काफल ट्री पर आप पिछले कई दिनों से विनोद कापड़ी की आत्मकथा बेरीनाग टू बंबई वाया बरेली पढ़ रहे हैं. 16 नवम्बर को विनोद कापड़ी की फिल्म पीहू रिलीज होने जा रही है. विनोद अपनी फिल्म पीहू से जुड़ी कुछ दिलचस्प कहानियाँ लिख रहे हैं. पीहू की कहनियाँ का पहला भाग.
फ़िल्म रिलीज़ होने में अब 14 दिन बाक़ी हैं. अब से रोज़ पीहू फ़िल्म से जुड़ी कुछ कहानियाँ. सबसे पहले कैसे आया आइडिया और पहली बार कब मिली पीहू?
ये वक्त जून – जुलाई 2014 का रहा होगा. “मिस टनकपुर हाज़िर हो” बन चुकी थी. लेकिन कब रिलीज़ होगी ये पता नहीं था और जब तक फ़िल्म रिलीज ना हो और फ़िल्म अच्छा ना करे, आपको अगली फ़िल्म मिलना असंभव होता है. मेरे केस में तो “टनकपुर” का रिलीज भी तय नहीं था. तो फिर अगली फ़िल्म क्या की जाए? कैसे की जाए? यही सवाल मन में लगातार कौंध रहा था. इसी सवाल का जवाब ढूँढने के लिए खुद से फिर सवाल किया कि किसी भी फ़िल्म को सबसे महँगा क्या बनाता है? जवाब था कि “स्टार्स, एक्टर्स“!! ये जवाब मिलने के बाद फिर सवाल किया कि क्या कोई ऐसी कहानी फ़िल्म हो सकती है, जो बड़े स्टार्स के बिना बने और उसे 200-300 का टिकट ख़रीदकर लोग देखने जाएँ? ये बहुत बड़ा सवाल था और मुश्किल भी. जवाब आसान नहीं था.
कई हफ़्तों तक सोचता रहा कि क्या करूँ? एक विचार आया कि क्यों ना एक ऐसी फ़िल्म बनाई जाए जिसमें सिर्फ एक ही किरदार हो और वो भी कोई छोटा सा बच्चा या बच्ची? जो घर में है? लेकिन कहानी क्या होगी? साक्षी से बात की. वो हमेशा मेरे आइडियाज़ को आगे बढ़ाने की कोशिश करती है पर इस बार वो नाकाम रही. इंडिया टीवी के पुराने सहयोगी रोहित विश्वकर्मा को एक दिन घर बुलाया. रोहित अक्सर आऊट ऑफ़ दि बॉक्स सोचता है. उसे बताया कि यार एक बच्चे या बच्ची की फ़िल्म का आइडिया है पर कहानी नहीं है. कुछ सूझे तो बताना. हम दोनों कई दिनों तक माथापच्ची करते रहे. कुछ समझ नहीं आया. सवाल जस का तस था – बिना कहानी के फ़िल्म कैसे बनेगी?
