वो मरने ही आया था यहाँ. देवीधुरा पहाड़ की चोटी पर बना ग्राम देवता का वह मंदिर अब खंडहर में तब्दील हो चुका था. आधी गिर चुकी दीवाल से पीठ लगा पानदेब भूखे पेट की ऐंठन को दबाने का भरसक प्रयत्न कर रहा था. पिछली रात से कुछ खाया-पिया नहीं था उसने. देह की जलन असह्य हो चली थी. लगातार खुजाने से शरीर में जगह-जगह से लहू चुहचुहा कर टपकने लगा था. पलकों तक फैल चुकी चेहरे की सूजन अब दृष्टि का दायरा बाधित करने लगी थी जिससे सब कुछ धुंधला दीख रहा था. वो बदहवास होकर अपने हाथ-पाँवों पर मिट्टी मलने लगा. Pan Bahadur Devidhura Story Umesh Tewari Vishwas
पानदेब अपनी पत्नी और दो छोटे-छोटे बच्चों को सोता छोड़ अपने गाँव स्यूड़ा से भाग आया था. लगभग दो हफ़्ते पहले उसकी देह पर कुछ मामूली दाने उभरे जो देखते-देखते बड़े होकर सारे बदन पर फैल गए. पूरा शरीर लाल भभूका बन गया. चेहरा बंदर की तरह लाल हो गया. साँस लेने में भी तकलीफ़ होने लगी. औरत ने सेंटर से कुछ गोलियां लाकर खिलाईं पर बेअसर रहीं. एक पड़ोसी ने भैंसिया पित्त बताये तो उसके शरीर पर भैंस का गोबर मला गया पर हालत सुधरने के बजाय ज़्यादा ख़राब हो गई. अब त्वचा जगह-जगह से फट रही थी. झाड़-फूँक करवाने से भी आराम नहीं मिला. उल्टा, जाते-जाते जगरिया हिदायत दे गया कि उसके बदन को कोई हाथ से न छुए. बीमारी के चंगुल में आने से पहले वह सपत्नीक निर्माणाधीन सड़क पर पी डब्लू डी गैंग में काम कर रहा था. इस हालत में पानदेब के लिए न काम करना संभव था न उधार सामान जुटाना. बच्चों को साथ लेकर औरत काम पर चली जाती तो पानदेब का दिन काटे न कटता. उसकी रहस्यमय बीमारी की बात स्यूड़ा और आसपास के गाँवों में फैलते देर नहीं लगी. झोलाछाप डाक्टर का इलाज भी जब कारगर न हुआ तो उसने पानदेब की बीमारी को ‘डबल छूत’ डायग्नोस कर दिया. इससे पानदेब का संपर्क शेष विश्व से लगभग समाप्त हो गया. गांव वालों ने उसके घर के पास से आवाजाही भी कम कर दी. इस तरह बहिष्कृत किये जाने की पीड़ा पानदेब लिए अझेल हो चली थी. उसने फ़ैसला किया कि वह गाँव में किसी क़ीमत पर नहीं रहेगा. न हो, किसी ऊँची धार से खाई में कूद कर जान दे देगा ताकि अंतिम संस्कार के लिए भी किसी को उसका शरीर न मिले. सोती पत्नी पर उसने निगाह डाली, उसका चेहरा कंबल से ढका हुआ था और दोनों बच्चे उससे चिपट कर सो रहे थे. पानदेब की आंखें भर आईं और गला रुँध गया. धुंवैले कमरे को दो भागों में बाँटती डोर पर लटकी पत्नी की पुरानी धोती को उसने सिर पर डाल लिया और मुँह-अंधेरे ही गाँव से निकल गया. उसका अनुमान था उसे किसी ने नहीं देखा. हाँफते-काँपते तीन-चार मील की खड़ी चढ़ाई पार कर पानदेब दोपहर बाद देवीधुरा पहाड़ की चोटी पर पहुंच गया. Pan Bahadur Devidhura Story Umesh Tewari Vishwas
