समाज

पाइन्स तब हमारे लिए ‘पेनल्टी प्वाइन्ट’ हुआ करता

पर्यटक देशी हो अथवा विदेशी अथवा सूदूर पहाड़ों के गंवई हों, नैनीताल को एक बार देखने की चाहत सभी में रहती है. हो भी क्यों न, छोटी विलायत जो ठहरा नैनीताल. नैनीताल की सुषमा अपनी जगह है, जो कुदरत ने बख्शी है. कुदरत के इस नायाब तोहफे की कदर गोरों ने ही जानी. हम अंग्रेजों को भले निरंकुशता के लिए कितना कोसें, नैनीताल को छोटी विलायत का स्वरूप देने तथा उनकी दीर्घजीवी नैनीताल की कार्ययोजना को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता. यकीन मानिये, यदि अंग्रेजों ने नैनीताल की सुरक्षा के लिए जरूरी एहतियाती कदम न उठाये होते तो सोचिए इसका हश्र क्या होता?
(Pines Nainital Bhuwan Chandra Pant)

आजादी से पूर्व जब देश में कुछ गिने-चुने महानगरों में मूलभूत सुविधाऐं नहीं थी, तब सन् 1922 में ही नैनीताल बिजली की रोशनी में नहाने लगा था, उस समय यह बिजली से जगमगाता कम से कम पहाड़ों का तो इकलौता शहर था. खेलों के शौकीन गोरों के समय से ही नैनीताल पोलो तथा गोल्फ जैसे खेलों का परिचय पा चुका था. योजना तो उनकी नैनीताल तक रेल पहुंचाने की भी थी, लेकिन यह साकार नही हो पायी. घुड़सवारी, नौकायन, याट क्लब से पाल नौकायन, ये सारे अंगे्रजों की शौक के बदौलत ही नैनीताल को अपनी पहचान दिला पाये. स्वातंत्रोत्तर भारत में भी हमारी सरकारों ने  नैनीताल के स्वरूप को ब्रिटिश कालीन नैनीताल की तरह बनाये रखने का पूरा प्रयास किया.

नैनीताल नगरपालिका देश की उन चुनिन्दा नगरपालिकाओं में है, जब  इस प्रकार की स्वायत्तशासी संस्थाओं का गठन महानगरों तथा कुछ बड़े नगरों तक ही सीमित था. 1952 में नैनीताल नगरपालिका का गठन हो चुका था तथा नगरपालिका ने अपने प्रांरभिक वर्षों में नगर की स्वच्छता व सुरक्षा पर विशेष ध्यान रखा. तब मालरोड पर यातायात तो पूर्णतः प्रतिबन्धित था, नगर में अवारा पशुओं पर भी पूरी रोक थी. मवेशी पालने पर भी नगरपालिका से लाइसेंस प्राप्त करना होता था. ऐसा नैनीताल हमने अपनी आंखों से तो नहीं देखा, लेकिन जो सुना, उससे सहज अन्दाजा लगाया जा सकता है, यह किसी छोटी विलायत से कम भी नही था. जिसकी इतनी तारीफें सुनी हो, तो भला किसका मन नहीं चाहेगा कि कम से कम एक बार दो नैनीताल का दीदार करना ही चाहिये.

नब्बे के दशक से पूर्व की बात करें तो तब नैनीताल का सफर इतना आसान भी नहीं था. एक तो यातायात के साधनों के नाम पर सीमित संख्या में रोडवेज की बसें हुआ करती. शेयरिंग टैक्सी का चलन नहीं था और टैक्सी बुक कर नैनीताल घूमना काफी महंगा पड़ता. आज की तरह भवाली या हल्द्वानी स्टेशन पर ’नैनीताल-नैनीताल’ की आवाज देकर बुलाने वाले सार्वजनिक वाहन नहीं हुआ करते.  यात्रियों को वाहन तलाशने होते थे न कि वाहनों को यात्री. भवाली से नैनीताल के लिए सुबह व शाम के समय कालेज जाने वाले छात्रों से बसें ठसाठस भरी होती, बड़े बुजुर्गों को तो सीट मिल पाने की हसरत पालना नागवार था. बस पर मधुमक्खियों की तरह झपटते युवा जब सीट पा लेते,  तब बड़े बुजुर्गो को धक्का-पेली कर खड़े होने को भी जगह मिल जाय तो राहत की बात होती, वरना एक पैर जमीन पर टिकाकर दूसरा पैर हवा में लटकाने की नौबत आती. थाने के गधेरे के पास कन्डक्टर बस रूकवाकर खड़े यात्रियों को नीचे उतारकर तब जाकर टिकट बनवा पाता.

