 में पातीराम ने “गढ़वाल, एन्सिएंट एंड मॉडर्न” नामकी अपनी किताब में और 1918 में गोविन्द प्रसाद घिल्डियाल ने “अल्मोड़ा अखबार’ में इस इलाके को “उत्तराखंड और स्वयं को “उत्तराखंड वासी” लिखा’.
कैलाश की पेन लिखते हुई रुकी, स्वामी जी की ओर देखते उसने पूछा, ‘तो पहले से हिमालय में कौन कौन रहते आए? हम सब तो यहाँ बाहर से आए ना’
“हाँ, ये जरुरी है जानना. मोटा मोटी तो मंगोल, आर्य और कोल हुए यहाँ के रहवासी. उच्च हिमाला में मंगोल और तिब्बती हुए. मध्य के इलाके के रहने वाले खस हुए. माना जाता है कि आर्य जाति की ही अन्यतम शाखा के ये हुए, जिनका जीवन अलग-अलग किसम की जलवायु में बीता, जीने के लिए अपने को बनाए रखने के लिए उन्होंने बड़ा संघर्ष किया. उनकी वैदिक विधि-विधान वाले कर्मकांडी आर्यो से नजदीकियां न रहीं और न ही वैदिक कर्मकांड और धार्मिक अनुष्ठान कर पाने का समय ही था. जीने के लिए, उगाने-तोड़ने के लिए, वह तो प्रकृति के बीच जीने को विवश थे. प्राचीन साहित्य को पढ़ें तो पता चलता है कि हिमालय की जो मुख्य जन जातियाँ थीं उनमें-यक्ष, गन्धर्व,यवन, नाग, किन्नर, शक, हूण, कोल, किरात, कुलीन, पारद, पहलव,बरबर, तुषार, कम्बोज, विद्याधर, यवन, किरात, तंगण, परतँगण, और शक मुख्य थे. आदिम जाति में शिल्पकार, बाजगी, कोली, और ओढ़ मुख्य थे’.
‘हमारे इलाके के लोग तो भोटिया कह दिए गये जबकि ये…’
पीछे से एक सवाल उठा,आवाज जानी पहचानी सी लगी. पीछे पलट कर देख, टोलिया जी थे. धर्मशाला लाइन में कपड़े की दुकान तो थी दो भाइयों की, ये छोटे थे, वाचाल-खूब उपक्रम से भरे. जब तक अपनी बात सिद्ध न कर दें, बोलते रहते थे.’
‘हाँ बेटा, टोलिया. स्वामी जी ने हाथ का इशारा कर अपनी बात बढ़ा दी.” हिमालय की जो अलग-अलग परबत घाटियां हैं वहां के रहवासियों के नाम भी अलग अलग हुए. जैसे तिब्बत में रहने वालों को तुम्हारे कुमाऊं वाले,’हुणियाँ’ कहते थे तो तिब्बत को ‘हूण देश’. इसी तरह बुशाहरी लोग हिमालय के उच्च भू भाग को ‘कोची’ कहते रहे. इस हिमालय में अनेक पर्वत घाटियां हैं,तो वहां रहवास कर रही जनजातियां भी अलग अलग नामों से पुकारी गईं. ल्हासा वाले ‘बोद-पा’ कहे गये, लद्दाख के ‘मरगुल’, भूटान वाले ‘डुक्पा’, किन्नौर वाले ‘खुन्नू’ व बूसाहर वाले ‘बिसेहरी’ कहे जाते रहे. जानते हो जुहार घाटी के निवासी ‘क्योनम’ भी कहे गये. अब,जो ये हमारे पिथौरागढ़ का बोर्डर है याने हिमालय की उत्तरी सीमा यहां की जनजाति को ‘भोटिया’ कहा गया. यह भोटिया नाम ‘जॉर्ज विलियम ट्रेल’ ने दिया था.
जॉर्ज विलियम ट्रेल ने लिखा है कि माणा के भोटिया ‘मारछा’, नीति के ‘तोलछा’ और जोहार के भोटिया ‘शौका’ या ‘रावत’ के नाम से जाने जाते रहे. ये सभी क्षत्रिय थे और हिन्दू धर्म को मानने वाले रहे. जिला अल्मोड़ा में खेला गांव से बारह मील आगे सोबला से भारत की सीमा तक दारमा पट्टी, धौली गंगा से बिन्दा कोट तक ‘ चौदाँस पट्टी’, आगे बिन्दाकोट से भारत की सीमा तक ‘ब्याँस पट्टी’और नेपाल की सीमा के छंगरू और टिंकर गांव, तेजम के ऊपर भारत की सीमा तक जोहार परगना हुआ. दूसरी तरफ गढ़वाल में भविष्य बद्री से भारत की सीमा तक के इलाके, टिहरी रियासत के सीमांत के जादौँग और निलांग गांव मिल कर तिब्बती सीमांत का क्षेत्र ‘भोट’ कहलाते हैं. वहां के निवासी चलते ही रहे. नदियों को पार कर पहाड़ों की कई परतें चढ़ते, दर्रोँ को लाँघते, बेपरवाह मौसम की शीत और घाटियों की उमस को झेलते, जीवनयापन करते, जीने के साधन जुटाते. चेरेवेति… चेरेवेति.
चलने से,चढ़ने से ही रस्ते बनते हैं. आदमी के चलने से बने हुए पथ. ये जो अपना सीमांत है न वह बड़ा रमणीक है तो उतना ही दुर्गम भी भयावह भी. तुम गये हो काली पार?, गोरी पार?. स्वामी जी ने मेरी ओर देख पूछा.
(Pithoragarh People Memoir Mrigesh Pande)
‘बस,धारचूला से थोड़ा आगे.ऐसे ही इधर मिलम, उधर जाड़ गंगा देखी है…
मेरी बात पूरी होने से पहले ही वह बोले, ” चलते रहोगे तो मौका ही मौका मिलेगा और तब तुमको पता चलेगा कि आगे जाने के लिए आगे बढ़ने के लिए क्या कुछ नहीं किया होगा इन वनवासियों ने. पहले जिसने पहल की, उसके पीछे लोग चले, फिर सारा समुदाय चला.
