आइए चलते हैं अल्मोड़ा में अल्मुड़िया पान खाने (Paan Shops of Almora).
पहला पान
एल.आर. शाह रोड पर एक छोटा सा रेस्टोरेंट है ग्लोरी. ग्लोरी के मालिक हैं मंजुल मित्तल और मंजुल दा के सामने है भैरव मंदिर. मंदिर के बगल में एक खोखे में घुसे हुए मम्मू पान वाले पाए जाते हैं.
भाई मम्मू कब से पान लगा रहे हैं इसकी प्रामाणिक जानकारी तो नहीं ले पाया पर मम्मूदा की सुर्ख लाल कत्थई और लगभग काली पड़ चुकी उंगलियों को देखते हुए आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मम्मू कोई बीस साल से ऊपर से पान लगा रहे होंगे. इनकी दुकान की खासियत है कि मम्मू दा पान से लेकर जान तक का सारा सामान रखते हैं. एक और तारीफ है इनकी कि आप व्यक्ति से उसके जीवन में मात्र एक बार पूछते हैं कि आप कैसा पान खाएंगे. उसके बाद आप पांच या दस साल बाद जाएंगे तो मम्मू दा आपको उसी पैटर्न का फड़कता हुआ पान खिलाएंगे और हां पान के लिए कितने पैसे हुए पूछने पर “अजी साहब आप कहां जाने वाले ठहरे और हम कहां जाने वाले ठहरे”.
दूसरा पान
यह अड्डा थोड़ा ऐतिहासिक किस्म का है. सुनते हैं कि यहां भूत प्रेत तक पान खाने आते थे. बन्द हो चुके जागनाथ सिनेमा हॉल का नौ से बारह का शो छूटने के बाद भी लोग पान खाने आने वाले ठहरे. साढ़े बारह के बाद भी खुलने वाली दुकान के बारे में उन दिनों यह मशहूर हो चुका था यह रात को भूत प्रेत भी पान खाने आते हैं.
बात हो रही है श्यामू पान वाले की. पाठक कैफे की तंग गली में बाईं ओर स्थित इस दुकान पर दुकान से थोड़ा कम पुराने एकदम खल्वाट, चिकनी, चमकती खोपड़ी के साथ सधे हुए हाथों से पान लगाते हुए एक बुजुर्गवार बैठते हैं जिनके बाएं हाथ पर भैरव का पुराना फोटो लगा है. आप की दुकान की तारीफ है कि जो बीड़ी पूरे अल्मोड़े में कहीं ना मिले वह यहां मिल सकती है. पान बनाते बनाते इतिहास भूगोल कल्चर और अल्मुड़िया मिजाज सब की एक साथ सॉलिड कमेंट्री आप उनके मुंह से सुन सकते हैं. पहली बार जब इनकी दुकान पर पान खाया तो चमत्कृत हुए बिना नहीं रह सका सो एक सेल्फी का आग्रह कर डाला. इस पर बूबू इतने तन के बैठे की बस घोड़ी चढ़ने वाले हैं. इस ठसक का कोई जवाब न था.
तीसरा पान
लाला बाजार थाने से नंदा देवी तक फैला है (हम जैसे नए नए लोगों के लिए). वैसे तो इस बाजार में हर चार कदम पर अपने अपने मोहल्ले हैं. इनमें एक मोहल्ला खजांची मोहल्ला और उस खजांची मोहल्ले में पाए जाते हैं वर्मा जी पान वाले. कोई बीस साल पुराने काऊंटर पर पीतल की मोटी परत पर लाल कपड़े से ढंके हुये पान और लगभग उतने ही पुराने चूने कत्थे के पीतल के लोटे वर्मा जी के इतिहास के पुरातात्विक साक्ष्य थे.
पान खाकर इनका नाम पूछा तो जवाब आया
“वर्मा जी”
मैंने कहा कि “अजी आपका नाम पूछा!”
“हां जी राजेंद्र लाल वर्मा जी!”