खंडहर पर जहां उसने पीठ टिकाई थी उसके पीछे तीन विखंडित दीवारों के मध्य मूर्ति स्वरुप एक गंगलोड़ स्थापित था. पास ही तेल-कालिख से चीकट लोहे का त्रिशूल कम दीपक औंधा पड़ा था जो यह बताने को काफ़ी था कि ये किसी लोक देवता का मंदिर रहा होगा. देवदार की लंबी-लंबी डालियाँ खंडहर को जैसे छा रहीं थी. पानदेब के मन में देवदार की शाखा पर पत्नी की धोती से फाँसी खा लेने का विचार उभरा. उधरी दीवाल पर चढ़कर वह आसानी से धोती का फंदा बनाकर लटक सकता था लेकिन मंदिर में आत्महत्या करने को उसके संस्कार गवारा न कर पाए. उसने फाँसी का विचार त्याग दिया ‘यदि उसे बाघ खा जाए तो उससे अच्छी मौत क्या होगी! इस भासी जंगल में रात को बाघ अवश्य आता होगा,’ उसने जैसे अपने आप से कहा. पत्नी की धोती को कंधे से हटाकर पेट पर कसकर लपेट लिया उसने. अब जबान बुरी तरह सूख रही थी और साँस लेने में काफ़ी कष्ट होने लगा था. विक्षिप्तों जैसी अवस्था में उसने पास उगे झाड़ पर झपट्टा मारकर पत्तियां तोड़ ली और चबा कर खाने लगा. पत्तियों का रस गले से उतरते ही उसे मूर्छा सी आने लगी. लगा अंत आ गया. दीवाल से सटकर सीधे बैठने की बड़ी कोशिश की उसने मगर पीठ को रगड़ता हुआ वह एक ओर लुढ़क गया.
पानदेब की चेतना लौटी तो सुबह हो चुकी थी. उगते सूरज का निमैला घाम उसके शरीर को ऊर्जा दे रहा था. उसे आश्चर्य हुआ कि वह सब कुछ साफ़-साफ़ देख पा रहा है. हाथों से चेहरा छुआ तो सूजन कम महसूस हुई. पलकों का भारीपन जा चुका था. शरीर में पहले सी जलन और खुजली भी नहीं थी. महिनों बाद उसे अंतहीन लगने वाली बेचैनी से राहत मिली थी. पानदेब को पहली बार अपने रोगमुक्त हो सकने की संभावना नज़र आने लगी. तालू सूखने का आभास होते ही उसका ध्यान उस पौधे की ओर गया जिसकी पत्तियाँ चबाते हुए उसे नींद आ गई थी. अनायास ही उसके हाथ झाड़ की तरफ़ बढ़ गए. वो कुछ देर तक उसकी पत्तियों को सहलाता रहा और फिर पागलों की तरह झाड़ को बाहों में समेट कर दहाड़ें मार कर रोने लगा.गाँव में बेसहारा छूटे मासूम बीबी-बच्चों का ध्यान आते ही उसकी जीने की इच्छा बलवती हो उठी.