हिमालय में सातवीँ सदी में वह जन जाति जिसे ‘मोन ‘ या ‘मोन-पा’ कहा जाता था, जिनकी मुखाकृति ‘मंगोलों’ सी थी,नेपाल के उत्तरी ढालों और पश्चिम मानसरोवर तक पहुंच गई थी.अब तिब्बती भाषा, वहां की पारम्परिक वेश-भूषा, रीति-रिवाज को जितना कुछ उन्होंने अपनाया हो,थे तो वह किरात वंशी. ऐसे ही पा लिया होगा उन्होंने अपना अपना शिव. कई रस्ते चले होंगे. ये जो रस्ते थे न,इन्हें अजपथ कहा गया. पूरे सीमांत को, पूरे भोट को न जाने कब से,इनने पूरी दुनिया,पूरे जहान से जोड़ दिया. लोग चले ,उनका सामान चला. लेन-देन होने लगा. व्यापार चला तो तिब्बत जैसी दुर्गम जगह पर बाजार बना. हर वो जगह जहां लेन-देन होता है, बाजार कहलाता है न. धीरे धीरे प्राचीन समय की करवट पलटी,ये अजपथ सुधरे-बदले और तब अश्व पथ कहे गये. संकरी घाटियों को पार कर ऊँची चट्टानों के बीच से जाते दर्रे.
तिब्बत में शासन का उत्पीड़न जब से रहा तो इन खतरनाक दर्रो को पार कर अनेक मवासे अपने देश के इस दुर्गम उच्च इलाकों में बस गए.उत्तरी सीमांत के इलाकों को दसवीं सदी से पहले तंगण, यामुन, किन्नेर, उदयान, संकेत, ललाटाक्ष और उत्सव जैसे नामों से भी पुकारा जाता था. यही तंगण भोटान्तिकों के पूर्वज कहे गये.मंगोल मुखाकृति की भिल्ल-किरात जाति तीन हजार सालों से पहले हिमालय वासी रही. मिलम के जुहारी, माणा व निति के तोलछा और मारछा, निलांग के च्छोँग्सा, पश्चिमी नेपाल के मगर और गुरंग, मध्य नेपाल के तमङ, नेपाल उपत्यका के नेवार, पूर्वी नेपाल की नीम्बू, याखा और राई किरात जातियाँ, चम्बा के लाहुली, स्पीति के सिपत्याल, कुल्लू के मलाणी, सतलुज के किन्नर, असम के नागा, कामरूप की मोन-पा जातियाँ, लद्दाख के भोटा,इसी भिल्ल-किरात या मोन ख्येर जाति से सम्बंधित रहीं. कई जगहों पर ये खसों में विलीन भी हुईं व कई स्थानों में ये तिब्बती भाषा का भी बहुल प्रयोग करने लगे.
“शक्ति संगम तंत्र ” में किरातों को “सीमांत वासी भोटान्त” कहा गया : ‘काश्मीरन्तु समारभ्य कामरूपाश्च पश्चिमे भोटान्त देशो देवेशि मानसे शाश्च दक्षिणे”.
टिहरी में भागीरथी नदी की सहायक भिल्ल गंगा या भिलंगना व गंगोत्री के टकनौर का इलाका महाभारत में किराती कहा गया.भागीरथी घाटी के जो मूल निवासी थे वह मुख्यतः किरात थे. भटवाड़ी के आगे का पूरा क्षेत्र स्वर्णगोत्र में सम्मिलित था.
लघु हिमालय के पठारों पर किरातों के आवागमन के बाद कई पशु चारक जातियाँ जिनमें दरद-खश मुख्य थे, इधर आना शुरू हुए. इनमें खस पशुचारक वनवासी या आटविर्क जाति थी. खसों की सीधी भिड़ंत भिल्ल-किरातों से होती रही. इनके चारागहों पर बलात कब्ज़ा कर खसों ने कुमाऊं और पश्चिमी नेपाल के साथ ही टिहरी गढ़वाल, हिमाचल प्रदेश, काँगड़ा व कश्मीर के लघु हिमालय के ढालों तक कब्ज़ा कर लिया. पूरे इलाके में फैल गये’.
‘अब, ईस्ट इंडिया कम्पनी के दखल के बारे में समझा दें, वो तो टर्निंग पॉइंट है’ ये रमेश चंद्र पांडे जी वकील साब का सुझाव था.
‘अहाँ sss, अच्छा! ब्रिटिश राज,तो कुमाऊं में ब्रिटिश राज होने से पहले 1776 ई. में जॉर्ज बोगले और 1814 ई. में विलियम मूरक्राफ्ट ने तिब्बत व्यापार की व्यापक सम्भावनाओं की जानकारी ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दी थी. 1815 में कुमाऊं-गढ़वाल में कंपनी शासन हो गया.1815 में टिहरी के राजधानी बनने से पहले यहाँ के निलांग और बगोरी नामक कस्बे में कई भोटिया परिवार आ कर बस गये. तिब्बत के खम्पाओं से उनका सम्पर्क रहता. जो तिब्बत की पुलिंग, थोलिंग, गड़तोक और दापा मंडियो में तिजारत करते थे. जाड़ों के मौसम से पहले वह तिब्बत की मंडियो से माल-असबाब ला कर वह दून घाटी, सहारनपुर व टिहरी रियासत के गांव-कसबों में जा जा कर तिब्बती सामान की आपूर्ति करते. गोरखा राज में तिब्बत व्यापार में अनेक व्यवधान आए तो तिब्बत व टिहरी के बीच सीमा विवाद भी हुआ.
1815 में जॉर्ज विलियम ट्रेल कमिश्नर बने तो उन्होंने तिब्बत से होने वाले व्यापार की बढोत्तरी के लिए व्यापारिक मार्ग सुधरवाए तथा कस्टम व पारगमन कर में छूट दे दी. अल्मोड़ा के साह व काशीपुर के लालाओं की मध्यस्थता से ब्रिटेन में बनी वस्तुओं को कलकत्ता के भंडार से तिब्बत निर्यात किया जाने लगा. उधर टिहरी के राजा ने निलांग घाटी के तिब्बत से होने वाले व्यापार का प्रबंध गंगोत्री धाम के पुरोहितों को सौंप दिया था. गोरखों के आक्रमण से पहले तिब्बत से गढ़ नरेशोँ के दरबार में हर साल कर प्राप्त होता था जो अब मिलना बंद कर दिया गया था. तिब्बत के साथ टिहरी रियासत का सीमा विवाद राजा नरेंद्र शाह के समय भी चला जिसे बातचीत के जरिये सुलझाने के प्रयास भी विफल रहे.
पहले तिब्बत से जो व्यापार होता था वह वस्तु विनिमय या वस्तुओं की अदला-बदली पर आधारित लेनदेन था जिसे “सोग ला सोग” व “देबिन” कहते थे. विनिमय नमक, ऊन और अनाज से होता था. वस्तुओं का मूल्य तय करने की रीतियाँ अलग-अलग थीं. पहले ऐसा तरीका था जिसमें क्रेता और विक्रेता दोनों मूक संकेतों के द्वारा मोल-भाव करते थे. लेन- देन के नये मित्र के पहनावे लम्बे चोगे की बांह की आस्तीन के भीतर दूसरा पक्ष एक दूसरे से हाथ मिलाता और फिर उँगलियों के संकेत से ‘जिंस के बदले जिंस’, ‘वस्तु के बदले वस्तु’ का भाव तय होता. भाव सिर्फ दोनों लेन-देन करने वाले पक्ष के बीच गुप्त रहता. वहीं दूसरी तरफ कपड़े की कीमत उसकी “खाग” या चौड़ाई देख कर तय होती.