परेशानी यहीं तक नहीं थी. उस समय भवाली से नैनीताल का किराया जितना था, उससे कहीं अधिक नगरपालिका नैनीताल का टौल टैक्स हुआ करता. इस टौल टैक्स से बचने के लिए क्या क्या जतन नहीं होते थे, ये उस दौर के भुक्तभोगी यात्री ही समझ सकते हैं. भवाली की ओर से नैनीताल प्रवेश करने पर पाईन्स में गिनती होती और उसी पर्ची के हिसाब से कैलाखान पोस्ट पर टौल वसूला जाता. इसी प्रकार हल्द्वानी की तरफ से आने वाले वाहनों के यात्रियों की गिनती बल्दियाखान में होती और तल्लीताल जेल के पास टौल वसूला जाता, जब कि कालाढॅूगी की ओर से आने वाले वाहनों के यात्रियों की गिनती नारायणनगर में होती और बारापत्थर में टौल वसूली जाती. हल्द्वानी तथा कालाढॅूगी की ओर से आने वाले यात्रियों को यह टौल टैक्स उतना नहीं अखरता, जितना भवाली से नैनीताल आने वाले यात्रियों को. इसका कारण था, भाड़े से अधिक टौल का होना.
(Pines Nainital Bhuwan Chandra Pant)

पाइन्स जिसे अंग्रेजों ने संभवतः चीड़ के वनों की अधिकता के कारण यह नाम दिया हो, लेकिन यह कुछ अन्य कारणों से भी जाना जाता था. नैनीताल नगर का श्मशान घाट पाइन्स के नाले पर था, तथा ब्रिटिश काल में सन् 1850से ईसाई धर्मावलम्बियों का कब्रिस्तान भी यहीं हुआ करता. इसके अलावा आईटीआई एवं बाद के वर्षों में लड़ियाकांटा रडार के लिए रोड का निर्माण तथा उत्तराखण्ड उच्च न्यायालय के कर्मियों के आवासीय परिसर के रूप में भी इसे पहचान मिली. लेकिन हमारे लिए तो पाइन्स नैनीताल नगर में प्रवेश के लिए चुंगी वसूलने का एक पेनल्टी प्वाइन्ट ही था. इस पेनल्टी से बचने के लिए कई तरकीबें ईजाद की गयी थी. अमूमन भवाली से नैनीताल जाने के लिए अधिकांश यात्री केवल पाइन्स का टिकट कटवाते थे.

