उत्तिष्ठ अर्थात् उठो, न कि उठाओ
क्षीण कटि, क्षीण स्वभाव. वैसे उनकी संपूर्ण ही काया क्षीण थी. सुतवाँ शरीर.साहस और उत्साह में भरे-पूरे. लगभग दुस्साहसी. शर्त बदने को हमेशा तैयार. दाँव खेलने के शौकीन. जन्मजात दाँव खेलने वाले. आजाद खयाल, आजाद मस्तिष्क. एक काम से कभी बँधकर नहीं रहे अर्थात् किसी काम में कभी टिक नहीं पाए. हलवाई से हलवाहे तक और पुरोहिताई से पोस्टमैन तक का डग-मग कैरियर. गल्ला-गोदाम में शक्कर उतारी जा रही थी.
यह उस दौर की बात है, जब कोटे में क्रिस्टलनुमा शक्कर आती थी. छोटी मिश्री के आकार की. जूट के कुंटल-कुंटल भर के बोरे. जानकारी के लिए बोरों पर नीले रंग में स्टेंसिल से छपा रहता था –भरते समय वजन एक कुंतल. जिसका अभिप्राय यह निकाला जाता कि, बाद में कम-ज्यादा हो हमारी जिम्मेदारी नहीं. भरते समय तो पूरे एक कुंटल थी. सेफ डिस्क्लेमर. पल्लेदार बोरे उतारते जाते और बोरों के चट्टे बनते जाते थे. मजदूरों का परस्पर वार्तालाप जारी था.”भरी हुई बोरी उठा लेगा.” “ये भी कोई बात हुई. तुमने कभी देखा नहीं. तभी कम समझ रहे हो. तुम बोरी उठाने की बात करते हो. अरे, वो तो दाँतो सेई उठा लेगा.” “मलूक !! उठा लेगा!!” “नहीं यार!” “एकी कुंटल की तो है.” “बंदा है तो हल्का-फुल्का.” “बस येई भूल मत करियो. दिखावे पे मत जइयो. हाड़ का भौत मजबूत है.” “और दाँत उससे भी ज्यादा मजबूत।” “नहीं यार.” “उठा लिया तो!” “तो क्या, शर्त पूरेंगे- पाव भर जलेबी.” मलूक दादा, इस वार्तालाप को निर्विकार भाव से सुन रहे थे, मानो इन बातों से उनका कोई सरोकार न हो. हालांकि अंदरखाने उनका उत्साह, बल्लियों उछाल पर था. मधुर पुलक में आनंद-विभोर. “गर नी उठा सका तो.” “बोरी की कीमत भर देंगे.” यह खनखनाहट भरा स्वर, स्वयं मलूक दादा का है. सातवें आसमान पर सवार मलूक दादा, मैदान में उतर आए. मैदान मारना उनकी फितरत है, तो शर्त जीतना उनका स्वभाव. उनका खुद का वजन बोरी के वजन का लगभग ही आधा होगा. उत्साह से लबरेज मलूक दादा ने दाँतों से बोरी पकड़ी और सधा हुआ पैंतरा आजमाया. अरे! उन्होंने सचमुच बोरी उठा ली. पलभर का समय लगा होगा. पल्लेदार दाँतों तले ऊंगली दाबे रह गए. मलूक दादा मुग्ध भाव से दाँतों तले बोरी दाबे खड़े रहे. मजदूर-पल्लेदार अवाक् होकर देखते रह गए. फिर उन्होंने दादा को ‘चीयर्स’ किया अर्थात् समवेत स्वर में हर्षध्वनि की. मलूक दादा का डेढ़ पसली का सीना, फूलकर दोगुना फैल गया.
इस कौशल को उन्होंने निरंतर अभ्यास की बदौलत हासिल किया. लगातार विकसित करने में लगे रहते. प्रैक्टिस नहीं छोड़ते थे. स्कूली लड़के तो उनकी झलक देखते ही छुप जाते. उन पर भी प्रैक्टिस कर लेते. चुपके से पीछे से आकर दाँतों से कमीज पकड़ते और झट से लिफ्ट करा देते. उठने वाला हक्का-बक्का रह जाता. जब कभी चक्की या गल्ला गोदाम से गुजरते, तो पचास किलो का बटखरा तो दाँत से उठाकर बस यूँ ही चलते-चलते फेंक जाते.
