प्रश्न
“पीएचडी का प्राप्य स्टॉकहोम सिंड्रोम है.” प्रियोस्की के इस कथन के प्रकाश में पीएचडी के विभिन्न चरणों की व्याख्या करिये.
(60अंक)
(PhD Stockholm Syndrome)
उत्तर
भारत एक महान देश है. यहाँ समय-समय पर मूर्धन्य विद्वानों द्वारा एमए करने के बाद और विवाह करने के पूर्व पीएचडी का सेवन किया जाता है. यह प्रेमवश (यदि एमए वाली पीएचडी करने लगे), परिस्थितिवश (यदि करने को कुछ न हो), दबाबवश (युवाओं पर एमए करने के बाद विवाह से अधिक पीएचडी का दबाब होता है), रोजगारवश (यदि छात्र नेता आजीवन छात्र नेता बने रहना चाहता है) और कभी-कभी ज्ञानार्जन के लिए की जाती है. जितना दबाब युवाओं पर नौकरी लगने के बाद विवाह करने के लिए होता है, उतना ही दबाब एमए करने के बाद पीएचडी करने के लिए होता है. प्रियोस्की कहते हैं (अंडरलाइन)- कुछ नहीं कर रहे तो पीएचडी कर लो! भारत में उच्च शिक्षा का ध्येय वाक्य (नारा) है. इसके चार प्रमुख चरण हैं-
प्रथम- शोध (रिसर्च) का चरण
द्वितीय- प्रविधि (मैथडॉलजी) का चरण
तृतीय- शोध प्रविधि (रिसर्च मैथडॉलजी) का चरण
चतुर्थ- चरण
प्रियोस्की ने पीएचडी के तीन चरण बताए हैं- परिचय, प्रणय, परिणय.
प्रथम चरण शोध(रिसर्च) का चरण है. इस चरण में गाइड और शोधार्थी एक दूसरे पर शोध करते हैं. प्रारम्भ में गाइड को लगता है मैं किस गधे को पीएचडी करा रहा हूँ, और शोधार्थी को लगता है मैं किस गधे के अंडर में पीएचडी कर रहा हूँ. बहुत से लोग इस पहले चरण को पार नहीं कर पाते.
प्रथम चरण में गाइड उस प्रेमिका की तरह होता है जो प्रेमी के सारे प्रणय निवेदन एक के बाद एक अस्वीकार करती जाती है. वह कभी उसे घर पर मिलने को बुलाती है, तो कभी केंटीन में, कभी ऑडिटोरियम में, तो कभी लाइब्रेरी में. इसी प्रकार गाइड भी शोधार्थी को कभी क्लासरूम में, कभी स्टाफरूम में, तो कभी ड्राइंगरूम में न मिलने के लिए बुलाता रहता है. प्रेमिका की तरह आसमान से चांद-तारे तोड़ लाने जैसी असंम्भव शर्तें गाइड भी रखता है.
गाइड शोधार्थी से आकाश-कुसुम, शश-श्रृंग, चील-मूत्र लाने को कहता है. पीएचडी का पहला चरण शोधार्थी की परीक्षा का चरण है. यह बहुत धैर्य से बिताना होता है. इस चरण में शोधार्थी को बहुत लानत-मलानत, अपमान, तिरस्कार सहना पड़ता है. बाद के चरणों में शोधार्थी इसका अभ्यस्थ हो जाता है. प्रथम चरण में- पीएचडी मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी- की भावना प्रबल रहती है. इस चरण में शोधार्थी को विचलित नहीं होना है. उसे पूरी तरह निर्लज्ज बने रहना है. वह यह कदापि न कहे कि आपके द्वारा चाही गई सामग्री उपलब्ध नहीं है (यह तो गाइड को भी पता है). वह कहे कि श्रीमान, आकाश कुसुम लेने मैं प्रोफेसर शुक्ला के यहाँ गया था, परन्तु उन्होंने आकाश-कुसुम देने से मना कर दिया. यदि गाइड प्रोफेसर शुक्ला की आलोचना करे तो शोधार्थी उसमें पूरे उत्साह से भाग ले. शश-श्रृंग के बारे में कहे कि सर, बब्बू पुस्तक भण्डार वाले ने कहा है कि वह अगले महीने मलखम्भा प्रकाशन से शश-श्रृंग मँगवा देगा. चील-मूत्र के लिये कहे कि मेरे मित्र के मित्र के पास चील-मूत्र की पीडीएफ़ उपलब्ध है. अतिशीघ्र प्राप्त होगी.