पाइन्स से या तो पैदल ही 4 किलोमीटर की यात्रा करनी होती अथवा पीछे आने वाली गाड़ी की प्रतीक्षा कर शेष यात्रा अगली बस से पूरी करनी होती थी. तब बसें भी सीमित हुआ करती, अगली बस की प्रतीक्षा करने तक यात्री पैदल ही नैनीताल पहुंच चुका होता. उसी गाड़ी में दोबारा टिकट बनवाने पर चुंगी से बचा नहीं जा सकता था. कहते हैं ना, आवश्यकता आविष्कार की जननी होती हैं और इसका तोड़ निकालने यानि राजस्व पर डाका डालने की युक्ति में हमारा जवाब नहीं. तब इसी हुनर का प्रयोग कर यात्री टिकट तो पाइन्स का कटवाते, लेकिन पाइन्स पहुंचने से पूर्व ही मोड़ पर बस रूकवाकर उतर जाते, ताकि चुंगी कर्मियों की नजरों से बचा जा सके कि अमुक यात्री इसी बस से आया है. जब तक टौल कर्मी बस की सवारियों की गिनती करते, हांफते हुए बस पकड़ लेते और उसी बस में चढ़कर पुनः पाइन्स से नैनीताल का टिकट कटवाते. हां, अगर समय की परवाह न हो तो बस से आराम से उतरकर आने वाली बस की प्रतीक्षा करना बेहतर विकल्प रहता. ये बात और है कि यदि चुंगी कर्मियों से आपकी जान-पहचान है तो गिनती करते समय आप गिनती से बाहर कर दिये जाते और चुंगी कर्मी कन्डक्टर को साफ साफ बता देते कि इनको गिनती में शामिल नहीं किया गया है और  आप चुंगी देने से मुक्त हो जाते. माथे पर चन्दन का त्रिपुण्ड धारण किये पाइन्स पर एक चुंगी कर्मी जय रघुनन्दन अक्सर रहते. यदि वे ड्यूटी में हों उनसे परिचय के नाते  पौ-बारह हो जाती. वैसे नाम उनका पुरूषोत्तम पाण्डे  लेकिन हरेक से मिलते वक्त उनका संबोधन जय रघुनन्दन रहता, एक तरह से उनका यह तकिया कलाम बन चुका था, लोगों ने उनका नाम ही जय रघुनन्दन रख दिया था.

नैनीताल नगरवासी यदि शहर से बाहर जा रहे हों तो उनके लिए यह सुविधा थी कि वे नगर से बाहर जाने पर यदि उसी दिन वापस हो रहे हों, तो 25 पैसे का वापसी पास निकलते समय कैलाखान पोस्ट से लेना होता और वापसी में वह पास दिखाकर उन्हें चुंगी नहीं देनी होती. कुल मिलाकर एक रूपये पचहत्तर पैसे बच जाते. लेकिन कुछ शातिर दिमाग लोग नैनीताल से आने वाले मित्रों से वापसी पास मंगवाकर इस सुविधा का भरपूर लाभ उठा लेते. इस वापसी पास का कितना जायज व नाजायज फायदा चुंगी कर्मियों ने उठाया होगा ये तो वे ही जानें. क्योंकि ये भी तो हो सकता था कि चुंगी कर्मी स्वयं वापसी पास कटवाकर हिसाब में हेरफेर कर लें. खैर-रात गयी बात गयी या लोकभाषा की तर्ज पर कहें तो ’’ फुक्को हाड़ि  ’’ हम जो कौन सा दूध के धुले ठैरे.
(Pines Nainital Bhuwan Chandra Pant)

पाइन्स से बस रवाना होते ही कुछ लीडरनुमा युवा यात्रियों से स्वयं चुंगी वसूली के कार्य में जुट जाते. कायदे से कैलाखान पोस्ट के कर्मी का काम ही यात्रियों से चुंगी वसूलना होता, लेकिन समय की बरबादी न हो इसलिए कभी कन्डक्टर तो कभी यह काम युवा अपने हाथ में लेकर लीडरनुमा अनुभव अर्जित करने से नहीं चूकते.

अगर पेनल्टी प्वाइन्ट को धता बताकर बिना चुंगी दिये बस से सीधे नैनीताल पहुंच जाते तो यह पल बड़ा सुकून भरा होता. सुकून पैसा बचाने का भी और शातिर दिमागी में कामयाबी का भी. अविभाजित उ.प्र. का हिस्सा रहे प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने नब्बे के दशक में  पूरे प्रदेश के साथ नैनीताल के टौल टैक्स को भी समाप्त कर दिया और नैनीताल जाने वाले यात्रियों ने राहत की सांस ली. मुजफ्फर नगर काण्ड के लिए आप तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह को कितना ही गरियायें, लेकिन टौल टैक्स से मुक्ति दिलाने के नाम पर अक्सर उनका नाम स्मरण हो ही जाता हैं.
(Pines Nainital Bhuwan Chandra Pant)


भुवन चन्द्र पन्त

वर्तमान में भवाली रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी . 2014 में भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृति के बाद भुवन चन्द्र पन्त  विविध विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं.

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