तिब्बत के व्यापारी मित्र अपनी भेड़ बकरियों में लूण या नमक लाद कर शौका लोगों के ग्रीष्म कालीन निवास में आते और वस्तु विनिमय की प्रचलित रस्म निभा विनिमय करते. तिब्बती अपनी नमकीन चाय के साथ सत्तू का प्रयोग करते जिसका अनाज पत्थी या “ऊवा ग्यामरा” तथा जौ होता. पत्थी और जौ के बदले तिब्बत से आयात होने वाला नमक, सुहागा और ऊन विनिमय किया जाता.ये जो नमक तिब्बती मित्र से लिया जाता उसका वजन या भार का माप उस थैले के द्वारा होता जो भेड़-बकरी की पीठ पर लदा होता. इसे “करबछ”व “खेमणी” कहते थे. जितने थैले या करबछ होते, उनकी संख्या की गिनती कर शौका व्यापारी उसका दस फी-सदी गेबल ऊन भी लेता था. गेबल एक बार में एक तिब्बती भेड़ से निकली करीब एक सेर ऊन की मात्रा होती थी.एक गेबल ऊन की कीमत चार से आठ आने होती जिसे शौका व्यापारी चुकाता. इस तरह शौका व्यापारी अपने तिब्बती व्यापारी मित्र से एक अनाज के विनिमय से चार मात्रा नमक और नाम मात्र की कीमत पर ऊन प्राप्त कर लेता था और दोहरा लाभ कमाता था. शौका व्यापारी के पास अगर अदल-बदल के लिए पर्याप्त ऊवा ग्यामरा उस समय न हो तो वह अपने किसी अन्य शौका जिसके पास पर्याप्त “डूबा” या अनाज होता से व्यापार करने की व्यवस्था कर देता था. इसके बदले उसे अपने तिब्बती साथी व डूबा वाले शौका व्यापारी से हुए कुल लेन-देन का दस फी सदी फायदा मिलता. ऊन, अनाज और नमक का लेन देन करते “सोग-ला-सोग” या “देबिन”की इस अदल-बदल में जब भेड़ों पर करबछ का व्यापार हुआ माल लादा जाता तो तिब्बती व्यापारी सामूहिक लोक गीत गाते हुए, इसे एक उत्सव में बदल देते थे.
शौका और तिब्बती व्यापार में मुद्रा की शुरुवात तब से बढ़ी जब तिब्बत में चीनी कम्युनिस्ट शासन आरम्भ हुआ. वैसे तिब्बत का चांदी का सिक्का “टँका” कहलाता था जिसका टंकण कलकत्ता में होता था और व्यापारी इसे तिब्बत निर्यात करते थे’.
बोलते-बोलते स्वामी जी चुप हो गये थे
‘तिब्बत में चीन का दखल कब से शुरू हुआ स्वामी जी’? यह जिज्ञासा हुई, आखिर वह चीन ही था जिससे युद्ध के बाद भारत तिब्बत व्यापार पर रोक लग गयी थी.
‘हाँ, ये बड़ा जरुरी सवाल है. इसके पीछे चीन के प्रधान मंत्री चाऊ. एन. लाई रहे जिन्होंने 30 सितम्बर, सन 1950 को तिब्बत को चीनी गणराज्य का एक भाग होने की घोषणा कर दी. फिर 23 मार्च, सन 1951 को वह सन्धि की गयी जिससे तिब्बत चीनी साम्राज्य में सम्मिलित हो गया. अब हमारे देश का व्यापार कम्युनिस्ट चीन से सीधे होने लगा. तिब्बत से होने वाले व्यापार पर कोई रुकावट नहीं आई, बस वह व्यापार जो अदल बदल या वस्तु-विनिमय से होता था अब चीनी सिक्के ‘ध्याँग’ के माध्यम से होने लगा. पश्चिमी तिब्बत के साथ भोटिया व्यापारी जिन तिब्बती मंडियों में जा व्यापार करते थे वह सब तिब्बती अधिकारी ‘जोंङपन’ के नियंत्रण में होती थी. व्याँस-चौदास के व्यापारी ‘पुरङ जोंङपन’ के अधीन तकलाकोट में, दारमा के व्यापारी छाकरा में ‘बरखा तर्जम’ के अधीन, जोहार और नीती के व्यापारी ज्ञानीमा, शिवचिलम में ‘दावा जोङपन’ के अधीन और माणा के व्यापारी च्छपराङ में जोङपन के नियंत्रण में व्यापार करते थे. जोहार के भोटिया व्यापारियों को पूरे पश्चिमी तिब्बत में व्यापार करने की अनुमति उस समय के बौद्ध छोग्याल से मिली थी जिसका कारण जोहार के व्यापारी धाम सिंह रावत द्वारा विपरीत परिस्थितियों में तिब्बत के शासक की मदद करना था.
(Pithoragarh People Memoir Mrigesh Pande)
चीनियों ने सन 1949 से ही तिब्बत में घुसपैठ शुरू कर दी थी पर भारत-तिब्बत व्यापार में वह दखलन्दाजी नहीं करते थे. धीरे धीरे उन्होंने तिब्बत के धर्म और संस्कृति को विखंडित करने की चाल चली. तिब्बत में मुख्य स्थलों-स्थानों में उन्होंने ब्रेन वाशिंग सेंटर चलाये जिसमें उन्होंने तिब्बतियों को अपने परंपरागत रीति-रिवाज और कर्मकांड छोड़ने को विवश किया. चीनी तिब्बतियों के संस्कारों की धज्जियाँ उडाने लगे. तिब्बती बालकों को पढ़ने- लिखने के लिए चीन भेजने लगे. तिब्बती जनता को बाध्य करते कि वह अपने तिब्बती अधिकारियो के काम काज में खोट निकालें और उनका आदेश न मानें. सन 1960 तक चीन ने पश्चिमी तिब्बत पर अपना नियंत्रण स्थापित कर दिया और तिब्बत के आंतरिक स्थायित्व को खंडित करने की अपनी सालों से की जा रही योजना में सफल हो गये. ऐसी असमंजस की परिस्थितियों से आहत हो दलाई लामा तिब्बत से निर्वासित होने पर मजबूर हुए. चीन के द्वारा उत्पन्न तनाव-दबाव व कसाव से भारी संख्या में तिब्बतियों ने अपना देश छोड़ा. खिंङलुँङ, मास्याँङ, पुरंङ व जिम्बोठेल के साथ अन्य कई स्थानों के लोग हिमालयी दर्रे पार कर भारत आ गये.