सम्भव है कि फिर गाइड कहे- जाओ, अश्वत्थामा बलिर्व्यासो का इंटरव्यू लेकर आओ! तो शोधार्थी पुनः मोटरसाइकिल पर निकल ले. एक महीने उपरांत वापस आकर बताए कि अश्वत्थामा जी का फोन बंद आ रहा है, फिर दूसरे महीने में बताए कि बलि जी के घर पर ताला लगा है, और तीसरे महीने में कहे कि व्यास जी को मेल किया था, रिप्लाई नहीं आया.
गाइड को भी प्रथम चरण में बहुत धैर्य रखना होता है. अन्यथा पांच वर्ष के अवैतनिक सेवक के हाथ से निकल जाने का खतरा होता है. यदि गाइड को शोधार्थी पर क्रोध आए तो वह कल्पना करे कि जेठ की तपती दोपहरी में वह स्वयं फोल्डिंग-पलंग वेल्डिंग कराने ले जा रहा है अथवा पूस की सर्द रात में श्रीमती गाइड को ट्रेन में बिठाने जा रहा है. अर्थात वे समस्त कार्य, जो वह शोधार्थी से करवाने वाला है, उन्हें स्वयं करने की कल्पना करे. इससे गाइड में शोधार्थी को झेलने का सामर्थ्य उत्पन्न होगा.
(PhD Stockholm Syndrome)
इस तरह परस्पर सहयोग से शोधार्थी और गाइड प्रथम चरण पूर्ण कर लेंगे. अब द्वितीय चरण शुरू होगा. दूसरा चरण प्रविधि (मैथडॉलजी) का चरण है. एक दूसरे पर शोध पूर्ण करने के उपरांत अब गाइड और शोधार्थी परस्पर साथ काम करने के मध्यमार्ग की खोज करते हैं. प्रियोस्की इसे प्रणय का चरण कहते हैं.
इस चरण का प्रारम्भ गाइड द्वारा शोधार्थी को अनेक उपाधियां देने से होता है. जी हाँ, पीएचडी की उपाधि से पूर्व शोधार्थी को अनेक लघु उपाधि प्राप्त होती हैं. पहले- पहल गाइड शोधार्थी को स्मरण कराएँगे कि हे नन्दक, हे संजीवक अर्थात बैल, एक वर्ष पूर्ण हुआ और तेरी पीएचडी एक इंच भी आगे न बढ़ी. सम्भव है शोधार्थी- एक वर्ष कितना अल्पकालिक होता है सोचने में एक वर्ष और व्यतीत कर दें. मित्र उसे स्नेहवश- अबे डॉक्टर, ऐरे डाट्टरा जैसे उद्बोधनों से सम्बोधित करने लगते हैं. रिश्तेदार- और क्या कर रहे हो आजकल, अभी पूरी नहीं हुई, कहीं ट्राई किया, ठलुआ हैं लगत, मौड़ी नही मिल रही- कह कर शोधार्थी का अभिनन्दन करेंगे. विवाह पंडालों में पानी के काउंटर के पीछे, और सार्वजनिक समारोहों में मंच के नीचे शोधार्थी छिपने का प्रयत्न करता है, परन्तु मित्र- रिश्तेदार उसे खोज-खोज कर उसका माल्यार्पण करते रहते हैं. हालाँकि ये सामाजिक हमले उन हमलों से कमज़ोर होते हैं जो बैंक-क्लर्क, यूपीएससी-पीएससी की परीक्षा देने वाले पूर्णतः बेरोजगार लोगों पर होते हैं. पीएचडी बेरोज़गारी की ढाल है. जिन्हें यूडीसी-एलडीसी बनना नसीब नहीं होता, उन्हें आरडीसी शरण देती है.
द्वितीय चरण में गाइड का प्रतिरोधी तंत्र शोधार्थी जैसे विषाणुओं को धीरे-धीरे स्वीकार करने लगता है. यद्यपि विकर्षण का भाव बना रहता है. अभी भी चुम्बक के दो समान ध्रुवों की तरह वे एक दूसरे को धकेल रहे हैं. फिर एक दिन गाइड महोदय गम्भीर हो जाते हैं.
