तुम क्या समझोगे फिल्मों के लिए हमारा जुनून
– दिनेश कर्नाटक
आज के बच्चे और नौजवान फिल्मों के साथ हमारे रिश्ते को शायद नहीं समझ सकेंगे. वे नहीं समझ सकेंगे कि जवानी के दिनों में फिल्मों का हमारे लिए क्या अर्थ होता था. कैसे उनकी एक-एक डिटेल हमारे लिए महत्वपूर्ण होती थी. कैसे उनकी कहानियां, उनके गीत, उनके हीरो-हीरोइन, उनके संवाद हमारे ऊपर छाये रहते थे.
वे इसकी भी कल्पना नहीं कर सकेंगे कि उन दिनों चौराहों पर टेपरिकार्डर में ऊंची आवाज में फिल्मी गीतों के साथ-साथ “शोले” के डायलॉगों का प्रसारण होता था और ऐसे लड़के भी होते थे, जिन्हें कभी दस तक पहाड़े याद नहीं हुए होंगे मगर पूरी शोले फ़िल्म “ये हाथ नहीं फांसी का फंदा है गब्बर !” डायलॉग से शुरू कर “बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना !” पर खत्म कर देते थे. यह भी कि हम लोग रात भर सड़क के किनारे बैठकर ओस और पाले की परवाह किये बगैर वीडियो पर चार-चार फिल्में देख लेते थे.
हम लोग न सिर्फ बगीचों में जाकर आम, लीची चुराया करते थे, बल्कि चुराकर फिल्में भी देख लेते थे. हमें मुखबिरों से पता चलता कि पास के गांव में अमुक महाशय के वहां रात को वीडियो आ रहा है तो ठीक फ़िल्म शुरू होते समय बड़े ही सधे कदमों से महफ़िल में एंट्री मारते और मालिक लोगों को सुबह के उजाले में ही हमारी सूरत दिखाई देती थी. एक बार तो हम लोग ब्लैक कैट कमांडो के अंदाज में कांटेदार तार वाली बाड़ को नीचे से रेंगकर वीडियो स्थल पर पहुंचे थे. कमीज फड़वाकर हमने फिल्मों को देखने की कीमत अदा की थी. उन महानुभाव की वजह से हमारा परिचय राज कपूर की फिल्मों से हुआ।
हमारा समय अमिताभ बच्चन के डायलोगों, उनकी फाइटिंग, उनके दुःख, उनके संघर्ष, अन्याय के खिलाफ कभी भी हार न मानने के उनके जज्बे का समय था. अमिताभ भ्रष्ट नेताओं, फैक्ट्री मालिकों, माफियाओं तथा प्रेम के दुश्मनों से अकेले ही निपट लेते थे. हम सब अमिताभ की अदाओं पर फिदा रहते थे और उनके जैसे हो जाना चाहते थे. हम लड़ना चाहते थे. अन्याय को खत्म कर देना चाहते थे, मगर हमको पता नहीं होता था हमें किससे लड़ना है. फलस्वरूप हम आपस में फाइटिंग करने लगते थे.
हम अमिताभ की ही फिल्में देखना चाहते थे, फिर वह ‘सौदागर’ या “आनंद” ही क्यों न हो? मगर अजहर भाई की बात कुछ और थी. वे राजेश खन्ना के फैन थे. जब भी वीडियो पर रात भर चार फिल्मों का प्रोग्राम बनाते तो राजेश खन्ना की फिल्में लाते. अगर उनकी न हुई तो जितेंद्र की एक-दो ले आते. जितेंद्र ने उन दिनों पारिवारिक समस्याओं का जिम्मा लिया हुआ था. अमिताभ की फिल्में न देखकर हम लोग बड़े मायूस हो जाते थे. मगर हमें तो फिल्में देखनी होती थी. हम फिल्मों के इस कदर मरीज थे कि विज्ञापन फिल्में देखकर पूरी रात बिता सकते थे.
अजहर भाई पर भले ही उस समय हमें गुस्सा आता था, मगर आनंद, बावर्ची, अमर प्रेम, दाग, पलकों की छांव तले, कटी पतंग जैसी फिल्मों ने जाने-अनजाने हमारे भीतर की दुनिया का विस्तार किया और हममें ओमपुरी तथा नसीरुद्दीन शाह की फिल्मों को देखने-समझने की तमीज पैदा की. इन्हीं के कारण आगे जाकर हमारे भीतर मनोहर श्याम जोशी के हम लोग, नेता जी कहिन आदि को देखने का सलीका आया.
हमारी जवानी के दिनों में दूरदर्शन का एक चैनल था और उस चैनल में रोज का एक सीरियल था. आज जिन म्यूजिक तथा फ़िल्म चैनलों की ओर हम देखते भी नहीं हैं, उन दिनों हफ्ते की एक फ़िल्म और एक चित्रहार के लिए सुबह से ही बेताब हो जाते थे. उन दिनों आने वाले सीरियलों, फिल्मों को हम स्कूल के किसी जरूरी पाठ की तरह देखते थे. गोया उन्हें न देखा तो कोई अपराध कर दिया. ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर फ़िल्म देखना हमारे लिए मल्टी प्लैक्स में फ़िल्म देखने से भी बड़े गर्व की बात होती थी. इन टीवीयों के मालिक अगर किसी दिन उदार हो जाते तो हम रविवार को दोपहर में अंग्रेजी सब टाइटल के साथ आने वाली भारतीय भाषाओं की फिल्में भी चाव से देख लेते थे.