निर्माणाधीन इमारत का दृश्य. किसी का घर बन रहा था. राजगीर-मजदूर काम में लगे हुए थे. ठीक सामने हरी-भरी पहाड़ी. पहाड़ी की टेकरी पर बकरियाँ चर रही थी. कुछ बकरे और एक तंदुरुस्त बकरा, उनसे बगलगीर होकर चर रहे थे. एक का साइज बड़ा सा था, इसलिए अलग सा दिख रहा था. कहने की बात नहीं है कि, मजदूरों का वार्तालाप जारी था. “सामने वो बकरा दिखा?” “वो, तगड़ा सा.” “हाँ-हाँ, वोई.” “मलूक दादा, दाँतों से उठा लेगा.” “नहीं यार.” “चुटकियों में उठा लेगा.” लगाते हो शर्त.” “लेकिन, यार! वजन तो दोनों का बरोब्बर होगा.” “उससे क्या जो होता है. बात तो मजबूत दाँतों की है.” ‘तुम कुछ भी कहो, लेकिन मुझे तो भरोसा नहीं हो रा.” “उठा लिया तो.” “बकरा कटेगा. मौके पेई.” संशय में फँसे इंसाँ को यह गारंटी बकरा-स्वामी की ओर से दी गई थी. “नहीं उठा सका तो.” “बकरे की दोगुनी कीमत भर देंगे.” ये उद्गार मलूक दादा के कमलमुख से निःसृत हुए.
सामने एक किशोर सा लड़का खड़ा था. घटनाक्रम के फुल मजे लने मे तल्लीन. उसके समवयस्कों को यह अवसर कहाँ मिला है. ये खास मौका तो बस उसीके हाथ लगा है. कई दिनों का मसाला. अहा! अब वो सीधा प्रसारण करने के खूब मजे लूटेगा.”अरे बेटा! सामने वो ‘बोक्या’ दिख रा.” “चाचा! वो. पीतल की घंटी वाला.” “हाँ-हाँ वोई. लेकर आना तो. “उसे खास जिम्मेदारी सौंपी गई थी. अपनी भूमिका सुनते ही लड़का एकदम से उठान पर आ गया. महती जिम्मेदारी मिली है उसे. इस प्रभाव में आकर उसने मन में हल्की सी फुरैरी ली और लंबे-लंबे डग भरता हुआ लक्ष्य की ओर चलता चला गया. एकदम, मसीहा की अदा से. सीधी निगाह और सीधी चाल से वह बकरे के पास जा पहुँचा. वहीं से आवाज लगाई, “चाचा, यही वाला.” “हाँ-हाँ वही.” तस्दीक से प्रोत्साहन पाकर उसे लगा कि, अब उसके अव्वल किस्म के पारखी होने में ज्यादा देर नहीं है. न जाने कहाँ से उसमें बाज जैसी फुर्ती आ गई. उसने बाज की तरह झपटकर, बकरे के गले में पड़ी रस्सी दबोच ली और ऐहतियातन इधर-उधर झाँका. बकरे का दढ़ियल दोस्त कहीं विश्वासघात न कर बैठे अर्थात् पीछे से टक्कर न मार ले. बकरा तंदुरुस्त था. किसी तरह खींचते-काँखते वह बकरे को रंगभूमि पर ले आया.
इधर मलूक दादा का उत्साह परवान चढ़ने लगा. उत्साह रोके नहीं रुका. बल्कि, रोकने की कोशिश में तो वो कई गुना ज्यादा बढ़ता चला गया. एकदम एक्सपोनेंशियल ग्रोथ जैसा. दाँतों से ‘लिफ्ट’ करना, अब उनके जीवन की प्रायोरिटी जैसा बन चुका था. अतः वे फौरन इस हसरत को पूरी कर लेना चाहते थे. ताजे-तंदुरुस्त बकरे को पलभर में ‘लिफ्ट’ कर देना चाहते थे. ऐसे मौकों पर तो वे एकदम से रोमानी हो जाते. उन्हें इतना आनंद मिलता कि, मानों उनका जीवन सार्थक हो गया हो. कौल पूरा करते ही उनमें ‘असल’ चक्रवर्ती जैसी ‘फीलिंग’ आ जाती. उन्होंने बिजली की सी गति दिखाई और बकरे की पीठ पर दाँत गड़ा दिए. बकरे ने ‘मे-मे’ करके थोड़ी सी आपत्ति जताई, लेकिन इस गुलगपाड़े में उसकी सुनता कौन.