धार के बाएं छोर से ऊपर चढ़ते जानवरों के गले की घंटियों के स्वर घाटी में गूंज रहे थे. कुछ ही देर में ग्वाले की ‘आ ले ले’ सुनाई पड़ी. ग्वाले की आवाज़ सुनते ही पानदेब के मन में खलबली सी मच गई. वह आवाज़ की दिशा में लगभग दौड़ पड़ा लेकिन कुछ कदम चलकर रुक गया, ‘क्या होगा अगर ग्वाले ने उसकी बीमार त्वचा देखकर मुँह न लगाया तो ?’ तिरस्कार की कल्पना मात्र से उसका हृदय विषाद से भर गया. उसे भूख लगी थी, लगा ये ख़तरा तो उठाना ही पड़ेगा. भूख और आशंकाओं से जूझता पानदेब धोती को सिर से कमर तक कम्बल की तरह लपेट कर, आवाज़ की दिशा में चल दिया. Pan Bahadur Devidhura Story Umesh Tewari Vishwas
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उत्तरांचल राज्य बनने की घोषणा हो गई थी. राज्य आंदोलन से जुड़े तमाम संगठनों और लोगों के लिए यह एक बड़ी जीत थी. आम जनता के बीच भी हर्षोल्लास न सही एक उम्मीद का माहौल अवश्य बन गया था. अधिकांश इसे एक छोटे पर्वतीय राज्य का उदय मान रहे थे. सुखाभास ऐसा कि थोड़ी देर के लिए आंदोलन की शहादतों का दर्द भी नेपथ्य में चला गया. उत्तरांचल क्षेत्र के जिन नेताओं का उत्तर प्रदेश की राजनीति में दखल था उन्हें नए राज्य में अपने शानदार राजनीतिक भविष्य की संभावनायें दीख रहीं थी. हालांकि जानकार हर सेक्टर में रोज़गार बढ़ने की भविष्यवाणी कर रहे थे लेकिन राजनीति में भारी स्कोप माना जा रहा था. वैसे तो राज्य आंदोलन ने सैकड़ों नेता पैदा कर दिए पर बड़े राजनीतिक दलों से जुड़े नेतागण बावले हुए जा रहे थे, आख़िरकार सरकार तो पार्टी की ही बननी होती है. दूसरी ओर आंदोलन में अगुवा रहे क्षेत्रीय दलों के लीडर राज्य निर्माण का श्रेय लेने को जनसभाओं के माध्यम से अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज़ करवा रहे थे. उन्हें अपना भविष्य उज्ज्वल ही नहीं, पकड़ में भी नज़र आ रहा था. मन की क्यारी में सत्ता का अनदेखा पौधा अंकुरित हो मीठी-मीठी गुदगुदी कर रहा था. वो रात के रात दिल्ली-लखनऊ दौड़ पड़ते. ऊपर वाले, नीचे वाले, बीच वाले अपनी दावेदारी एक सीढ़ी ऊँची करके पेश करते. मोटे तौर पर ब्लॉक प्रमुख स्तर के नेता विधायकी का सपना देख रहे थे और उत्तर प्रदेश में विधायक-मंत्री रहे मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार बन कर उभर रहे थे. कुल मिलाकर अब उत्तरांचल में नेतागिरी का स्वर्णिम काल तय था. यहाँ की राजनीति में अभी खर्चे का या कहें निवेश का टाइम था.
बहादुर सिंह की छवि पैसे वाले असामी की है. पहाड़ में उसकी सौ-डेढ़ सौ नाली पुश्तैनी ज़मीन और तराई में पचीस एकड़ का फार्म है. मुख्य धंधा खड़िया पाउडर बनाने और रेता-बजरी ठेके का है. अधिकांश संपत्ति और रसूख बहादुर सिंह के स्वर्गवासी पिता का कमाया हुआ है जिनको इलाक़े में लोग पधान जी के नाम से जानते हैं. खनन के व्यवसाय में अच्छा मुनाफ़ा है पर अपराध बहुत है. कुछ समय पहले उसके बिजनेस पार्टनर की डम्पर के नीचे आकर रहस्यमय मौत हो गई थी. कहते हैं, इसमें ख़ुद बहादुर का हाथ था लेकिन रिपोर्टों आदि में उसका नाम कहीं नहीं आया. मामले की सी बी आई जाँच का मुद्दा भी विरोधी उठाते रहते हैं. उसके ड्राइवर पर चल रहे ग़ैर इरादतन हत्या के मुकदमे में अभी फ़ैसला नहीं आया है.
