उत्तराखण्ड में शाक्त परम्परा की महाशक्तियों के पूजन की प्रथा बहुत पुरानी है. उत्तराखण्ड के जनमानस में सबसे बड़ा धार्मिक प्रभाव भगवान शिव और उनकी अर्द्धांगिनी पार्वती का रहा है. पार्वती के ही विभिन्न रूपों को इन महाशक्तियों की तरह पूजा जाता रहा है. इन महाशक्तियों को दुर्गा, काली, चामुंडा, कालिका, महाकाली जैसे अनेक नामों से संबोधित और पूजित किया जाता रहा है.
भगवान शिव कैलाश के वासी हैं और उनकी अर्धांगिनी शक्ति हिमालय-पुत्री शैलजा-गौरी-पार्वती. यह अनुपम युग्म शताब्दियों से उत्तराखण्ड में पसरे समूचे हिमालयी विस्तार की आस्था के सबसे बड़ा केन्द्र रहा है. जिस तरह भगवान शिव अनेक रूपों और आकारों में यहाँ उपस्थित हैं ठीक यही बात पार्वती के लिए भी कही जा सकती है. इस दैवीय युग्म को समर्पित मिथकों, कथाओं और वृत्तांतों की संख्या इतनी अधिक है कि उनका ठीक-ठीक अनुमान तक लगा पाना मुश्किल है.
उत्तराखण्ड में महाशक्ति के पूजन की परम्परा में जो अनगिनत देवालय बनाए गए हैं उन्हें मोटे तौर पर दो वर्गों में बांटा जा सकता है. पहले वर्ग में वे मंदिर आते हैं जिनमें शक्तिस्वरूपा देवी माँ की मूर्तियाँ स्थापित हैं. ऐसे मंदिरों में मुख्यतः दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी, महिषमर्दिनी, हर-गौरी और चामुंडा आदि की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं. दूसरे वर्ग में ऐसे देवालय आते हैं जिनमें देवी को किसी शिला या उसके विग्रह के रूप में पूजा जाता है. इन देवस्थानों में कसारदेवी, पुन्यागिरी, जाखनदेवी, विन्ध्यवासिनी समेत अनेक स्थान मौजूद हैं.
नैनीताल की सबसे बड़ी शक्तिस्थली के रूप में नैनादेवी मंदिर का नाम असंदिग्ध है. इन्हीं के नाम पर सरोवर और नगर का नामकरण भी हुआ बताया जाता है. पौराणिक मिथक है कि दक्ष प्रजापति अपनी पुत्री पार्वती का विवाह शिव से नहीं करना चाहते थे लेकिन दैवीय आग्रह के चलते उन्हें ऐसा करना पड़ा. विवाह के कुछ समय बाद जब दक्ष प्रजापति ने अपने घर में हो रहे एक यज्ञ में सभी देवताओं को तो बुलाया लेकिन शिव को नहीं बुलाया तो इसे अपने पति का अपमान जान कर पार्वती आहत हो गईं. दुखी पार्वती ने यज्ञ के हवनकुंड में यह कहते हुए कूद लगा दी कि वे अगले जन्म में भी शिव को ही अपना जीवनसखा चुनेंगी. जब महादेव को इस घटना का पता चला वे अत्यंत क्रोधित हुए और उन्हीने उन्होंने अपने गणों की सेना की मदद से दक्ष प्रजापति के यज्ञस्थल को तहस-नहस कर डाला. अकारण सती हो गयी अपनी अर्धांगिनी के दग्ध शरीर को देख शिव वैरागी हो गए और पार्वती के शरीर को लेकर अंतरिक्ष में इधर-उधर भ्रमण करने लगे. माना जाता है कि पार्वती की देह से अलग होकर उनके अंग जहाँ-जहां गिरे वहां शक्तिपीठें स्थापित हो गईं. माता पार्वती के नयन नैनीताल में गिरे और उनसे निकली आंसुओं की धारा से सरोवर का जन्म हुआ. इसकी स्मृति में नैनीताल के मल्लीताल में फ्लैट्स के किनारे माता नयनादेवी का मंदिर ठीक उस जगह पर है जहाँ से तल्लीताल की तरफ जाने के लिए ठंडी सड़क आरम्भ होती है.