एक ही झटके में बकरा उठा लिया गया. ‘यहाँ से वाचस्पति के घर तक ले जाना है’ भीड़ में से किसी ने एक संशोधन उछाला. प्रायः यह देखा जाता है कि, संशोधन प्रस्ताव, बिना बहस के आगे नहीं बढ़ सकता. लेकिन यहाँ बात दूसरी थी. मलूक दादा शायद इस घटना को फौरन इतिहास में दर्ज करा लेना चाहते थे. वे बकरे को मुख में दबाये, सचमुच वाचस्पति के घर तक पहुँचाने को आतुर होने लगे. उन्होंने इस बात को कतई नजरअंदाज कर दिया कि, वाचस्पति के घर तक तो सीढ़ीनुमा रास्ता जाता है और वह भी संकरा सा. वे तो तन-मन, जितना भी उनके पास था, सब कुछ लगाने को तैयार थे. किसी प्रभाव की चिंता किये बगैर वे उस रास्ते पर खट-खट सीढ़ियाँ चढ़ते गए. महीन कारीगरी तो उनके शौक में पहले से ही थी. अकस्मात् उन्हें न जाने क्या सूझा कि उन्होंने एकाएक स्पीड पकड़ ली. कुछ मौलिकता दिखाने के चक्कर में और कुछ रिकॉर्ड कायम करने के विचार से, शायद वे ऐसा कर रहे थे. मानो दर्शकों को चकित कर देना चाहते हों. अब वे सधे-सधाये नहीं अपितु खुलकर-खिलकर दौड़ने लगे. तभी एक ‘स्टेप’ पर सहसा वे लड़खड़ाए और बकरा उनके मुख से टपक पड़ा. हतप्रभ होकर वे धम्म से जमीन पर बैठ गए. जितनी भी चिंता-वेदना एकसाथ इकठ्ठा हो सकती थी, अचानक उनके चेहरे पर छा गई. मुख पर शोक-संताप झलकने लगा. उनका उल्लास जाता रहा और कलेजा धक् से रह गया. चिंतित से जड़वत्. उनकी कीर्ति को कलंक लग चुका था. अभी तक वे शर्त जीतने में अपराजेय से चले आ रहे थे. आज बाजी हार चुके थे. उनका मन हुआ कि, धरती फटे और मैं उसमें समा जाऊँ. बकर-स्वामी मानो इसी अवसर की प्रतीक्षा कर रहा था. बल्कि यूँ समझिए कि, ताक में बैठा था. झट से दुगुनी कीमत की माँग करने लगा. साहूकारों के भी कुछ उसूल होते हैं. वे शोकाकुल आदमी से तगादा नहीं करते. गम गलत होने की इंतजारी में रहते हैं, भले ही बाद में नालिश-वालिश कर दें. इधर बकर-स्वामी नादान किस्म का निकला और घटनास्थल पर ही सिर पर सवार होने लगा. कुछ जिम्मेदार लोग, जो मलूक दादा की परेशानी समझते थे और उनसे सहानुभूति रखते थे, बीच में पड़े. बोले, “दुगनी कीमत तो बहुत ज्यादा है. कहाँ से लाएगा भई.” वाद-विवाद काफी देर चला. कीमत पर मोलतोल हुई, जो बकरे की कीमत पर जाकर छूटी. कीमत कहाँ से आई, यह वृत्तांत खासा दिलचस्प था.
इस घटना के अगले ही दिन उनकी माँ का स्वर्गवास हो गया. सदमे से नहीं. बीमार चल रही थीं. उमर भी हो चली थी. माँ का डाकखाने में खाता था. उनके निधन के बाद नोमिनी की खोज हुई. भरे-पूरे परिवार में, न जाने क्या सोचकर उन्होंने मलूक दादा को अपना नोमिनी बनाया. पीपल पानी होते ही कुटुंब में शुद्धि छा गई. तेरह दिनों तक बड़े आचार-विचार से रहना पड़ा. ना कोई शर्त, ना कोई दाँव-पेंच.