शुरुआत शोधार्थी द्वारा गाइड सर का चश्मा ढूंढ कर देने से होती है. गाइड बताते हैं कि जिस रात उनके घर पर होस्टल के छात्रों ने नारेबाजी और पत्थरबाजी की थी, उनकी कोई गलती नहीं थी, वो पूरी रजिस्ट्रार की साजिश थी. शोधार्थी को स्मरण हो आता है कि छात्रों के उस झुंड में वह भी था. वह इस तथ्य को अपने भीतर जज़्ब कर लेता है.
फिर एक दिन शोधार्थी गम्भीर हो जाता है. वो बताता है कि जो उस दिन पुलिस ने हॉस्टल के छात्रों पर लट्ठ भाजन किया था न, उसकी कोई गलती नहीं थी, वो पूरी शत्रु छात्र संगठन की साजिश थी. गाइड को स्मरण हो आता है कि श्री थानेदार जी से लट्ठ भाजन का आग्रह उन्होंने ही किया था. वे इस तथ्य को अपने भीतर जज़्ब कर लेते है.
इस जज़्बा-जज़्बी में जज़्बात उभरते हैं.
शनैःशनैः गाइड और शोधार्थी एक दूसरे से परिचित होने लगते हैं. यूँ ही किसी रोज़ गाइड शोधार्थी को कुछ महत्वपूर्ण कागज़ देने के लिए बुलाते हैं. वह श्रीमती गाइड और श्रीमान गाइड के दवाइयों के पर्चे हैं. आज शोधार्थी को पता चलता है कि गुरुजी के एक वृक्क ने उसकी पीएचडी और गुरुजी के मूत्र, दोनों का रास्ता रोक लिया है. साथ ही गुरु माँ की वाणी की मिठास उनके रक्त में उतर चुकी है. रिफरेंस के लिए पुस्तक तलाश करने के बजाए, शोधार्थी गुरुजी के लिए दवाई तलाशना शुरू कर देता है.
इधर गाइड सर को भी पता चलता है कि बचपन की गलत संगत के कारण शोधार्थी का यकृत वसायुक्त हो गया है. वे उसे पीलिया झाड़ने वाले करीमुल्ला का पता देते हैं. पीएचडी आगे बढ़ती है.
शोधार्थी को यह भी जानकारी होती है कि गाइड और गाइड माँ अपनी इकलौती लड़की के लिये वर की तलाश कर रहे हैं. जिसके लिए वे शोधार्थी को पूर्णतः अनुपयुक्त मानते हैं. अतः अब गुरु कन्या भी गुरु बहन बन जाती है. एक दिन पीएचडी से जुड़ी एक गम्भीर चर्चा के दौरान यह तथ्य निकल कर आता है कि गाइड और शोधार्थी दोनों सगोत्री हैं. गुरुकन्या को बहन बनाने के बाद भी जो थर्टी एमएल उम्मीद शेष थी, शोधार्थी को वह भी समाप्त करनी पड़ती है. अब वह गुरुजी के लिए दवाइयों के साथ-साथ, दामाद भी खोजना शुरू कर देता है. फिर पीएचडी का वह महत्वपूर्ण दिन आता है जिस दिन हर शोधार्थी की परीक्षा होती है.
उस दिन गुरुजी शोधार्थी का परिश्रम, समर्पण देख कर अभिभूत हो जाते हैं. वह दिन है- गुरु बहन के विवाह का. जनवासे से लेकर द्वाराचार तक, और बैंड-बरातियों से लेकर घर-घरातियों तक, शोधार्थी का प्रबंध-कौशल गुरुजी को मंत्रमुग्ध कर जाता है. तीसरा चरण शुरू होता है.
(PhD Stockholm Syndrome)
तीसरे चरण को प्रियोस्की परिणय कहते हैं. गुरुजी के हृदय में शोधार्थी के लिए प्रेम के अंकुर फूट पड़ते हैं. प्रेम के इन पौष्टिक अंकुरों के सेवन से पीएचडी में पुनः नई जान आती है. गुरुजी को समझ आने लगता है कि इस युवा ने बेरोजगारी, भुखमरी, ढलते यौवन, झड़ते केश के वशीभूत हो पीएचडी का कदम उठाया है, अन्यथा यह प्रतिभाशाली छात्र पीएचडी नहीं, पॉकेटमारी करने के लिए बना था. वे भारत की शिक्षा पद्धति को कोसते हैं. शिक्षा प्रणाली ने उसे रिसर्च स्कॉलर बना दिया, अन्यथा वह आवारगी के नवीन प्रतिमान स्थापित करता.