राजनीतिक दायरे में बहादुर की अच्छी पकड़ है. ज़िले के अधिकारियों से वह मधुर संबंध बना कर रखता है. कुछ के साथ तो रोज़ का उठना-बैठना है. उसके ज़्यादातर काम एक फ़ोन पर हो जाते हैं. स्थानीय विधायक उसके ससुरालियों का नज़दीकी रिश्तेदार है. वो बहादुर को अपनी पार्टी में शामिल होने के कई ऑफर दे चुका है. पॉलिटिक्स का कीड़ा बहादुर के अंदर कॉलेज की पढ़ाई के दौरान से था. उसने छात्र संघ का एक चुनाव भी लड़ा लेकिन मामूली वोटों से हार गया. दरअसल, उसका झुकाव मुख्य राष्ट्रीय दलों की ओर न होकर एक रीजनल पार्टी की ओर था. हालाँकि, चंदा वह सभी को देता रहा है पर इस क्षेत्रीय दल के एक बड़े नेता को आंदोलन के दौर से ही ख़ासी आर्थिक मदद करता आया है. पार्टी का मैदानी क्षेत्र का कार्यालय आज भी नैनीताल रोड पर स्थित उसके भवन से ही चलता है. यह समय बहादुर सिंह के लिये भी अतिरिक्त भागदौड़ करने का था. परेशानी की बात ये थी कि बहादुर सिंह बीमारी की चपेट में आ गया था. रोग असाध्य न था किंतु वो नहीं चाहता था कि बात आम हो जाये. उसे ख़ूनी बवासीर हो गई थी, न चलते बनता था न बैठते. दिल्ली के एक मशहूर डॉक्टर का इलाज भी चल रहा था जो उसे निकट भविष्य में ऑपरेशन करवाने की सलाह दे चुका था. Pan Bahadur Devidhura Story Umesh Tewari Vishwas
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प्रांतीय राजमार्ग पर जिस स्थल से देवीधुरा पैदल मार्ग आरंभ होता है वहां पिछले कुछ महीनों में काफी विकास हुआ है. रास्ते के शुरुआती पचास-साठ फुट तक लाल ईटों का खड़ंजा हो गया है. ग्रामसभा ने बल्लियों और रस्सियों की मदद से पाँच रुपए सहयोग राशि वाली पार्किंग भी बनवा दी है. सड़क के दोनों ओर कई छोटी-छोटी दुकानें खुल गई हैं जहां चाय, मैगी, बन-मक्खन से लेकर कोल्ड ड्रिंक और मिनरल वाटर की बोतलें दिन के 12-15 घंटे उपलब्ध हैं. इधर ग्राम सभा के सौजन्य से तयशुदा दरों पर दो पहाड़ी घोड़ियों और दो डोलियों की सुविधा भी मुहैया करवाई जा रही है. हालाँकि पानदेब अपनी दवा का कोई दाम नहीं लेता तब भी अधिकतर लोग दरबार में खाली हाथ नहीं जाते. ऐसे श्रद्धालुओं के लिए यहां दुकानों पर फल-फूल, अगरबत्ती, बताशे, पीतल की घंटियां आदि मिलती हैं. एक आइटम जो हर दुकान पर उपलब्ध है वह है हरे रंग की ज़नानी धोती. मान्यता है कि दरबार में हरी धोती चढ़ाने से जड़ी का असर तेज़ी से होता है. लोग श्रद्धानुपात में रेशमी साड़ी, साधारण साड़ी, मामूली धोती या हरे अंगोछे संग नकद भेंट चढ़ाते भी देखे गए हैं. पिछले दिनों पानदेब से दवा लेने सत्ताधारी दल के एक मझोले कद के नेता पहुंचे थे. यह देखकर कि दवा वितरण रद्दी अख़बार की पुड़िया में हो रहा है उन्होंने तुरंत एक छोटी सी काग़ज़ की थैली बनवा दी जिससे जनता और पानदेब दोनों को सहूलियत हो जाये. यह ख़ूबसूरत छोटा सा रंगीन लिफ़ाफ़ा था जिस पर उन्होंने अपनी पार्टी का चुनाव निशान भी बनवा