खैर निषिद्ध अवधि किसी तरह बीत चुकी थी. चौदहवें दिन अलस्सुबह मलूक दादा, डाकखाने की काउंटर-खिड़की से सटे हुए पाए गए. सबसे आगे, सबसे तेज. सबसे पहले हाजिर. पोस्टमास्टर खिड़की के अंदर मौजूद था अर्थात् जालीनुमा सांचे के भीतर, सिर झुकाए कागजों से माथापच्ची करने में जुटा था. मलूक दादा को कुछ-कुछ ऐसा गुमान था कि, उनकी उपस्थिति काफी असरदार हुआ करती है. उन्हें यकीन था कि, उनके रौब-दाब से फौरन काम हो जाएगा. हैरानी उन्हें तब हुई, जब काफी देर तक किसी तरह का कोई असर नहीं दिखाई दिया. पोस्टमास्टर अंदर था और उसी पोज में बैठा था. संभवतः आंकड़ों के फेर में उलझा हुआ था. मलूक दादा सचमुच मुश्किल में आ गए. जीवन में पहली बार उन्हें अनुभव हुआ कि उनकी उपस्थिति का ‘खास’ तो छोड़िए, किसी भी किस्म का असर नहीं पड़ा. अब वे उस दुर्लभ क्षण की प्रतीक्षा करने लगे, जब वह सिर उठाए. कभी तो उठाएगा ही. वैसे भी झुके-झुके लेजर के अंदर, कोई अनंतकाल तक तो नहीं घुसा रह सकता. उन्होंने अनुमान लगाया, जब वह सिर उठाएगा तो निगाह ठीक सामने पड़ेगी. सो उन्होंने देखभाल कर स्वयं को उस कोण पर फिट किया, जहाँ पर सर उठते ही पहलेपहल निगाह पड़ती हो. सुभीते के लिए उन्होंने खिड़की पर अपनी कोहनी फिक्स की, फिर स्वयं को इस तरह के एक ‘मॉडल किस्म के पोज’ में फिट किया, कि वो चाहे न चाहे, वे उसे जरूर दिखाई दें. तत्पश्चात् वे उस दुर्लभ क्षण की प्रतीक्षा करने लगे, जब उससे उनकी निगाहें चार हों. इस क्षण को ‘कैप्चर’ करने के लिए उन्होंने उस पर निगाहें गड़ा दी.
वह सिर झुकाए कागजों पर झुका रहा. संभवतः कुछ खास तरह की काट-पीट में तल्लीन था. दादा ने सोचा, ‘जिसे खुद का लिखा हुआ समझ में न आता हो, अथवा जो गलत-फलत लिखता हो और दिनभर उसके सुधार में जूझता रहता हो, उसे सरकार क्या देखकर काम पे रखती होगी. क्या सोचकर मजूरी देती होगी. मेरे जैसा होता तो दिहाड़ी काटकर रख देता. वैसे प्रतीक्षा करना, उनके स्वभाव के विरुद्ध पड़ता था. तासीर, उनकी कुछ डिफरेंट सी थी. वे मन मसोसकर इंतजारी में खड़े रहे. न तो उसने मुँह उठाया और न ही इन पर कृपा-दृष्टि डाली. उस समय की गणना के हिसाब से, इन्हें उस दुर्लभ क्षण की प्रतीक्षा में ‘आधा युग’ बीत गया. किसी तरह उसने सिर उठाया और इन पर उचटती सी निगाह डाली. धृष्टता से पूछा “क्या है, क्यों सुबह-सुबह सिर पे सवार हो.” मलूक दादा ने वीरता पूर्वक जवाब दिया, “सुबेर! सामणि दिवाल घड़ि नि छै दिख्येणि. भलमनखि दुफरा ह्वैग्याई” (सुबह! सामने दीवाल घड़ी में तो देख. भलेमानस, दोपहर हो गई है.) फिर वे खड़ी बोली पर सवार हुए और विनयपूर्वक बोले, “मेरी माँ के खाते