अब समय पूरी तरह से बदल चुका है. चौबीस घण्टे चलने वाले फिल्मी चैनलों में देश दुनिया की एक से एक फिल्में हैं. स्मार्ट फोन है. सूचनाओं की बेतहाशा बौछार करता फेसबुक, व्हाट्सएप तथा यूट्यूब है. हर रोज रिलीज होती फिल्में हैं. मगर पता नहीं क्यों फिल्मों के प्रति न वैसी तड़प है, न वो बेचैनी है और अगर यह होता भी तो समय नहीं है.
दिनेश कर्नाटक
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कुछ किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.
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26 Comments
Anonymous
बहुत सुन्दर लिखा है महोदय आपसे वास्तविक्ता के एक दम पास है आपके विचार। भूतकाल और वर्तमान का विश्लेषण ही भविष्य की राह दिखाता है आज के समय में निडर व स्पष्ट लेखन की ही आव१यकता है बहुत -बहुत बधाईया आपको समाज की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए।
Ganesh Joshi
दिनेश जी बहुत खूब, संस्मरण को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। वर्तमान की स्तिथि पर व्यंग्य भी किया है।
Ganesh Joshi
दिनेश जी बहुत खूब, संस्मरण को पढ़कर बहुत अच्छा लगा। वर्तमान की स्तिथि पर व्यंग्य भी किया है।
Anonymous
कर्नाटक जी नमस्कार।आपने सटीक विश्लेषण किया है।मै चौपाल को भी पूरा पढ़ता हूँ। किंतु आज सीधे आप से जुड़कर बहुत निकटता का आभास हुआ।आशा है भविष्य में भी इसी तरह लाभ मिलता रहेगा।
Anonymous
कर्नाटक जी नमस्कार।आपने सटीक विश्लेषण किया है।मै चौपाल को भी पूरा पढ़ता हूँ। किंतु आज सीधे आप से जुड़कर बहुत निकटता का आभास हुआ।आशा है भविष्य में भी इसी तरह लाभ मिलता रहेगा।
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बहुत अच्छा लिखा आपने।बधाई।
आनंद गुप्ता
बचपन के दिनों की यादें ताज़ा हो गई।बहुत बढ़िया लिखा आपने।
Anonymous
प्रिय मित्र आपकी कल्पनाशीलता ओर रचनात्मकता के हम कायल हैं।सामाजिक सरोकारों के प्रति आपकी संवेदनशीलता नवयुग निर्माण के लिए प्रेरणादायीं है।शब्दों में सराहना कर पाना आसान नहीं ।सफर जारी रहे।स्वर्णिम भविष्य की शुभकामनाएं।
Anonymous
Nice
Anonymous
Great
Anonymous
????प्रिय मित्र आपकी कल्पनाशीलता ओर रचनात्मकता के हम कायल हैं।सामाजिक सरोकारों के प्रति आपकी संवेदनशीलता नवयुग निर्माण के लिए प्रेरणादायीं है।शब्दों में सराहना कर पाना आसान नहीं ।सफर जारी रहे।स्वर्णिम भविष्य की शुभकामनाएं।[email protected]
Anonymous
????प्रिय मित्र आपकी कल्पनाशीलता ओर रचनात्मकता के हम कायल हैं।सामाजिक सरोकारों के प्रति आपकी संवेदनशीलता नवयुग निर्माण के लिए प्रेरणादायीं है।शब्दों में सराहना कर पाना आसान नहीं ।सफर जारी रहे।स्वर्णिम भविष्य की शुभकामनाएं।
Anonymous
धन्यवाद आप सभी मित्रों को…
Anonymous
बहुत सुन्दर सर। आपकी रचनाओं में अपनापन नजर आता है। यूं ही पढ़ाते रहियेगा। धन्यवाद
Anonymous
अपनी ही कहानी है लगी। इंटर से ग्रेजुएशन तक फिल्मों के लिए मेरी भी यही दीवानगी थी।
Anonymous
कल ही मैं सोच रहा था कि उस दौर में फिल्में अनेक तरह की जुबली मनाया करती थी । आज मापदण्ड बदल गए।है । उस दौर के बारे मे सोच कर थोड़ी उदासी सी घिर आती है ।हमारे फिल्मो के हीरो हीरोइन थी ।कही हमारी अपनी हीरोइने भी थी ।जो कभी हमारी तो नही थी लेकिन उनका अपने।आस पास होना कई फूल खिलाता तो था।—कोई लौटा दे मेरे बीते।हुए दिन—।आपका लेख बेहतरीन लगा ।किसी जमाने में ले चला गया ।
Prakash kandpal
कल ही मैं सोच रहा था कि उस दौर में फिल्में अनेक तरह की जुबली मनाया करती थी । आज मापदण्ड बदल गए।है । उस दौर के बारे मे सोच कर थोड़ी उदासी सी घिर आती है ।हमारे फिल्मो के हीरो हीरोइन थी ।कही हमारी अपनी हीरोइने भी थी ।जो कभी हमारी तो नही थी लेकिन उनका अपने।आस पास होना कई फूल खिलाता तो था।—कोई लौटा दे मेरे बीते।हुए दिन—।आपका लेख बेहतरीन लगा ।किसी जमाने में ले चला गया ।
Prakash kandpal
Nice
Anonymous
Nice thought
Anonymous
Prakash kandpal
Anonymous
posts.
Anonymous
सुन्दर ,आपने बड़ी सुन्दरता से विषय को प्रस्तुत किया है ,स्मृतियां साकार हो उठीं ।
Tribhuwan Singh
बहुत अच्छा लिखा है
Anonymous
वाह ! शानदार अभिब्यक्ति।
पुराने दिनों की याद ताज़ा हो गयी।
Anonymous
बेहतरीन दिनों का संस्मरण,धारावाहिक नुक्कड़ के दिनों की यादें ताजा हो गईं।
दिनेश कर्नाटक
उत्साहवर्द्धक टिप्पणी के लिए आपका आभार