फिर हुआ एक चमत्कार. 16 अगस्त 2014 का दिन था. तारीख इसलिये याद है कि उस दिन जिस एक घटना का वीडियो मुझे दिखाया गया था, वो आज तक मेरे पास रखा हुआ है. उन दिनों मैं “न्यूज़ एक्सप्रेस” चैनल में था. चैनल बंद होने वाला था पर सब लोग बड़ी ईमानदारी से काम कर रहे थे. इसी दिन चैनल का इनपुट संभाल रहा जैकब मैथ्यू मेरे पास आया… एक छोटे से बच्चे का वीडियो लेकर जो पुलिस को कुछ ऐसा बता रहा था, जिससे कोई भी चौंक सकता था. घटना दिल्ली की थी. पर घटना क्या थी? ये मैं अभी बता नहीं सकता. बताऊँगा तो आपको पीहू की कहानी पता चल जाएगी. मैंने बार बार उस वीडियो को देखा और जैकब से कह दिया कि यार इस ख़बर को ढंग से करना चाहिंए. जैकब चला गया पर वो मुझे मेरी फ़िल्म की कहानी के लिए एक बड़ी लीड दे चुका था. घर जाकर मैंने साक्षी को बताया. वो काफ़ी उत्साहित नज़र आई. रोहित को फिर से घर बुलाया. बच्चे की कहानी और पुलिस को दिए बयान का ज़िक्र किया. रोहित ने भी कहा कि हाँ ये एक बेहतरीन कहानी हो सकती है. मुंबई में रहने वाले एनडीटीवी के अभिषेक शर्मा को फ़ोन लगाया. अभिषेक की समझ का मैं हमेशा से क़ायल रहा हूँ. अभिषेक ने कहा कि कहानी तो ठीक है पर बहुत डार्क हो जाएगी और कमर्शियली शायद कोई हाथ भी ना लगाए. मैंने अभिषेक से फिर सवाल किया – लेकिन कहानी तो हिला देने वाली है न ? जवाब था – इसमें कोई शक नहीं. बेहद प्रिय पराग छापेकर को कहानी के बारे में बताया. उसने भी कहा कि अगर फ़िल्म बन गई तो इतिहास रचेगी. मैंने “अगर” पर ज़्यादा गौर किया.
कहानी के सूत्र मेरे हाथ में आ चुके थे. कहानी को डेवलप करने लगा. पुराने अख़बार और इंटरनेट खंगालने लगा. देखकर हैरान था कि उस बच्चे जैसी कहानियों से इंटरनेट भरा पड़ा है.बस फिर क्या था? लिखना शुरू कर दिया और एक महीने में ही पहला ड्राफ़्ट तैयार था. साथ ही साथ तलाश भी शुरू हो गयी दो साल की बच्ची की. ये तलाश बहुत आसान भी थी और दिलचस्प भी. मुझे एहसास था कि दुनिया का कोई कास्टिंग डारेक्टर दो साल की ऐसी बच्ची नहीं ला सकता था, जो एक्टिंग करना जानती हो या जिसे एक्टिंग का A भी पता हो. इसलिये मुझे तलाश थी एक ऐसी बच्ची की, जिसे देखते ही प्यार हो जाए. फिर एक पार्टी हुई और उसी पार्टी में मुझे मिल गई हमारी पीहू.
दिल्ली मे जैकब ने पार्टी रखी थी. मीडिया के काफ़ी लोगों को बुलाया गया था. इसी पार्टी में मैंने पहली बार पीहू को देखा. एक साल दस महीने की पीहू और सच बताऊँ पहली ही नज़र में पीहू से प्यार हो गया. तुरंत गोद में उठाया. प्यार किया. कुछ ही पलों में रोहित और प्रेरणा की पीहू मेरे जीवन में आ चुकी थी. उस रात मैं पूरी पार्टी में पीहू के आसपास ही रहा और हद तो तब हो गई जब मैं बाक़ायदा पीहू को एस्कॉर्ट करता हुआ घर तक छोड़ कर आया. आज भी यक़ीन नहीं होता कि उस रात मुझे क्या हुआ था.
अगले दिन रोहित और प्रेरणा से बात की. फ़िल्म की कहानी के बारे में बताया. दोनों ने तक़रीबन तुरंत ही सहमति दे दी. सिर्फ इतना ज़रूर कहा कि एक बार वो अपने माता पिता से बात करना चाहते हैं. मुझे पता था कि पीहू अपने बाबा की हो चुकी है (घर के सारे बच्चे मुझे बाबा ही बुलाते हैं. पीहू भी).
अगली कड़ी में बात होगी: पीहू तो मिल गई लेकिन प्रोड्यूसर क्यों नहीं मिला? और फ़िल्म की कहानी लिखने के दौरान मैंने एक बड़ी ग़लती क्या की थी, जिसे पीहू ने सुधारा.
( जारी है )
पीहू फिल्म का ट्रेलर यहां देखें
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