स्वामी जी बोलते बोलते रुक गये. गला खँखारा और अपनी फतुई की जेब से होमियोपैथी दवा की शीशी निकाल बगल में बैठे रमेश चंद्र पांडे जी वकील से बोले, “आपने भी पांडे जी खूब पढ़ा समझा है तिब्बत और चीन के साथ हमारे देश की राजनीति को. जरा बताओ इन मास्टर लोगों, इन शिष्य लोगों को. नोट भी कर रहा है ये अपना कैलाश. पर तू ज्यादा शिब बनने की कोशिश मत कर रे कैलाश. वो धुँवा-फूक लेना बंद कर. कैसी लाल आंख बना ली है अपनी. अब ये चरस सुरा खूब चल गयी. मृत संजीवनी वाले भी लख टका हो गये हैं. अब आगे क्या होगा औलाद पर क्या असर होगा नहीं सोचता कोई लाला. चलो पांडे जी अब बताओ आगे की बात. मैं जरा ये गोली का कमाल देखूं. गला तो साफ कर रही है ये. आप बताओ चीन की राजनीति और उसके पेंतरे. वकील साब हुए और पॉलिटिक्स पर खूब दखल भी हुआ आपका…”
“अरे स्वामी जी, अब ज्यादा मत चढ़ाओ. हाँ, जितना मालूम है कह देता हूँ. ये चीन तो हुआ ही भितरघाती.. ट्रेटर. आपने बताया ना कि उसने तिब्बत को अपने कब्जे में ले दलाई लामा के साथ ही हज़ारों-हजार तिब्बतियों को अपनी ही कंट्री से भागने की चाल खेल दी. जहां तिब्बती साठ लाख थे वहां उनके ऊपर सत्तर लाख चीनी लाद दिए. अपनी ही कंट्री में उन्हें अल्पसंख्यक बना दिया. चीन ने तिब्बत के एडमिनिस्ट्रेशन, आर्मी-पुलिस, इकोनमी, एजुकेशन, कल्चर और पब्लिक लाइफ सब को पोल्यूट कर दिया. एजुकेशन और एम्प्लॉयमेंट दोनों जगह तिब्बती भाषा की जगह चीनी लैंग्वेज इम्पोज कर दी. भुला दिए पुराने रिश्ते.वो रिश्ते जो रोटी-बेटी के रिश्ते थे.हज़ारों साल से चले आ रहे रिश्ते.
ये बात सातवीँ सदी की है. तिब्बत में अनेक ठकुराई के साथ एक ठकुराई थी जिसका नाम कौँङपो था. यहाँ सन 617 में स्त्रोँङचैन-स्गम्पो का जनम हुआ. बड़ा वीर बड़ा साहसी- वारियर रहा वो, कि तेरह साल की उमर में ही वहां का राजा बन गया और देखते ही देखते उसने मिडिल तिब्बत जिसे वहां ‘दुबुस’ कहते थे और आगे ‘गचँङ’ पर भी अपना अधिकार कर लिया. फिर वो वैस्ट तिब्बत की ओर बढ़ा जहां उसने गिलगिट, लद्दाख, और जौस्कर रेंज तक अपना किंगडम बढ़ा दिया. चीन के सम्राट ने उसका बल-वैभव देख उससे ट्रीटी कर ली और उसके साथ अपनी बेटी कींङ-जो का विवाह भी कर दिया. तिब्बत के इस राजकुमार की नेपाली वधू भी रही. दोनों राजकुमारियां विवाह के बाद जब अपनी ससुराल तिब्बत आईं तो अपने साथ बुद्ध की प्रतिमा, अक्शौभ्यमैत्रेय और उग्र देवी तारा की चन्दन से बनी मूर्ति भी लाईं. राजा ने अपनी चीनी व नेपाली रानी, दोनों के लिए बौद्ध मंदिर बनाए. उसने तिब्बती भाषा के लिए लिपि बनाने का जबरदस्त काम करवाया और बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया. अनेक बौद्ध धार्मिक ग्रन्थ भारत से मंगाए गये और उनका तिब्बती में अनुवाद किया गया. 81 वर्ष की आयु में सन 698 में उसकी मृत्यु हुई. उसकी मृत्यु के बाद तिब्बत में मंङ-स्त्रोँङ-गयन ने 14 साल, दर-स्त्रोँ ङ ने 61 साल और खिलदे-गचुग-वर्तन ने 72 साल तक राज किया. इनके शासन से तिब्बत का भोट साम्राज्य एशिया में छा गया था.
सन 1960 ई. तक तिब्बत स्वतंत्र देश था जिसके बाद चीन की कम्युनिस्ट सरकार ने बारह लाख से अधिक तिब्बतियों का क़त्ल कर दिया और उनके छह हजार से ज्यादा गोम्पाओं को नेस्तनाबूद कर डाला.1959 के तिब्बत विद्रोह के बाद से अत्याचारों का सिलसिला आरम्भ हो चुका था. तिब्बतियों के बौद्ध विहार, मठ, स्मारक, पुस्तकालय, पाण्डुलिपियों को विनिष्ट कर दिया गया. उनके धर्म का उपहास कर उन्हें अन्धविश्वासी कह खिल्ली उड़ाई गयी.तिब्बतियों के रंग बिरंगे झण्डोँ, उनकी परंपरागत वेशभूषा,उनके त्यौहार,उनके भोजन अर्थात उनकी दिनचर्या पिछड़ेपन की निशानी कह दी गयी पहले जहां तिब्बत में 2500 बौद्ध विहार थे जो उत्पीड़न के सिलसिले के बाद सिर्फ 7 रह गये.
तिब्बत पर अपने हक की शुरुवात चीन ने 1950 से कर दी था. अब हमारा देश आजाद हो गया था. तिब्बत के मामले में पंडित नेहरू ने साफ कह दिया था कि हम तिब्बत में कोई सैन्य कार्यवाही नहीं करेंगे. चीन से दोस्ती का वास्ता देते उन्होंने उसे सलाह दी कि वह तिब्बत के मसले पर संयम से चले. उधर राम मनोहर लोहिया ने तिब्बत पर चीनी हमले और उसके लगातार कब्जे के बारे में गहरी चिंता व्यक्त की. डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा कि अगर भारत ने तिब्बत को रिकॉग्निशन दी होती जैसा उसने 1949 में चीनी गणराज्य को दी थी तो आज भारत-चीन सीमा विवाद न हो कर तिब्बत-चीन सीमा विवाद होता.
