‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया कि जैसे बस्ती और सभ्यता के चिन्हृ उससे आगे नहीं होंगे. आगे मनुष्य नहीं होंगे…लेकिन चेतना तुरंत इस मनःस्थिति से अलग हो गयी-नहीं, आगे के हिमालय के पीछे भी मनुष्य हैं और उनकी सभ्यता है…यह अंत, अंत नहीं है, नजर का धोखा है. मनुष्यों से मनुष्यों तक एक और यात्रा शुरू की जा सकती है…गोपाल ने कहा कि वह ‘ग्वाङ्ख गाड़’ (ग्वाङ्ख नदी) है, जो तिब्बत से आ रही है. ग्वाङ्ख नदी सरहदों से बेखबर हमारी तरफ आकर गोरी से मिल रही थी. उसका पानी भी गोरी के पानी जैसा ही था-दूधिया-उजला पानी.’ (पृष्ठ-68)
(Pathar Aur Pani Book Review)
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, ‘दिनमान’ और ‘दूरदर्शन’ में महत्वपूर्ण पदों पर सेवायें देने वाले नेत्र सिंह रावत की किताब ‘पत्थर और पानी’ हिन्दी यात्रा साहित्य की एक अनुपम कृत्ति है. संभावना प्रकाशन, हापुड़ से सन् 1982 में प्रकाशित यह किताब ‘मुन्स्यारी से मिलम ग्लेशियर’ तक की शब्द यात्रा है. ऐसी शब्द यात्रा जो किताब के आखिर पन्ने पर भी विराम नहीं लेती है. घनघोर और वीरान जंगल में चलायमान ‘हलकारा’ (डाकिया) के भाले में बंधे घुंघरू की खड़म-खड़म-खड़म… खिन-खिन-खिन…आवाज के साथ आज भी अनवरत जारी है. इस नाते यह किताब यात्रा संस्मरण से आगे निकलकर किसी क्षेत्र विशेष की पारिस्थिकीय और मानवीय समाज का चिरकालीन जीवन स्पंदन है.
मिलम ग्लेशियर उत्तराखंड हिमालय की कुमाऊं पर्वत श्रृंखलाओं में स्थित है. लगभग 37 वर्ग किमी. क्षेत्र में यह ग्लेशियर समुद्रतल से 3870-5500 मीटर तक की ऊंचाई पर फैला है. काली नदी की सहायक गोरी नदी का उदगम क्षेत्र यही है. ग्लेशियर से 3 किमी. पहले मिलम गांव होने के कारण इसका नाम मिलम ग्लेशियर है. मिलम ग्लेशियर दुनिया के सुन्दरतम ग्लेश्यिरों में शामिल है. ‘पत्थर और पानी’ यात्रा किताब के लेखक नेत्र सिंह रावत जी का पुश्तैनी गांव गनघर इसी ग्लेशियर के पास है.
‘भारत-चीन युद्ध-1962’ के बाद मध्य हिमालय के सीमांतवर्ती जोहारी और तिब्बती समाज के सदियों पूर्व परम्परागत व्यापारिक रिश्ते अचानक खत्म हो गए थे. इस घटना ने जोहारी जन-जनजीवन को बुरी तरह प्रभावित किया. ‘पानी और पत्थर’ किताब जोहारी समाज की इसी वेदना का प्रकटीकरण है. इस किताब में अपने बचपन से सीधे अधेड़ावस्था में मिलम ग्लेशियर के पास पुश्तैनी गांव गनघर की ओर आए नेत्र सिंह रावत के साथ उनकी पत्नी मीना और पोर्टर-गाइड गोप सिंह (जिसे यात्रा में गोपाल नाम दिया गया है) भी हैं.
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‘ग्लेशियर में रंगीन कपड़े पहने से आंछरियां (देवबालाएं) हर (मोहजाल में फंसा कर गायब करना) लेती हैं, इसलिए रंगीन कपड़े नहीं ले जाना है’. परिवार के लोगों की यह सलाह किताब की शुरुवाती लाइन है. प्रकृत्ति के प्रति स्थानीय मान्यताओं को मानने और न मानने का द्वन्द्व लेखक के मन-मस्तिष्क में यहीं से शुरू हो जाता है. मुन्स्यारी से लीलम, बोग्ड्यार, रुप्सी बगड़, पंचपाल उड्यार (पंचपालों की गुफा), राड़गाड़ि, मांपाङ, रिल्कोट, टोला, मिलम और गनघर से गुजरते हुए ऐसी ही अनेक मान्यताओं, किस्सों, घटनाओं और अनुभवों का जिक्र करते यह यात्रा अपने मुकाम पर पहुंचती है.