दिया. व्यवस्था यह बनी कि जो भी व्यक्ति बूटी लेने चोटी पर जा रहा हो अपना लिफ़ाफ़ा नीचे से साथ ले जाए. उसे दरबार में देकर बदले में पानदेब के हाथ से जड़ी वाला लिफ़ाफ़ा प्राप्त कर ले. एक प्रकार से ये रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था बन रही थी जिसकी अभी अनिवार्यता नहीं थी. लाभार्थियों के बीच ऐसा विश्वास आम था कि श्रेष्ठ परिणाम हेतु बीमार व्यक्ति स्वयं पानदेब के हाथों से दवा की पुड़िया ग्रहण करे. इससे भी महत्वपूर्ण यह कि जड़ी हर रोग पर समान रूप से असरकारी बताई जा रही थी. पानदेब को जड़ी-बूटी के रूप में यह सिद्धि कैसे प्राप्त हुई इस बाबत उसके गाँव के ही समाजसेवी शाह जी द्वारा समाचार पत्रों को दिये गये विवादास्पद साक्षात्कार की बड़ी चर्चा थी. जिसमें उन्होंने बताया था कि ‘पान देव बाबा बनने से पूर्व, पूजा-पाठ वाला एक संस्कारी व्यक्ति था. अचानक एक महात्मा फ़क़ीर उससे टकरा गया. फ़क़ीर ने उसे हरे रंग की एक ज़नानी धोती भेंट की और कहा ‘इससे जिस वनस्पति को ढकेगा वो अमृत हो जाएगी. जब तक तू इसका उपयोग निःशुल्क लोककल्याण के लिये करेगा, ये शक्ति तेरे पास रहेगी.’ महात्मा चले गये तो पानदेब ने धोती को अपने सिर पर धारण कर लिया. धोती सिर पर धरते ही उसके शरीर से प्रकाश निकलने लगा, चेहरे की कांति सूरज से टक्कर लेने लगी. अगले ही दिन वो अपने बच्चों को आशीर्वाद देकर ब्रह्ममुहूर्त में घर से निकल गया और देवीधुरा के शिखर पर जाकर समाधिस्थ हो गया. आज उसी पवित्र स्थल से दिन-रात मानवता की सेवा कर रहा है.’ दैनिक समाचार पत्रों में इस स्वानुभूत आख्यान पर आधारित रिपोर्ट छपने के बाद चमत्कारी दवा की पुड़िया लेने आसपास के क्षेत्रों से ही नहीं उत्तराँचल के दूर-दराज इलाक़ों, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि राज्यों से भी लोग खिंचे चले आ रहे थे. बच्चे, बूढ़े, जवान, प्रोफ़ेसर, डॉक्टर, दुकानदार, नेता, अभिनेता लगभग सभी वर्गों के लोग अब यहां पहुँच रहे थे. हर किसी को कोई न कोई छोटी-बड़ी बीमारी थी और इलाज इतना सस्ता और आसान था. बस दो दिन का व्रत जिसमें दवा के सिवा और कुछ नहीं खाना-पीना.
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बहादुर सिंह जब देवीधुरा रिसेप्शन सेंटर पहुँचा उसका ज़ख्म बुरी तरह दर्द कर रहा था. उसका पी ए कम ड्राइवर रमेश साथ था. उनको भुवाली एक निमंत्रण में हाज़िरी लगानी पड़ी जिस कारण यहाँ देरी से पहुँचे थे. उन्हें पैदल ही चोटी पर जाना था क्योंकि बहादुर घोड़ी पर सवारी करने की स्थिति में न था और डोलियाँ उपलब्ध नहीं थीं. रमेश पानी की बोतल और धोतियां ख़रीद लाया, साथ जड़ी के लिए दो लिफ़ाफ़े भी ले आया. लिफ़ाफ़े का रंग और उसपर छपा चुनाव चिन्ह देखकर बहादुर का दर्द जैसे बढ़ गया. पानदेब के प्रति हृदय में जो श्रद्धा भाव था उसे भी झटका सा लगा. उसने मुँह बिचकाते हुए कहा, “स्साली, यहाँ भी पॉलिटिक्स !”