पंडित नेहरू ने जब चीन के साथ पंचशील का समझौता किया तब बाबा साहेब अम्बेडकर ने साफ कहा कि नेहरू यह समझौता करके चीन को भारत की सीमा में ही छुपने का नहीं बल्कि राष्ट्रपति भवन तक आने का रास्ता दे रहे हैं. हुआ भी यही जब चीन ने भारत को सम्राज्यवादी कीड़ा कहा और एलान कर दिया कि चीनी मुक्त सेनाएँ तिब्बत में घुसेँगी. तब डॉ अम्बेडकर ने कहा था कि अब भारत पूरी तरह घिर गया है.
पंडित नेहरू ने पंचशील पर दस्तखत किये. वह आदर्शवाद और समाजवाद की खिचड़ी पका रहे थे जिसके जोश में वह अफ़रो-एशियाई आजादी के संघर्ष में नाम कमाना चाहते थे. अब हुआ क्या? चीन का तिब्बत पर अधिकार स्वीकार कर लिया गया.1946 में नेहरू ने स्वयं दिल्ली में एशियाई सम्मलेन बुलाया था जिसमें तिब्बत भी शामिल था इंडिपेंडेंट कंट्री की तरह. नेहरू ने चीन की दोस्ती खरीदने के एवज में तिब्बत की आजादी की बलि दे दी.”
बोलते बोलते वकील साब रमेश चंद्र पांडे जी की आवाज गरमा गई थी. उनके चेहरे पर अनेक रेखाएं उभर रही थी सिमट रहीं थीं. अपने बंद गले के कोट की सामने वाली जेब में हाथ डाल उन्होंने रुमाल निकाला तो चारमिनार सिगरेट का पैकेट भी साथ निकल गया. तुड़े-मुड़े रुमाल से उनने होंठ पोछे और फिर सिगरेट मुँह से लगा ली. दुबारा जेब में हाथ डाल ही रहे थे कि तब तक चिलकोटी जी वकील साब ने माचिस जला दी. पांडे जी के हाथ में हल्का सा कंप था.
दीप मेरे कान में फुसफुसाया, “गुस्से में आ जाएं पांडे जी तो दहाड़ने लगते हैं. कोर्ट में मुवक्किल के पसीने छुड़ा देते हैं. ऐसे तीन पांडे हैं दहाड़ने वाले, एक यही हुए हमेशा सुटेड बूटेड, पिठ्या अक्षत वाले तो दूसरे नैनीताल वाले दयाकिशन पांडे, वो तो शेर की तरह गरजते हैं. मजाल किसकी जो उन्हें रोके टोके. जज लोग भी घबराते हैं”
उन्हें तो जानता हूँ किसी कोने से रिश्तेदार भी हुए,जब भी उनके घर जाना हुआ तो पूरा इंटरव्यू ले लेते हैं. सुना नैनीताल उनकी कोठी के एक कमरे में किसी अंग्रेज का भूत भी है.”मैंने अपनी जानकारी की जुगाली की.
“वो अंग्रेज भी साला एक कमरे में इसीलिए सिमटा होगा कि पूरे परशुराम हुए दया किशन जी, ज्यादा भुत्योल करने पर मुंडी न छटका दें वो” दीप मुस्का के बोला.
“और तीसरे पांडे जी कौन हुए फिर इस तिकड़ी के”? मैंने पूछा.
“तीसरे हुए मुरादाबाद के पांडे जी, वो भी क्रिमिनल मामलों के उस्ताद. अपनी कार में अपने मातहत लिए आते हैं. उनकी खूबी ये कि सवाल बहुत ही कम करते है और फिर जो दो तीन बातें पूछते हैं उन्हीं में केस अपने फेवर में कर लेते हैं…बस सिंगल माल्ट से ही खाप तर करते हैँ “
बात पर विराम लग गया. रमेश चंद्र पांडे जी वकील साब की गुस्से वाली आवाज अब उभर गयी थी. उनकी काया में कंप भी हो रहा था.
“नेहरू ने छूट दी तो सरकार ने वो जमीन, बिळ्डिंग, रेस्ट हाउस, पोस्ट ऑफिस सब चीन के हवाले कर दिए. हमारे व्यापारियों की सेफ्टी के लिए यातुंग और ज्ञानत्मी में जो दो सौ से ज्यादा फोर्स तैनात थी वो भी वापस बुला लिए. नेहरू ने भारत को ब्रिटिश सत्ता हस्तान्तरण में मिले सारे अधिकार भी त्याग दिए और अपनी फिलोस्फी पर चले कि यह सब ब्रिटिश इम्पीरियलिज्म की विरासत है, इसे हम छोड़ते हैं, जिसकी है उसे मिले.
“विरोध तो हुआ था नेहरू की इस नीति का”, चिलकोटी जी बोले.
“विरोध तो होना ही था”. पांडे जी गुस्से में थे,”अरे मानते पंचशील को, पर कैसा डिसिजन लिया? किसी परस्पेक्टिव को न समझा. इन्कम्प्लीट फैक्ट्स, फोरसाइट की कमी, कोई पोलिटिकल-आइडियोलॉजिकल थिंकिंग नहीं, बस जल्दबाजी-जल्दबाजी.अब इतना रिमोट एरिया. यहीं अपने यू पी के हिल बॉर्डर को देख लो, न खेती, न सड़क, न कोई एम्प्लॉयमेंट अपोर चुनोटी, हर मोड़ पर नेचर का खतरा, निच फैक्टर. और अपने क्या किया? पूरे इलाके को शेडयूल ट्राइब डिक्लेअर कर हाथ झाड़ दिए. बासठ के चीनी धोखे के बाद तो व्यापार भी बंद.”
बोलते बोलते अब चुप हो वकील साब ने चारमीनार का आखिरी कश लिया और ठुड्डा एसट्रे में मसल दिया.
स्वामी जी इस बीच अपना पूरा सर और गला लम्बे मफलर से ढके ऊपर कहीं आँखे टिकाए एकटक मौन थे. बल्ब की रोशनी उनके चेहरे पर थी. ऐसा लग रहा था की उनकी आँखों में पीले से बल्ब सुलग रहे हैं.
‘बड़ा सुनहरा अतीत था वह. हमारे सीमांत के निवासियों ने अपनी मिलनसारिता, अपने बदन की ताकत, हर परिस्थिति में टिके रहने की आदत और गहरी व्यापार बुद्धि से जो हासिल किया वह इतिहास बन कर रह गया. हाल ही में जब कैलास गया तो पाया कि अब ये ‘हेन’ जाति वाले चीनी तिब्बतियों की संस्कृति और वहां के पर्यावरण का नाश करने पर तुले हैँ. चरवाहे अपने पेशे और इलाके से खदेड़े जा रहे हैँ. तिब्बत के जितने भी ऑफिसर रहे उन्हें फ्यूडल सिस्टम को बढ़ावा देने वाला माना गया. सबको कैदखानों में डाला गया. उनकी जमा-पूंजी, चल-अचल संपत्ति पर कम्युनिस्ट चीन ने कब्ज़ा कर लिया, उद्योग-धंधों पर भी. तिब्बत में ऐसी हाय-हाय मची कि 1959 तक अनाज की भी भारी किल्लत हो गई.