में पैसे थे. फौरन मुझे सौंप दो.” “पैसे, कैसे पैसे… और तुम्हें क्यों सौंप दूँ.” “वो मरने से पहले मेरे नाम कर गई.” “डेथ सर्टिफिकेट जमा करा जा, फिर देखेंगे.” “श्मशान घाट की रसीद है… येल्लो.” कहकर उन्होंने जेब से एक तुड़ा-मुड़ा कागज निकाला और खिड़की से अंदर फेंक दिया. उसने कागज को बिना देखे, उसी रास्ते दुगुनी स्पीड से बाहर फेंका और चीखकर बोला, “डेथ सर्टिफिकेट चाहिए, डेथ सर्टिफिकेट. न जाने कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं. पैले सेई दिमाग का दई हो रखा है…”
दादा निश्चित रूप से व्यथित थे. इस व्यवहार पर वे संयम भी खो बैठे. अकस्मात् वे भावाविष्ट पोज में आ गए. उनके नथुने फड़कने लगे. क्रोध में जब उन्हें कुछ नहीं सूझा, तो उन्होंने काउंटर की खिड़की से अपने हाथ को लंबा करके अंदर ठेला और उसका गिरेबां पकड़ लिया. वे शत्रु को उस खिड़की से बाहर निकालने की सक्रिय चेष्टा करने लगे. हमला आकस्मिक और अप्रत्याशित ढंग से हुआ था. पहले तो उसे समझ ही नहीं आया कि आखिर यह हो क्या रहा है. जब काफी हद तक उसकी साँस घुट गई, तब जाकर वह आत्मरक्षा के लिए सतर्क हो सका. आक्रांता की पकड़ बहुत मजबूत थी. खूब झूमाझटकी हुई. बमुश्किल उसने अपना कंठ छुड़ाया. दादा उसे ‘बिल’ जैसी खिड़की से बाहर तो नहीं निकाल पाए, लेकिन मेज तो उसे पार करा ही दी. काउंटर खिड़की थी भी इतनी छोटी कि, उससे मात्र छोटी बिल्ली ही आराम से आ-जा सकती थी. इस अभियान में विफल होकर उन्होंने जो उद्गार व्यक्त किए, वह लिखने लायक नहीं हैं. ‘एथिकली’ तो सुनने लायक भी नहीं हैं. फिर उन्होंने सार-संक्षेप करते हुए कहा, यदि वे अपनी पर आ गए तो बहुत कुछ विद्रूप हो जाएगा, जो कदाचित् डाक विभाग वालों को अच्छा नहीं लगेगा. सयाने फिर से बीच में पड़े. उन्होंने मलूक दादा को कसकर पकड़ा हुआ था. फिर उन्हें कसकर पानी पिलाया.पानी पिला-पिला कर उन्हें समझाया. “कानूनी कार्रवाई है. पूरी तो करनी ही पड़ेगी. कागज तो देना ही पड़ेगा.” “कागज! दे तो दिया कागज. इस रसीद में क्या कमी है. पूरे साढ़े तीन कुंटल लकड़ी की रसीद दे दी. फिर भी कानून छाँटते हैं, स्साले.” तभी जालीनुमा खिड़की के अंदर से आवाज आई, “मौत हुई है, इसका प्रमाण तो देना पड़ेगा ना.” अंदर की आवाज सुनते ही दादा हिंस्र हो उठे. पकड़ में छटपटाते हुए बोले, “तुझे इस रसीद पे भौत ज्यादा शक हो रा ना.रसीद पे तुझे जादाई खोट दिखरा, तो तू अपने बाप की रसीद दिखाके दिखा.” ‘पंच तत्व’ नामक सयाने ने दादा को डपटकर कहा, “बेकूब जैसी बात मत कर. अब भौत हो गया. तूने भी तो डाकिए की नौकरी की थी. कागज का पेट तो भरनाई पड़ता है, भलेआदमी.”