इसी ठंडी सड़क पर चार-पांच सौ मीटर आगे जाने पर, झील के लगभग बीचोबीच के बिंदु के समीप दाईं तरफ सड़क से लगी पहाड़ी पर एक और महत्वपूर्ण देवी मंदिर है जिसे पाषाण देवी का मंदिर कहा जाता है. जैसा कि ऊपर बताया गया अंतरिक्ष में भ्रमणरत शिव के कंधे पर पड़ी माता पार्वती की जली हुई देह से गिरे नेत्रों से नैनीताल सरोवर बना. मिथक यह भी है कि अयारपाटा की पहाड़ी के दक्षिण-पूर्वी तल पर उस देह से ह्रदय और अन्य हिस्से (अर्थात पाषाण) गिरे. उसी स्थान पर पाषाणदेवी का मंदिर स्थापित है.
पाषाणदेवी के इस मंदिर में देवी की पूजा शिला में उभरी एक आकृति के रूप में की जाती है. आकार में विशाल इस शिला में देवी दुर्गा के नौ स्वरूपों का दर्शन होता है. यह एक अद्वितीय चट्टान है. माना जाता है कि इस चट्टान पर माँ का मुख दिखाई देता है जबकि उनके पैर नीचे झील में डूबे हुए हैं.
मंदिर के परिसर में हनुमान की प्रतिमा के अलावा एक शिवलिंग भी है. नवदुर्गा का रूप मानी जाने वाली चट्टान को देवी के मुख का रूप देकर सुसज्जित किया गया है. यहाँ आने वाले श्रद्धालु देवी को सिन्दूर अर्पित करते हैं और सिन्दूर ही से देवी की प्रतिमा का श्रृंगार किया जाता है.
नैनीताल की आधिकारिक खोज शाहजहांपुर के रौजा के रहने वाले व्यापारी पीटर बैरन ने की थी. बैरन की किताब ‘नोट्स ऑफ़ वान्डरिंग्स इन द हिमाला’ के हवाले से कहा जा सकता है कि पाषाण देवी का मंदिर नैनीताल का सबसे पुराना मंदिर था. इस मंदिर में आसपास के गाँवों के पशुचारक लोग दूध और मट्ठा चढ़ाया करते थे. ग्रामीणों में पाषाण देवी का आज भी वही स्वरुप पूज्यनीय माना जाता है. मान्यता है कि पाषाण देवी के मुख को स्पर्श किये हुए जल को लगाने से त्वचा रोगों से तो मुक्ति मिलती ही है, प्रेतात्माओं के पाश से निकलने की राह भी खुलती है.
बताया जाता है कि नव दुर्गा रूपी शिला के नीचे एक गुफा है जिसके भीतर नागों का वास है. हर वर्ष शरद की नवरात्रियों के दौरान इस मंदिर में नौ दिनों तक लगातार पूजा-आराधना चलती है. इस दौरान भगवती पूजन, हवन यज्ञ, कन्या पूजन, सुन्दर कांड का पाठ, गणेश पूजन, पंचांगी कर्म, श्री रामचंद्र परिवार का पूजन और अखंड रामायण पाठ जैसे अनुष्ठान होते हैं. पाषाण देवी मंदिर में पूजा का जिम्मा पिछली पांच पीढ़ियों से नैनीताल के ही निवासी भट्ट परिवार के पास है. फ़िलहाल मंदिर के पुजारी जगदीश चन्द्र भट्ट हैं जो पूर्व पुजारी स्वर्गीय भैरव दत्त भट्ट के सुपुत्र हैं.
जगदीश चन्द्र भट्ट बताते हैं कि मंदिर की स्थापना के समय से ही यहाँ एक अखंड ज्योति प्रज्जवलित है. पुजारी द्वारा प्रतिदिन सुन्दरकाण्ड एवं दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाता है. श्रावण और माघ के महीनों में नियमित पाठ के अतिरिक्त रुद्राभिषेक भी किया जाता है. देवी को चढ़ाए जाने वाले श्रृंगार को उनके वस्त्रों की मान्यता है. जगदीश चन्द्र भट्ट यह भी बताते हैं माता दुर्गा को चढ़ाए जाने वाले अभिमंत्रित जल को प्रत्येक दस दिन में एक बार निकाला जाता है और उसे हकलाहट और अन्य ऐसी ही व्याधियों के रोगियों को औषधि के रूप में दिया जाता है. मंदिर के परिसर में निर्मित हनुमान प्रतिमा और शिवलिंग बाद में स्थापित किये गए थे. यही बात मंदिर के समीप स्थित गोलू देवता के थान के बारे में भी सत्य मानी जाती है.
लोकमान्यता के अलावा पौराणिक और ऐतिहासिक साक्ष्यों की मानें तो नैनीताल का पाषाण देवी मंदिर उत्तराखण्ड के सबसे पुराने शिला-शक्तिपीठों में से एक है.
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