पानदेब देवदार वृक्ष के नीचे पत्थरों के चबूतरेनुमा ढेर पर बैठा था. लोग दाहिनी ओर के गलियारे से गुज़रते हुए उसके हाथ से दवा की पुड़िया लेते और आगे मंदिर की ओर बढ़ जाते. श्रद्धालु चढ़ावे की सामग्री मंदिर के प्रांगण में रख देते और यू टर्न लेकर परिक्रमा सी करते हुए पानदेब के बायीं ओर से वापस आ जाते. लोगों के अभिवादन के उत्तर में वह हाथ जोड़कर बस मुस्कुरा देता. मंदिर के ऊपर नालीदार चादरों की छत पड़ चुकी थी. दीवालें कमेट से पुती थीं. भेंट स्वरूप लाई गई धोतियों आदि की थैलियां मंदिर के अंदर और बाहर यूँ ही बिखरी पड़ी थी. मंदिर की पिछली दीवार से जुड़ी एक कुटिया थी जिसके आँगन में एक अग्निकुंड बनाया गया था. लाइन में बहादुर के आगे पाँच-सात लोग थे जो उसी की तरह दवा लेकर वापस लौटने की जल्दी में लग रहे थे. पुड़िया लेकर वो श्रद्धापूर्वक माथे से लगाते और आगे बढ़ जाते. ये सिलसिला कुछ क्षणों के लिए टूटा जब पानदेब ने कुटिया की ओर गर्दन घुमाकर पुकारा, ‘गोपाल’, और एक युवक कुछ लिफ़ाफ़े लाकर उसके सामने रखे तसले में डाल गया. इस बीच एक महिला को पानदेब ने दवा प्रयोग करने की विधि समझाई, जो सामान्यतः सभी को मालूम थी. संवाद का अंतिम हिस्सा अस्पष्ट सा बहादुर के कानों तक भी पहुँचा, ” दो दिन बरत रखना है” पर वह पानदेब और उसकी जड़ी-बूटी के प्रति अपने मन में घुमड़ रहे सवालों के उत्तर अधिक गहराई से पाना चाहता था. वह अपनी बीमारी पर दवा के असरकारी होने का ठोस आश्वासन चाहता था. कुछ सोचते हुए उसने लाइन में पीछे लगे अंतिम तीन व्यक्तियों को अपने आगे कर दिया.
घाटी में साँझ पूरी तरह पसर चुकी थी. सूरज की अंतिम किरणें प्राँगण के देवदार की चोटी से विदा हो रहीं थी. गोपाल ने रौन में बाँज की लकड़ियों का जाल सा बुन दिया. बहादुर और रमेश भाप उगलते गिलासों से चाय सुड़क रहे थे. पानदेब हाथ में चाय का गिलास पकड़े आग के पास लौट आया “हाँ, कक..क्या पूछना चाह रहे थे सस..साब?” बहादुर को उसके हकला कर बोलने पर आश्चर्य हुआ, वह समझता था पानदेब प्रवचन का माहिर होगा. कुछ इधर-उधर की बातें करने के बाद बहादुर अपने मुद्दे पर आया, “महाराज यो बतावा, तुम हर रोग के लिए एक ही दवाई देते हो, मरीज़ दवा से ठीक होता है या महात्मा जी के आशीर्वाद से ?” पानदेब ने चाय का गिलास नीचे रख दिया और रौन में सुलगती लकड़ियों को व्यवस्थित करने लगा, “मुझे क्या पता साब, लोग आते हैं दद..दवाई ले जाते हैं, उनको फैदा हो रहा होगा” बहादुर उसके उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ, चिढ़ कर बोला “अरे पंडित जी हम तुमसे बातचीत करने को इतनी देर तक यहाँ रुके हैं, तुमको जो सिद्धि प्राप्त है उसके बारे में तो कुछ बताओ कम से कम वो चमत्कारी धोती के दर्शन ही करा दो.” पानदेब ने धधकती आग से निगाहें उठा कर बहादुर की आँखों में देखा और निहायत ठंडे स्वर में बोला “सिद्धि-फ्फ..फिद्दी कुछ नहीं मालिक, जो झाड़-पताड़ खाने से मेरा रोग ठीक हुआ था ना, मैं उसीकी पुड़िया बनाकर बां बां..बाँट देता हूँ” बहादुर उसकी सरलता से हतप्रभ था लेकिन उसे क्रोध भी आ रहा था, “कैसी बात कर रहे हो यार, दुनिया तुम्हारी पूजा कर रही है. लोग दूर-दूर से चलकर तुम्हारे पास आ रहे हैं, वो तुम पर देवता मान कर विश्वास कर रहे हैं और तुमतुम यहाँ बैठकर लगता है सब को बेवकूफ़ बना रहे हो..