लेखक के लिए मिलम ग्लेशियर की यह यात्रा जाने से ज्यादा एक यात्री का अपनी जड़ों की ओर लौटना है. बचपन को छू कर उससे मुलाकात करना है. सारे रास्ते भर उसका रोमांच और रोमांस अपनी बचपन की यादों के साथ चलता रहता है. वह थकता है, तो उसे बचपन में इन्हीं रास्तों पर मां की पीठ में चढ़ने वाली जिद्द याद आ जाती है. कल्चूनिया पक्षी को देखता है तो ‘काली छूं, कल्चूनी छूं, बडे़ बाप की बेटी छूं…’ बचपन में सुना गीत गुनगुनाने का मन होने लगता है. असल में साथ चल रहे दो साथियों (मीना और गोपाल) के अलावा उसकी बचपन की यादें भी उसके साथ-साथ चल रही हैं. यादों का क्या कभी भी मुहं उठा कर सामने खड़ी हो जाती हैं. अब आगे बढ़ने से पहले उनसे निपटो. राह चलते खतरनाक स्थिति, रात और अकेलापन हो तो जाने क्यों बचपन में सुनी डर वाली बातें ही ज्यादा याद रहती हैं ? अब यही देख लो राड़गाडि में लेखक पहुंचा ही था कि बचपन में सुना उस जगह का राक्षस याद आ गया. आपसे भी मुलाकात कराता हूं उस राक्षस की- ‘यदि कोई अकेला राही राड़गाड़ि में ठहर जाए तो आधी रात में दूर पहाड़ों से ‘लागो’ (पिचाश) की आवाज आती है – ‘एकौल छई, द्वकौल’(अकेला है या दूसरा भी है साथ में?)… पिचाश को उल्लू बनाने के लिए उसे बुलंद आवाज में जवाब देना पड़ता है – द्वकौल छुंई-द्वकौल (दो हैं जी, दो हैं (द्वकौल में दो से ज्यादे का अर्थ भी निहित है)… यह जवाब मिल गया तो पिचाश चुप हो जाता है, न मिला या कहने वाला कह गया कि वह अकेला है तो वह पिचाश पहाड़ों से उतर आता है ‘थौड़’ (अड्डे) तक और राही को खा जाता है.’ (पृष्ठ- 29)
ये यात्रा किताब बताती है कि बचपन के अहसास को छूने की कितनी उत्सुकता और जल्दी होती है. ‘हाथ में बर्तन लेकर मैं गोरी की तरफ लपका. पानी लाने की उतनी जल्दी नहीं थी, जितनी उसे छूने और चखने की जल्दी थी. गोरी के पानी को छूते ही मैंने महसूस किया कि वह वैसा ही है, जैसा तीस-बत्तीस साल पहले था… हल्का दूधिया, जिसे पीते वक्त ठंड से दांत सुन्न हो जाते हैं. पानी आंतों से नीचे उतरता है तो नानी याद आ जाती है. उसे पीते वक्त लगभग किलकारते हुए औरतें कहती ही हैं- ‘हे आमा ऽ ऽ ऽ, दांत कुनी गे’ (ओ मां, दांत सुन्न हो गये)…’(पृष्ठ-28)
यात्रायें पर्यटक के लिए रहस्य और रोमांच होती हैं, पर स्थानीय व्यक्ति के लिए निपट आय उपार्जन का ही साधन है. क्योंकि प्रकृत्ति के रहस्य और रोमांच का वह भोगी नहीं वरन भुक्तभोगी होता है. लेखक की अपने पोर्टर से बातचीत इस तथ्य को बखूबी समझा देता है. ‘बोझ उठाकर वह साथ चलने लगा तो मैंने उसे समझाने की कोशिश की-बिस्तर तुम्हारे पास नहीं है, पैर में जूते नहीं हैं और जा रहे हो जोहार-मिलम ग्लेशियर…. गोप सिंह अपना बिस्तर न रखने की बात तो गोल कर गया, लेकिन जूते के विरुद्ध उसकी टिप्पणी थी –कपड़े के जूते पर कौन पैसे बरबाद करेगा ? पिछले महीने चैदह रुपए में कपड़े के जूते लिये थे, लेकिन सात दिन भी नहीं चले…’ (पृष्ठ-16)
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मिलम ग्लेशियर पार करते हुए गोपाल (पोर्टर-गाइड) को देखते हुए नेत्र सिंह रावत की नज़र आपके नज़र हाजिर है- ‘वह आगे बढ़ा तो मैं उसके नंगे पैरों के रूखे-सूखे और चिरे (फटे) हुए तले देखता रहा, कुछ देर तक. बर्फ से आंशिक बचाव का यही एक उपाय था कि वह तेज चले. बर्फ पर नंगे पैर चलने की मजबूरी मैंने भी अपनी किशोरावस्था में झेली है. बर्फ पर पैर पहले ठिठुरते हैं और ठिठुरते-ठिठुरते इस हद तक बेजान हो जाते हैं कि ठंड की अनुभूति से परे चले जायें. फिर एक खास तरह की जलन शुरू हो जाती है और सुन्न पैरों को झनझनी छेदने लगती है. उपचार न किया तो बर्फ से जले हुए अंग जख्मी हो जाते हैं, उनमें दाग रह जाता है.’ (पृष्ठ-34)