इस डाँट का थोड़ा सा सार्थक असर पड़ता हुआ दिखाई दिया.दादा अबोध भाव से बोले, “मैं तो पाँव-पैदल डाक बाँटता था. इक्का-दुक्का मन्यार्डर. दफ्तर वालों के चोंचले मैं क्या जानूँ.” फिर लंबी साँस लेकर हिकारत भरे स्वर में बोले, “सब स्साले देश को लूट रहे हैं.” जैसे-तैसे उनका रोष शांत किया.कोप शांत होने के पश्चात् उन्हें नैसर्गिक उत्तराधिकार और उसके ‘प्रोसीजर’ की जानकारी दी. ‘डेथ सर्टिफिकेट’ का माहात्म्य बताया.
मलूक दादा, समझ तो सब कुछ गए लेकिन इस बात पर अड़े रहे कि वे डिपार्टमेंट को ‘औकात- बोध’ कराए बिना इन ‘दो कौड़ी की बातों’ को न तो समझना चाहते हैं, और न ही मानमर्दन किए बिना यहाँ से टलने वाले हैं. आपात स्थिति महसूस कर किसी सयाने को चिंता हुई तो उसने फौरन सरपंच को मौके पर बुलाया. मौके पर ही ठप्पा लगाकर ‘डेथ सर्टिफिकेट’ उनके सुपुर्द किया गया. अंततोगत्वा उत्तराधिकार की पूँजी दादा के हाथ लग चुकी थी. चलते-चलते वे उसे पिंजरे से बाहर आने को ललकारते रहे. उसे बल भर उकसाया. लेकिन वह धन्य था, धैर्यशील था. उसने इस उकसावे पर कान तक नहीं दिया. वह अपने ‘जोड़- बाकी’ में उलझा रहा. शायद इसीलिए इनसे उलझने में उसने कोई खास रुचि नहीं दिखाई.
पहले तो परिवार को पूंजी मिलने पर बहुत हर्ष हुआ. फिर अचानक उन पर गहरा विषाद छाता चला गया. वे तो बस स्वर्गीया की इस निशानी का सदुपयोग भर करना चाहते थे. शर्त अथवा बाजी से इसे, किसी भी तरह बचाए रखना चाहते थे, जो उन्हें प्रायः नामुमकिन सा लगा. दाँव खेलना तो परिवार-प्रमुख का रोजमर्रा का कारोबार हुआ करता था. वैसे आदमी वे बुरे नहीं थे. बस ‘आलीशान’ थे. जुबान उससे भी आगे. सो उन्होंने दादा से मनुहार की. उन्हें मनाया. डरते-सकुचाते संयम बरतने को कहा. परिजन अपनी जगह बिल्कुल सही थे. अक्सर उनकी दाँव खेलने की आदत से, परिवार अमूमन दाँव पर लगा रहता था. ये वे खुद भी अच्छी तरह जानते थे कि, दाँव खेलना अच्छी बात नहीं. इस ‘गुण’ से बड़े-बड़े राजपाट जाते रहे. वे स्वयं राजा नल और राजा युधिष्ठिर के उदाहरण दिया करते थे. लेकिन थे आदत से मजबूर थे. परिवार वालों की नसीहत सुनते-सुनते वे हाहाकार मचाने लगे. थामने पर उनका प्रलाप, रुका नहीं, अपितु रोके जाने के अनुपात में बढ़ता ही चला गया. वे हमेशा आवेश में रहते थे. बहके-बहके से. दनदनाते हुए वे ‘गोठ’ में गए.