“अजी मैंने आपका पूरा नाम पूछा”
“अजी श्री राजेंद्र लाल वर्मा जी! यही मेरा नाम है.”
“कमाल है आप अपने नाम में खुद ही श्री और बाद में खुद ही जी लगाते हो वर्मा जी”
“हां जी”
जनाब ये अल्मोड़ा है. यहां जिंदगी के जितने फ्लेवर हैं उतनी ही किस्म के पान और उससे भी अच्छे पान वाले. पान छोड़िए दावा है कि मोहब्बत पान से ज्यादा पान लगाने के अंदाज से होगी. यह अंदाज निश्छल, सरल ,सीधी सादी जिंदगी जिसने कभी अल्मोड़ा को लंदन, पेरिस से कम नहीं समझा, का प्योर उत्पाद है. इस निस्वार्थ हंसी और निस्वार्थ प्रेम से पान खिलाने वाले अल्मोड़ा में जो चूना लगाते हैं कि आप अंत तक यही कहते हुए पाए जाते हैं कि “वाह अल्मोड़ा ये अल्मुड़ियापन गजब अल्मुड़ियापन.”
लाला बाजार में लोहे के शेर के ठीक सामने एक पान की दुकान है जिसके स्वामी का नाम पता नहीं परंतु इसकी एक अनूठी विशेषता है यहां पान दो रसा मिलता है. पहली बार नाम सुना तो सर चकरा गया यह क्या बला हुई. पूछताछ पर पता चला कि साहब यह कुछ नहीं मीठे और जर्दा पान का संगम है जो दो प्रकार के रस देता है. पान वाले महोदय दोनों प्रकार के पान के स्वाद को एक ही पान में समेटने में सिद्धहस्त है सो बन गया पान दो रसा. कुल मिलाकर गोली देने वाला पान. पान चबाने वाला यह समझ ही नहीं पाएगा इसका असली स्वाद क्या है कुल जमा एक कन्फ्यूजिंग पान. यह भी अल्मुड़ियापन की एक निशानी है.
इसी दुकान पर पान चार सौ बीस भी मिलता है. अब यह राज कपूर साहब की श्री चार सौ बीस और दफा चार सौ बीस से प्रेरित तो नहीं है. यह रत्ना तीन सौ और एक सौ बीस नंबर पत्ती के संयोग से बना अद्भुत पान है. थोड़ा हार्ड होता है, कहते हैं कि एकदम गबरु पान होता है. खासतौर पर मर्दों के लिए. खाया और नथुने फड़कने लगे, आंखो के सामने तितलियां और जुगनू एक साथ चमकने लगें. इस पान को यूपी में कहीं-कहीं पलंग तोड़ पान भी कहते हैं ऐसा कोई कह रहा था बल!
पान की दुकानें एक जमाने में समाजिक विमर्श का अड्डा हुआ करती थीं. बड़ी बड़ी हाँकने वालों से जिन्दगी की छोटी छोटी समस्याओं का हल मिलता था. लोग सबकी खैर-खबर रखते थे. पर अब जमाना सब कुछ हथेली पर उगाने का है. जो उस कल्चर को जो पान की दुकानों के इर्द गिर्द विकसित होता था को कब का पीछे छोड़ आया है. मम्मू, शिब्बन या वर्मा जी जैसे लोग जिन्दगी के संघर्ष में अपने आपको बचाने की जंग मे लगे है. जिन्दा रहने के लिए जो पान कभी एक भरा पूरा आसरा होता था अब वह “डेली नीड्स ” के सामने बौना हो गया है, दब गया है.
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दूसरा पान :
जागनाथ सिनेमा हाल के बनने से भी कई साल पहले से जब रीगल पिक्चर हाल और मुरली मनोहर सिनेमा हाल हुआ करता था तब भी ये पान बनाते पाए जाते थे .... हां पर यहां नही यहां से थोड़ा आगे जहां गली लाला बाजार से टकराती है उस जगह .... और चौक का नाम भी इन्ही की दुकान के नाम पर .... ' शिब्बन चौक ' आज भी चला आ रहा है