शोधार्थी को भी लगता है कि गाइड सर उतने बुरे नहीं हैं. वक़्त, हालात, तेरह बार कुलपति बनने की, आठ बार रजिस्ट्रार बनने की और पांच बार परीक्षा नियंत्रक बनने की असफल कोशिश ने गुरुजी को इतना कठोर बना दिया है. वरना उनका कोई दोष नहीं है.
रिसर्च की धूप में चल कर, और मैथडॉलजी के खरंजों पर उछल कर पीएचडी अब रिसर्च मैथडॉलजी के राजमार्ग पर आती है. गुरु जी शोधार्थी से कहते हैं कि पातीराम जी के यहाँ जाना है तुम्हें. कल क्वेश्चनेयर बना लाना. शोधार्थी गुरुजी को किंकर्तव्यविमूढ़ सा देखता रहता है. अरे प्रश्नावली, प्रश्नावली! अब शोधार्थी का पूरा चेहरा ही प्रश्नवाचक चिन्ह हो जाता है. वह अपनी आँखों से- मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता कहता है. ठीक है मैं बना दूंगा, कल ले जाना- गुरुजी प्यार से रूठ कर कहते हैं. तीसरा चरण आते-आते शोधार्थी गाइड का मानस पुत्र बन जाता है.
एक दिन गुरुजी अपने मानस पुत्र के जन्मदिन पर उसको एक अमूल्य उपहार देते हैं- देख, इसमें तेरा पेपर छपा है! शोधार्थी गुरुजी के आगे नतमस्तक हो जाता है. फिर थोड़ा लजा कर जर्नल में अपना पेपर देखता है और गुरु जी से पूछता है- क्या लिखा है जामें? अरे क्या करेगा जानकर, जा, गाड़ी सर्विस पर डाल आ- गुरुजी निर्देश देते हैं. और फिर यूँ ही एक दिन शोधार्थी की पीएचडी का वह निर्णायक दिन आ जाता है.
अब गुरुजी को शोधार्थी की अक्षमता को लेकर कोई संदेह नहीं रहा है. एक वक़्त के बाद पीएचडी में वो मुकाम आ जाता है जहाँ पीएचडी शोधार्थी की नहीं, गाइड की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाती है. शोधार्थी को तो अपनी प्रतिष्ठा की चिंता शुरू से ही नहीं थी, पर अब गुरुजी की साख दांव पर है. वे विचार कर निश्चय करते हैं और शोधार्थी को बुलाते हैं- मैं चैनू को बोल आया हूँ. अलग निकाल कर रख दी हैं. चुपचाप झोले में रख कर ले जाना, और फोटोकॉपी करा कर उसे वापस कर देना. और सुनो हजार-पांच सौ कुछ भी दे देना उसे.
शोधार्थी के नेत्रों से कृतज्ञता के आँसू बह निकलते हैं. वह गुरुजी के पाद-पंकजों पर अपना शीश धर देता है. चौड़ा सीना, उन्नत ललाट लिए, वह किसी विश्वविजेता की तरह विश्विद्यालय के अभिलेखागार में प्रवेश करता है. पहुँचकर चैनू को गले लगाता है और अपनी जेब से एक दस का फटा नोट निकालता है. चैनू फटे नोट के टुकड़े को अपने पास रखे बाकी टुकड़े से मिलाता है, मुस्कुराता है, और पूछता है- झोला लाए हो? शोधार्थी किसी सब्जी मंडी में खड़े ग्राहक की तरह झोला आगे कर देता है. चैनू झोले में अभिलेखागार से निकाले गए आलू, भिंडी, घिया धर देता है. छात्र आलू, भिंडी, घिया की सफलतापूर्वक फोटोकॉपी करा कर, चैनू को वापस दे आता है. तीसरा चरण पूर्ण होता है.
पीएचडी का आखिरी चरण, चरण है. इस चरण में गाइड शोधार्थी के चरण में, और शोधार्थी गाइड के चरण में होते हैं. प्रियोस्की इसे स्वतंत्र चरण के रूप में मान्यता नहीं देते हैं. उनका का मत है कि इस चरण के अंत में होने वाले क्रियाकलाप किसी सामान्य परिणय जैसे ही हैं, अतः इसे पृथक चरण नहीं माना जा सकता.