हैं?” अग्निकुंड में एक लकड़ी ज़ोर से चटखी. गोपाल जो अब तक कुटिया के भीतर था अचानक बाहर निकल कर आया और उत्तेजना भरे स्वर में बहादुर से बोला, “तुम क्या जानते हो पनदा के बारे में, हाँ ? तुमारे जिस समाज ने उनको दुत्कारा, उनको बेघर कर दिया वो उसी की सेवा कर रहे हैं, बिना कोई लोभ-लालच केऔर तुम कह रहे हो वो दुनिया को बेकूफ बना रहे हैं ? एक ही दिन गाय-बकरी चराने जंगल नहीं आया होता मैं ना, तो पनदा आज जीवित नहीं होते.यहाँ कैसे-कैसे, बड़े से बड़े लोग आते हैं लेकिन आज तलक किसी ने दाज्यू पर ऐसा इल्जाम नहीं लगाया. तुम कोई नेता-फेता हो शायद. पब्लिक को उल्लू बनाने का ठेका तो तुम्हारा ठैरा. तुम्हारी पोलिटिक्स ठैरी हर मरज का इलाजउखाड़ लेना हमारा जो उखाड़ना है. दवाई लेली ना, अब रवानगी काट लो.” इस अनपेक्षित हमले से बहादुर सकते में आ गया. रमेश झटके से उठ कर गोपाल की ओर बढ़ा लेकिन बहादुर ने बाजू फैलाकर उसे रोक दिया. गोपाल ग़ुस्से से काँप रहा था.वो रास्ते पर मुड़ चुके तो पानदेब ने संयत भाव से पुकारा, “सस..सैप टौर्च निछ तौ छिलुक लि जावौ.” रमेश ने बैग से टॉर्च निकाल कर उनकी ओर चमका दी. उसके दूसरे हाथ में रिवॉल्वर चमक रही थी. Pan Bahadur Devidhura Story Umesh Tewari Vishwas
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देवीधुरा से लौट कर अगली सुबह बहादुर सिंह पहले देर तक अपने वक़ील से फ़ोन पर बात करता रहा, फ़िर रमेश को बुलाकर लंबी मंत्रणा की. अख़बार में आज उसके पार्टनर की मौत पर जाँच की मांग से जुड़ी ख़बर छपी थी जिससे वह कुछ घबराया सा लग रहा था. थोड़ी देर बाद उसने पानदेब से मिला दवा का लिफ़ाफ़ा हथेली पर उछालते हुए मानो उसका वज़न किया और चूम कर माथे से लगा लिया. शाम को शहर के रामलीला मैदान में आयोजित एक समारोह में बहादुर ने अपने साथी-सहयोगियों के साथ वही पोलिटिकल पार्टी जॉइन कर ली जिसका चुनाव निशान पानदेब की बूटी वाले लिफ़ाफ़े पर छपा था. इस अवसर पर अपने संक्षिप्त भाषण में उसने कहा कि वो ‘दैवीय आदेश से पार्टी को जॉइन कर रहा है और जनता की निःस्वार्थ सेवा करने के लिए राजनीति में आया है. अपनी इस पारी की शुरुआत वह दो दिन का उपवास रख कर करना चाहता है आदि.’ तालियों की गड़गड़ाहट के बीच पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने उसके गले में पट्टा डाल कर गर्मजोशी से हाथ मिलाया और ज़ोर से हिलाया. हाईकमान से टिकट का पक्का आश्वासन पाकर अब बहादुर विधायक का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है. Pan Bahadur Devidhura Story Umesh Tewari Vishwas
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हल्द्वानी में रहने वाले उमेश तिवारी ‘विश्वास‘ स्वतन्त्र पत्रकार एवं लेखक हैं. नैनीताल की रंगमंच परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे उमेश तिवारी ‘विश्वास’ की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘थियेटर इन नैनीताल’ हाल ही में प्रकाशित हुई है.
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