जब तक परिजन-पुरजन कुछ समझते, तब तक तो वे अपने ‘टीनएजर’ बैलों को हाँकते हुए बाहर निकल पड़े. बैल चलकर नहीं, लगभग दौड़कर बाहर आए. हैरानी की बात थी कि, बैलों पर ‘जंदरा’ भी जुता हुआ था. किसी को भी इसका अभिप्राय समझ नहीं आया. रोपाई तो दो हफ्ते पहले ही हो चुकी थी. अब तक तो धान के पौधे, जड़ भी पकड़ चुके थे.लोगों को इस बात पर हैरानी हुई कि, अब ‘जंदरे’ की क्या जरूरत. हैरानी तब जाकर और बढ़ी, जब उन्होंने बैलों को लगभग ठेलते-धकेलते हुए रोपनी के खेतों में उतार दिया. एक हाथ से जंदरे का हत्था थामें, वे अजीब से कौशल से जंदरे पर सवार थे. ‘कमसिन’ बैलों को हाँकते हुए, वे तूफानी गति से दौड़ाने लगे, मानो कोई महारथी रणभूमि में हो और शत्रुओं का संहार करने के इरादे से रथ को हवा के माफिक दौड़ा रहा हो. अब जाकर लोगों को समझ में आया, ‘अरे रे रे, ये तो लगी-लगाई फसल को समूल उखाड़ने पर आमादा है.’ थामाथामी का दौर चला. रोकते-थामते भी, एक खेत को तो वे पूरा का पूरा तहस-नहस कर चुके थे. उन्हें बमुश्किल थामा गया. थामनेवालों को तो वे बैलों से हाँकने वाली संटी से हाँकते जा रहे थे. बकरे की कीमत पर उठे सवाल को लेकर, ‘सल्ला’ हुई. तत्पश्चात् नेक-सयाने लोग, बकर- स्वामी के ‘आंगन-पटाँगण’ में उपस्थित हुए.कुछ उत्सुक और कुछ मज़े लेने वाले लोग भी, इस भीड़ में जुलूस की शक्ल में शामिल थे.
बकरस्वामी उस समय हतप्रभ होकर रह गया जब उसे बाहर आकर, दो-दो बात करने की ललकार सुनाई दी. जुलूस देखकर पहले तो उसे घबराहट हुई. फिर भीड़ में से एक-दो वार्ताकार आगे निकल आए. उन्होंने बकरस्वामी से कड़ाई से कहा, “तुझे घर उजाड़ते शर्म नहीं आती. कुछ तो भगवान से डर. भले आदमी, ऐसा कहीं होता है. बकरे की कीमत ले रहे हो कि डाँड.” वह सकपकाते हुए बचाव की मुद्रा में बोला, “शुरुआत तो इसी ने की थी. हमेशा शुरुआत येई करता है. किसी से भी पूछ लो.” “तो भाई, बीच में शर्त क्यों बदली. ये तो सरासर बेईमानी है. जब बात उठाने की हुई, तो उसे वाचस्पति के घर तक पहुँचाने को क्यों मजबूर किया.” इस तर्क का बकरस्वामी के पास कोई जवाब नहीं था. सैद्धांतिक रूप से उसने भी माना कि ज्यादती तो हुई है. सयानों ने कुछ देर मशविरा किया. फिर कुछ देर शिखरवार्ता चली. मामला हवा के रुख के माफिक, समझौतावादी रुख की ओर जाता दिखाई पड़ा .अंत में, यह तय पाया गया कि, मलूक दादा को बकरा ‘लिफ्ट’ करने का एक और मौका मिलना चाहिए. कुछ-कुछ टाइब्रेकर जैसा. एक और खास बात थी जो इस बार पहले से ही तय कर दी गई, कि शर्त पहले से ही तय होगी. स्पर्धा के बीच में किसी किस्म की रद्दोबदल नहीं चलेगी. जो धांधलेबाजी करने की सोचेगा या जो बीच में ‘चोंच’ खोलेगा, ‘उसीका’ रद्दोबदल कर दिया जाएगा. मलूक दादा को तो मानो मुँह माँगी मुराद मिल गई हो.
स्पर्धाओं में भाग लेने को तो प्रायः आतुर से रहा करते थे. माँ के देहांत के बाद उन्होंने किसी स्पर्धा-प्रदर्शन में भाग नहीं लिया था. बिन प्रदर्शन के जीवन, बेमानी सा लगने लगा. बिलकुल सूना-उचाट. अवसर मिलते ही उनका मन एकाएक निर्मल हो गया. सारा का सारा कलुष जाता रहा. उन्होंने अंतर्मन में सोचा, “इस बार ऐसा प्रदर्शन करुँगा कि, सबको चकित कर दूँगा. एकदम से चार चाँद लगा दूँगा।” उन्होंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया. फिर भाव विह्वल होकर बुदबुदाए, “हे प्रभु, तेरी माया सचमुच अपरंपार है.”
ललित मोहन रयाल
उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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