यह यात्रा किताब व्यक्ति के मन में उपजी कई ऊहापोहों का जिक्र करते हुए बेफ्रिकी में आगे बढ़ती रहती है. ‘गांव लौटते हुए मैंने मीना से कहा कि तेज चलें. पानसिंह जी और गोपाल को पीछे छोड़ देते हैं. ये लोग बकरी लायेंगे मारने के लिए तो उसे देखकर मन खराब होगा. मीना को मेरी बात जंच गयी क्योंकि मेरे भीतर जो नेकी फड़फड़ा रही थी, वह उसके भीतर भी थी. बकरी को मारते हुए नहीं देखने के बाद मांस खाना ‘अप्रत्यक्ष हिंसा, हिंसा न भवति’ जैसी कई और भी नेकियां मेरे भीतर फंसी हुई हैं, जिन्हें बाहर निकालना शायद इस जन्म में मुमकिन नहीं.’ (पृष्ठ-56)
यात्रा के तीनों यात्री खतरों के खिलाड़ी जरूर हैं पर खतरों की भयानकता से अंजान नहीं हैं-‘ग्लेशियर के मुहाने के पास एक पत्थर पर बैठकर मैंने पत्नी से एक-एक शब्द पर वजन देते हुए कहा-देखो मीना, मन डर गया हो तो यहीं से लौट जाते हैं… मुमकिन है कि कहीं पैर फिसल जाए और हममें से कोई दरार के भीतर समा जाये… ग्लेशियर पर जो लोग चढ़ते हैं उनके पास तरह-तरह के उपकरण होते हैं… हमारे पास क्या है? फक़त खाली हाथ… आग, पानी, बर्फ… के साथ अभिमानपूर्वक छेड़खानी नहीं करनी चाहिए. किसी को कुछ हो गया तो कौन आयेगा यहां हमें बचाने? (पृष्ठ-76)
‘मिलम लौटने का मतलब था रात को ग्लेशियर के हवाले हो जाओ. तो क्या इस रेवाड़ पर रात भर पड़े-पड़े ठंड से मर जायें? ग्लेशियर पार करने का सुझाव देकर आज मरवा दिया उत्तम सिंह सयाना ने. मिलम की तरफ आवाज देने का सवाल ही नहीं उठता था क्योंकि गोरी की आवाज उसे निगल जाती.’ (पृष्ठ-80)
बिना संसाधन और बिना तैयारी के अपनी सामर्थ्य और जज़्बे को साथ लिए यह मिलम ग्लेशियर यात्रा नेत्रसिंह रावत और गोपाल के ज्यादा मीना रावत जी के हौंसलों को सलाम करती है – ‘…समुद्र की तह से कितना ऊंचा होगा? आंकड़ेबाज जाने. ऐसे आंकड़े उन सैलानियों के पास ज्यादा होते हैं जो तंबू के भीतर जाकर, तंबू के बाहर आकर या शेर की बेचारी खाल पर चढ़कर फोटो खिंचवाते हैं. अपनी फोटो छपवाने के लिए यात्रा करने वालों का नाश हो! करीब एक घंटे में हम दूसरे छोर पर पहुंच गये थे और गोरी बायीं तरफ चली गई थी. मुहाना कोण (ऐंगल) बदल जाने के बावजूद वैसा ही भयावह दिख रहा था, लेकिन आत्मा फूल की तरह हल्की हो गई थी… मीना की तारीफ में मुझे जो सूझा वही मुंह से फूटता रहा- ग्रेट, विजेता तुम हो, हम कुछ नहीं हैं…’ (पृष्ठ-78)
‘पत्थर और पानी’ यात्रा किताब आज से 40 साल पूर्व ‘मुन्स्यारी से मिलम ग्लेशियर’ तक 56 किमी. की एक पैदल यात्रा की साक्षी है. आज से लगभग 40 साल पहले (सन् 1980) की यह यात्रा उससे भी 40 साल पूर्व (सन् 1940) के जोहार संस्कृति के कई आकर्षक बिम्बों को सामने लाती है. वास्तव में यह यात्रा वृतांत अतीत के साये में वर्तमान का आंकलन करते हुए भविष्य की ओर चलायमान है. जोहार में प्रकृति की धमक आज भी वैसी ही है, बस इंसान की चमक फीकी हुई है. गदराई गोरी नदी का प्रवाह उसी लय-ताल में है, परन्तु उसके तट पर बसी जोहारी सभ्यता वहां सिमटने को है. स्थानीयता बनाम आधुनिकता का संघर्ष इस यात्रा में कदम-कदम पर है. यह जोहार के अतीत का गुणगान करती है पर खुद अतीतजीवी नहीं है. जोहार की गोरी नदी के तेज प्रवाह की तरह जोहारी संस्कृति के तेजी से बदलते रंग-ढंग की जीवंतता और ताजगी इस किताब में है.
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वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.
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