अब हमारे उत्तरप्रदेश के पहाड़ी इलाके में उत्तरकाशी, चमोली और पिथौरागद से व्यापारी तिब्बत की ओर आवागमन करते थे और इसके लिए संकरे दर्रे थे, वीरान घाटियां थीं और दुर्गम पथ थे जो कुंगरी-बिंगरी, न्यू धूरा, ऊंटा धूरा, निलांग, नीति-माणा और लीपूलेख के गिरि द्वारों से होते चलते थे. व्यापार तो था ही, कैलास-मानसरोवर की यात्रा भी होती थी जिसके कई रास्ते रहे. कई अलग-अलग रास्तों से हो मैं भी चला. पर अब तो 1960 के बाद बस लीपूलेख का रास्ता बचा जिससे हम सदियों से व्यापार की अनोखी रीति वाले तिब्बत में आ जा सकते हैँ.”
“वो कौन से कारण रहे जिनसे हमारे सीमांत और तिब्बत के बीच का सदियों पुराना ये व्यापार पूरी दुनिया के लिए एक सक्सेस स्टोरी बन गया?”अब ये सवाल उभरा और मैंने पूछ ही लिया.
‘भारत-तिब्बत व्यापार खूब फला फूला जिसका कारण व्यापार के लाभ और व्यापार की शर्तों की स्पष्टता थी. जो भी विवाद उभरते वह आपस की बात चीत से सुलटा लिए जाते. गंभीर विवादों को सुलझाने के लिए तिब्बती अधिकारी, “जोङपन” के द्वारा किया फैसला स्वीकार कर लिया जाता था. बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रभाव व फिर ब्रिटिश हुकूमत ने व्यापार की शर्तों व विवाद सुलझाने के लिए तिब्बत में अपना ट्रेड एजेंट नियुक्त कर दिया.5 दिसंबर 1893 को व्यापारिक सन्धि हुई थी जिसमें ट्रेड एजेंट का निर्णय सर्वमान्य होने का हुक्म हुआ. फिर 7 सितम्बर,1904 में “ल्हासा सन्धि हुई जिसमें यह तय किया गया कि यातुंग, ज्ञानत्सी और गड़तोक में व्यापार की निगरानी की जिम्मेदारी ट्रेड एजेंट के द्वारा होगी. हो रहे सारे व्यापार का पर्यवेक्षक सिक्किम का राजनय अधिकारी बनाया गया जो ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा नियुक्त ट्रेड एजेंट से व्यापार की निगरानी करवाता. 1903 में ब्रिटिश फौज कर्नल यंग के नेतृत्व में तिब्बत पर चढ़ाई कर ल्हासा पर कब्ज़ा कर चुकी थीं. आक्रमण का यह आदेश गवर्नर जर्नल लार्ड कर्जन के आदेश से दिया गया.
1905 में कुमाऊं के डिप्टी कमिशनर सी. ए. शेरिंग पश्चिमी तिब्बत के सर्वेक्षण भ्रमण पर निकले. उन्होंने वहां तिब्बती गारपेन और जोड़पन से सलाह मशविरा कर यह लिखित अनुबंध किया कि भोटिया /शौका व्यापारी ज्ञानिमा, गड़तोक और तकलाकोट की मंडियो के साथ ही च्छपरांड़, शिवचिलिम और दावा की मंडियों में व्यापार कर सकते हैं. इसके साथ ही भारत के परिज्रावक व तीर्थंयात्री कैलास-मानसरोवर की यात्रा स्वतंत्र रूप से कर सकते हैं.
ब्रिटिश सरकार और तिब्बती प्रशासन के बीच 1906 व 1907 में आपसी व्यापार की शर्ते तय हुईं जिसमें यह निश्चित किया गया कि पूर्वी तिब्बत में ज्ञानत्सी और यातुंग और पश्चिमी तिब्बत के गड़तोक में अंग्रेजों के तीन व्यापार एजेंट अपने-अपने प्रांतों में लगने वाली व्यापार की मंडियों में भारतीय व्यापारियों की हर समस्या का समाधान करेंगे.1908 में पुनः यह समझौता हुआ कि तिब्बत की मंडियों में भारतीय व्यापारी व्यापार की अभिवृद्धि के लिए गोदाम और मकान के लिए पट्टे पर जमीन ले सकते हैं. इसके लिए ट्रेड एजेंट की सहमति प्राप्त कर तिब्बती अधिकारी अनुमति देते. फिर 1912 की सन्धि में पूर्व की सन्धि यथावत रखते हुए यह तय हुआ कि ब्रिटिश ट्रेड एजेंट अपनी कचहरी में भारत के व्यापार प्रतिनिधि की हैसियत से तिब्बती प्रतिनिधि की मौजूदगी में समस्या को सुलझाएगा. पश्चिमी तिब्बत के व्यापार प्रतिनिधि हर साल मई के महिने में शिमला से गड़तोक जाते थे, जहां व्यापार गतिविधियों का संचालन कर वह वापस लौट आटे थे. दूसरी ओर लिपुलेख की घाटी की व्यापार गतिविधियों के निरीक्षण के लिए वह अल्मोड़ा आ कर जाड़ों में वापस शिमला आ जाते थे.
13 अक्टूबर 1913 को ब्रिटिश सरकार, चीन और तिब्बत के बीच आपसी व्यापार से सम्बंधित समझौता हुआ जिसकी अध्यक्षता सर आर्थर हेनरी मैकमोहन ने की. फिर 1914 में हुए शिमला एग्रीमेंट में पुरानी शर्ते यथावत रखीं गईं. इसके अनुसार अगले दस साल के लिए भारत के व्यापारी तिब्बत से बेरोकटोक व्यापार कर सकते थे. यह अवधि समाप्त होने से छह महिने पहले अगर किसी भी पक्ष द्वारा कोई अड़चन या संशोधन की बात न उठे तो अगले दो सालों के लिए फिर यह समझौता लागू रहता था. बाद में 1942 में गड़तोक के राजनयिक अधिकारी ने अपने पश्चिमी तिब्बत के दौरे के बाद यह तय किया कि अब से भारतीय एजेंट गड़तोक रहेगा. वह अल्मोड़ा हो कर मंडियो में जायेगा व इसी तय मार्ग से वापस लौटेगा. गड़तोक के व्यापार प्रतिनिधि जहां भारतीय रखे गये वहीं ज्ञान्तसी और यातुंग के ब्रिटिश जो स्थायी रूप से नियुक्त किये गये थे. ज्ञान्तसी में ब्रिटिश सरकार के 500 सिपाहियों का दल भी तैनात रहता था.