(PhD Stockholm Syndrome)
गाइड शोधार्थी का वायवा कराते हुए भावुक हो जाते हैं. उन्हें लगता है जैसे वे अपने बेटे की उंगली पकड़ कर नर्सरी में दाखिला कराने आये हों. गाइड और शोधार्थी, दोनों को एक दूसरे को विदा करना है, पर दिल नहीं मानता. दोनों एक दूसरे से छुटकारा पाना चाहते हैं, पर एक दूसरे के बिना जी भी तो नहीं सकते. ये बंधन तो प्यार का बंधन है, जन्मों का संगम है. पूरे छत्तीस गुण मिले थे गाइड और शोधार्थी के. इस गांठ को कैसे तोड़ दें? पर होनी को कौन टाल सकता है, और अनहोनी को भी?
शिक्षा व्यवस्था के साथ जो अनहोनी होनी थी, वो हो जाती है. शोधार्थी को पीएचडी अवार्ड हो जाती है. अख़बार के चौथे पन्ने के आधे कॉलम में शोधार्थी इस आशय की घोषणा करता है. प्रियोस्की का मत है कि यदि ज़माना किसी शोधार्थी की बेरोजगारी को लेकर इतने सवाल न पूछे तो वह अपनी पीएचडी की घोषणा कभी अखबार में न करे. मित्रों-रिश्तेदारों की कृपा से शोधार्थी के लिए, उसकी पीएचडी राष्ट्रीय समस्या बन जाती है, और अख़बार में छपवा कर वह सूचित करता है कि अबे गांव वालों, तुम्हारी राष्ट्रीय समस्या का निदान हो गया है.
अब शोधार्थी के जीवन में एक खालीपन है. अद्भुत स्लोमोशन में चली उसकी पीएचडी भी तूफ़ान एक्सप्रेस की तरह आखिर अपनी मंजिल तक पहुँच ही गई. गाइड के जीवन में तो शोधार्थी रूपी और प्रेमिकाएँ आती रहेंगी, पर शोधार्थी के जीवन में दूसरा गाइड नहीं आएगा. तमाम शिकवे-शिकायतों, हास परिहास का एक झटके में अंत हो गया. कभी बाप-बेटा, कभी गुरु-शिष्य, कभी भाई-भाई, कभी भाई-बहन, कभी प्रेमी-प्रेमिका, तो कभी पति-पत्नी. गाइड-स्कॉलर के रिश्ते में कितने रिश्ते छुपे होते हैं. क्या उन सभी का अचानक अंत किया जा सकता है?….
दो वर्ष हो गए पीएचडी किए हुए. गुरुजी की कृपा से शोधार्थी एक महाविद्यालय में मानदेय व्याख्याता है. मानदेय व्याख्याता वह पद है जिसमें न कोई मान है, न देय. त्रियोदशी से लौट कर वह शून्य में देखते हुए अपनी पत्नी से कहता है- मेरे मन में विचार आया है कि मैं भी गुरुजी का प्रतिवर्ष श्राद्ध करूँगा. पत्नी कुकर लाकर उसके समक्ष रख देती है और कहती है- लो, घुइयाँ छीलो! वह कुशलतापूर्वक घुइयाँ छील देता है. अतः पीएचडी का प्राप्य स्टॉकहोम सिंड्रोम है.
(PhD Stockholm Syndrome)
मूलतः ग्वालियर से वास्ता रखने वाले प्रिय अभिषेक सोशल मीडिया पर अपने चुटीले लेखों और सुन्दर भाषा के लिए जाने जाते हैं. वर्तमान में भोपाल में कार्यरत हैं.
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4 Comments
Nimmi yadu
अप्रतिम रचना, श्री लाल शुक्ल की छवि दिख रही है रचनाकार में, अनन्त शुभकामनाए
मनीष कुमार
वर्तमान समय में देश की शिक्षा पद्धति में पीएचडी की यही दशा है।
आपने सटीक एवं चुटकीला व्यंग्य किया है जो कि काबिले-तारीफ है 👍
AKANKSHA
I like your article, it’s showing the reality of PHD. I’m also PhD student. awesome article 👍👍👍
Pragya Dwivedi
एक अरसे बाद कोई व्यंग्य पढ़ा। बुद्धि को काफी पोषण मिला।आपकी रचना शैली सुंदर व मन को आनंदित करने वाली है।आगे भी ऐसी ही रचनाएं हमें पढ़ने को मिलती रहें ऐसी उम्मीद है। शुभकामनाएं