(Pithoragarh People Memoir Mrigesh Pande)
भारत व तिब्बत के व्यापारियों के बीच व्यापार से जुड़े कुछ विवादों को सुलझाने के लिए गड़तोक के राजनयिक अधिकारी द्वारा पूर्व नियमों में संशोधन भी होते रहे. 14 अगस्त 1945 को ज्ञानिमा मंडी में एक बदलाव यह कर दिया गया था कि अगर कोई भोटिया व्यापारी किसी तिब्बती व्यापारी के साथ व्यापार का नया गमग्या तय करता है तो साल भर के भीतर ही उसे गड़तोक के ब्रिटिश ट्रेड एजेंट से पंजीकृत कराना होगा. ब्रिटिश शासन से मुक्त होने के बाद आगे एक दशक तक तिब्बत व्यापार बेरोकटोक चला. पहले से चली आ रही परंपरागत वस्तुओं और जिंस में सुवर्ण पिपिलिका चूर्ण, सफेद और काले चंवर, हिमालय का क्षुद्रा मधु, उत्तरकस देश से माला बनाने योग्य रत्न और पवित्र जल, उत्तर में कैलास से महाबला औषधि तो थी ही इनके साथ बहुमूल्य पाषाण रत्न होते जिनमें स्फटिक, अकीक, संगे यशब, संगे अजूबा, संगे सुलेमानी, मरगज, लेपिस लजुली के साथ हिमालय में मिलने वाले खड़िया-सेल खड़ी, नीला फिरोजा, सफेद और नीला नीलम, पीले पुखराज,वैदूर्य मणि व मोती मुख्य थे.
कस्तूरी और चंवर गाय की पूँछ की कीमत हमेशा ऊँची बनी रहती. चंवर गाय की वर्ण संतान ‘जोबा’ की पूँछ से भी चंवर बनते. जोवा भोटान्तिक इलाकों में पाए जाते. भारत में लेंचा नमक भी तिब्बती व्यापारी लाते थे जो संयुक्त प्रान्त, कामरूप प्रदेश और पूरे पंजाब तक जाता था. तिब्बती व्यापारी कैलास-मानसरोवर के साथ ही गोमुख, बद्रीनाथ और सतोपंथ का पवित्र जल मैदानी भागों तक पहुँचाते थे,जिनसे देवमूर्तियों और देश की रियासतों के राजा-नरेशोँ के अभिषेक में प्रयुक्त किया जाता और विविध मांगलिक अवसरों व धार्मिक प्रयोजनों, यज्ञ, संस्कार, पर्व उत्सव में,जिसकी भारी मांग रहती.
तिब्बती ऊन के साथ ही इससे बने वस्त्रों, घुस्सों, आसन, दन, चुटके, पाण्डु कम्बलों की बहुल आपूर्ति की जाती तो समूरों और खालों की भी. तिब्बती ऊन के कच्चे माल से भोटिया परंपरागत ऊन व्यवसाय खूब पनपा. ऊन के वस्त्र भोटिया व्यापारियों द्वारा देश-विदेश भेजे जाते. इसके साथ ही भाँग के कुथलों या थेलों के साथ इसके रेशों से बने गरम व मजबूत वस्त्रों या भंगेला की प्रचुर आवक होती. हिमालयी इलाकों में पाए जाने वाली चंवर गाय, हिरन, व्याघ्र, चीते की खाल का व्यापार होता जिसमें उदबिलाव की खाल की कीमत सबसे ज्यादा होती. खालों से मशक तो बनती ही,इनसे जिल्दबंदी भी की जाती, पिटारे मंढ़े जाते, आसन बनते और तंत्र-मन्त्र में इनका प्रयोग होता.
‘हर्ष चरित’ में बाण भट्ट ने ‘तंगण अश्व’ की चाल और खूबसूरती का वर्णन किया है. ये तंगण घोड़े तिब्बत में व्यापार के लिए लोकप्रिय होने के साथ ही युद्ध के लिए भी बड़े उपयोगी माने जाते थे. गढ़वाल के भारद्वाज इलाके के तंगण घोड़ों को ‘भारद्वाज अश्व’ कहा जाता था. भोटिया व्यापारी गुड़ व शक्कर इन पर लाद तिब्बत की मंडियों में ले जाते थे. बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ उनकी औषधि व भारत के आयुर्वेद व भेषज-जड़ी बूटी की मांग एशिया-माइनर से चीन-जापान व मँगोलिया-कूचा से ले कर सिंहल तक विस्तृत हो गई थी. तक्षशिला आयुष का उभरता हुआ केंद्र बना, विभिन्न भेषज, वनस्पति व खनिजों की आपूर्ति बढ़ती गयी.
बातचीत करते भीतर से पुनेठा जी की लड़की आई और उसने स्वामी जी को बताया कि उनका भोजन तैयार है. गरमा गरम खा लें.
‘अब ये तो अन्नपूर्णा का निमंत्रण आ गया. मैं तो बस साँझ ढलते ही खा लेता हूँ’.
हम सबने स्वामी जी से विदा ली. स्वामी जी के साथ बैठे वकील साब रमेश चंद्र पांडे के साथ टोलिया जी भी बाहर आ गये. लाइब्रेरी वाले रणवीर सिंह पांगती जी हमारे साथ ही चल रहे थे. पुनेठा जी की किताबों की दुकान से मैंने व दीप ने अपने- अपने अखबार के गट्ठर उठाते. हिरदा ने कहा कि सामने हिमालय रेस्टोरेंट में बैठें चाय पीते हैं सब. तब तक वह अपने ससुर जी की दवा शौजू होम्योपैथिक से लेकर आ रहे हैं.
हम सब रेस्टोरेंट में जा बैठ गये. ये शेख नबी बक्स की जूतों की दुकान के दुमंजिले में था. गौर वरणीय दुकान मालिक जोशी जी आ गये थे और सबसे मिले. दीप ने मुझे बताया कि वह मार्क्स के अनुयायी है. मैगनेसाइट में भी प्रबंध के खिलाफ लाल झंडा ले धरने पर बैठ जाते हैं. प्रशासन के हमेशा खिलाफ रहते हैं पर एल आई यू वालों से गहरी दोस्ती है. यहाँ भी में देख रहा था पुलिस वाले अपने पांडे जी से खूब बातचीत हो रही थी.
हाथ में मोड़ी नोट बुक कैलाश पंत ने मेरे आगे रख दी थी. ‘जितना स्वामी जी बोले गुरु जी सब नोट कर दिया देखें’. मैंने गोल पड़ी कॉपी को उल्टा सीधा करने की कोशिश की. अब मैं देखने लगा था कि कई लड़के अब कॉलेज खाली हाथ चले आते हैं, बस पैंट में पेट या पीछे की जेब में एक पतली कैपिटल कॉपी ठुँसी रहती है. दूसरी तरफ कई कई कॉपी, रजिस्टर व किताब ले के आने व मनोयोग से क्लास में नोट्स लेने वाले भी जिनमें ज्यादातर गर्ल्स होतीं हैं.
कैलाश के लिखे पेज देख मुझे हैरत हुई उसने बड़े तेज साफ लेखनी में लगभग सभी नोट कर लिया था. हिरदा भी आ बैठ गये थे ‘आज तो स्वामी जी पूरे मूड में थे. खुल के बोले. कभी तो सामने कोई आ जाये एक बार देख आँख मूंद कर बैठ जाते हैँ. हर किसी से बोलते भी नहीं. आज उन्हें लगा होगा कि उनकी बात समझने लायक लोग हैँ. उनकी बात भी तो बिल्कुल होमियोपैथी की गोली है, जड़ पर असर करती है.’ हिरदा चाय पीते अपनी धीमी आवाज से बोले.
‘जी तो करता है कैलास की यात्रा पर निकल पडूं स्वामी जी के साथ, अब- जब वो जाएं ‘ कैलाश पंत बोल पड़ा. उत्साह में उसका बॉडी मूवमेन्ट बदल गया था.
‘अभी तो स्वामी जी कलकत्ता जाने वाले हैँ, उनकी नई किताब आने वाली है बता रहे थे, तू बंगाल घूम आ उनके साथ, तेरे मतलब की जगह, खूब नाटक-जात्रा, ऐसी जगह जायेगा तो खूब सीखेगा..’
मेरी तो इच्छा जोहार घाटी मे चढ़ने की है. पांगती जी ने वादा किया है कि जब उस साइड जायेंगे तो मुझे भी ले जायेंगे क्यों पांगती जी?
जिला पुस्तकालय के रणवीर सिंह पांगती जी मुस्कुरा दिए.
‘हां, बिल्कुल. अपने पांडे जी पुलिस वाले साब भी चलने वाले हैँ. प्रोफेसर दीप पंतजी हुए ही,अब तो पांडे जी भी आ गये हैँ. ये तो फोटो भी खींचते हैँ…’पांगती जी बोले.
‘मेरी तो न फोटो खींची न मुझे नाटक में लिया इनको तो वो खब्ती अनिल पंत, विश्ववीर रावत, राजेश्वरी पुनेरा को लेना है, मुझे राजेश्वरी चिढ़ा रही थी कि, ‘तूने कैलाश इतने नाटक किये किसी में लड़की पात्र नहीं था. होता भी तो तू चिकने पकड़ उसे हीरोइन बना दे मूक फिल्मों की तरह. अब देख कितनी गर्ल्स आगे आ रहीं हैँ’. अब नाटक भी ऐसा करते हैँ ये कि पब्लिक हूट भी नहीं करती. वो अंधों का हाथी, उसमें क्या सूत्रधार हूत्र धार बनी है.ये राजेश्वरी तो भाव बढ़ गये हैँ. यहीं ऊपर अपने बीज वाले पुनेड़ा जी की बेटी तो हुई वो, जगदीश बौस की बैणी…’
(Pithoragarh People Memoir Mrigesh Pande)
हाँ, जानता हूँ, लाइब्रेरी से खूब किताबें पढ़ीं हैँ उसने.. अब नये नाटक तो तू पढ़ता नहीं. कितनी किताब मैंने मंगाई हैँ, उन्हें पढ़ तू.. पर किताब अड़ा मत देना.सर अगले नाटक में इसे जरूर ले लेना..’पांगती जी ने हँसते हुए मुझसे कहा.
‘तो पक्का गुरूजी ‘ कह कैलाश मेरे पाँव की तरफ चिपट ही रहा था कि मैंने उसका हाथ पकड़ कुर्सी पर उसे टिका दिया और जोर से बोला ‘ठीक है अगला नाटक है अंधेर नगरी, उसमें तू जमादार हरलाल बनेगा और विक्रम पाल सिंह रावत होगा जगन शराबी, वो लम्बू नगरपालिका के पास रहने वाला बसंत भट्ट बनेगा तांत्रिक’.
हैरत से कैलाश का मुँह खुला का खुला रह गया. सर खुजाते बोला,’पर गुरूजी, भारतेन्दु के नाटक को मैंने पढ़ा है उसमें तो जमादार, शराबी और तांत्रिक हैँ ही नहीं!’
अब हैं ना. हमारी अंधेर नगरी मैं राजा भी नहीं है, रानी है और रानी का रोल करेगी तुझे चिढ़ाने वाली राजेश्वरी. उसके दो ज्वान लड़के भी हैँ नाटक में, दोनों की मेहबूबा भी. छोटी की मेहबूबा ही बन रुखसाना कितनों का कटवा देती है और ये जो तांत्रिक है न उसके मंतर से वह वह पूरे देश में बत्ती गुल कर देती है…’दीप की आवाज नाटक की बात करते एकदम तेज स्वर और गति पकड़ लेती थी.
‘ये तो गजब ही हो रहा!..’
कैलाश की बड़ी बड़ी आँखों में अनोखा विस्मय दिखा.हाथ पैर फिर मचले.कुछ कहना चाह
रहा था कि दीप फिर बोला, ‘अब आगे सुन उसमें एक अलादाद भी है… एक था गधा अलादाद. शरद जोशी वाला-तो कोतवाल भी. संवर के देखो चले कोतवाल.. लम्बी कटारी मूँछ करारी. कोतवाल बनेगा विश्ववीर सिंह रावत और अलादाद अनिल पंत ‘.
मेरी बात दीप ने बहुत सीरियस हो कर आगे बढ़ा दी.
‘पर, गुरूजी!…’
‘ये जो अलादाद है ना, ये वक़्त का पाबंद है. समय पर ऑफिस जाता है. बायें से सड़क पार करता है. घर का कूड़ा सड़क पर नहीं डालता. घूस नहीं खाता… “अब मैं बोला.
‘ये अंधेर नगरी फ्यूजन है, भारत दुर्दशा का, एक था गधा अलादाद का’. थोड़ा ताव में आने के बाद अब दीप योगानंद मुद्रा में आ गया था.
सबने चाय खतम कर ली थी. उठते हुए कैलाश पंत के कंधे पर हाथ रख दीप ने कहा, ‘पूरे इक्कीस महिने की थी इमरजेंसी’, सवाल जितने बढ़े जवाब उतने घटे. फिर फिजा ही पलट गई. अलादाद वहीं का वहीं.
(Pithoragarh People Memoir Mrigesh Pande)
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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1 Comments
नवीन कुमार नैथानी
यह लेखमाला अद्भुत है।पुस्तक रूप में देखने की तीव्र लालसा है।एक बैठक में पढ़ने का आनन्द लिया जा सके।