तो एक बार भवाली की टीम को ‘राम वनवास’ वाला प्रसंग मिला प्रस्तुति के लिये. राम-लक्ष्मण का वनवासी वेष धारण करने का दृश्य जिस प्रभावकारी और सादगी के साथ उन्होंने मंच पर प्रस्तुत किया वह आज भी मेरे मानस में अंकित है. राजा दशरथ मंच के अग्रभाग पर मूर्छित पड़े हैं. राम को वनवास का आदेश हो चुका है. कैकेइ और मन्थरा ने जोगिया रंग की धोती से मंच के पृष्ठ भाग पर एक पर्दा-सा तान रखा है, जिसके पीछे से राम-लक्ष्मण अपने राजसी वस्त्र-आभूषण उतार-उतार कर मंच के अग्रभाग में फेंक रहे हैं. मंथरा और कैकेई वस्त्राभूषणों को देख रही हैं. और गीत चल रहा है-
उतारूं राज के कपड़े जो है माता तेरे मन मे.
बनाऊं भेष मुनियों का रमाऊॅं भस्म सब तन में.
इस पूरे दृश्य का प्रभाव जो दर्शकों पर पड़ा वह वर्णनातीत है. संयोग से राम-लक्ष्मण की जोड़ी भी छोटी – छोटी गजब की थी उस साल वहॉ की. कार्यक्रम सम्पन्न होने के बाद मालूम हुआ कि निर्देशन भवाली के सतीश लाल साह का किया है जिन्होंने नाटककार स्व. अनिरूद्ध मिश्रा जी के साथ भी बहुत नाटक किये. ‘सतीश’ कुछ समय तक गीत और नाटक प्रभाग के नैनीताल केन्द्र में भी कलाकार रह चुके.
गीत और नाटक प्रभाग के जिक्र के साथ ही एक और प्रयोग की बात. सन् 1974 में गीत-नाटक प्रभाग नैनीताल ने स्व. तारा दत्त सती जी के निर्देशन में ‘सम्पूर्ण रामायण’ की प्रस्तुति की. एक प्रसंग जो अभी तक पर्वतीय रामलीला में शामिल नहीं था और न है, वह जोड़ा गया – ‘हनुमान का जागर’. चूंकि हनुमान को अपने ‘बल’ की याद नहीं रहती थी, यह अभिशाप था उन्हें. इसलिये उन्हें याद दिलाना पड़ता था किन्तु ऐसा है -ऐसा है. सो समुद्र के किनारे सीता की खोज में बंदर भटक रहे हैं. तब ये हनुमान को समुद्र – लंघन के लिए उत्प्रेरित करते हैं, मतलब – ‘हनुमान का जागर’ लगाते हैं –
बाल समय रवि भक्ष लियो तब तीनहॅू
लोक भयो अंधियारो.
ताहि सों त्रास भई जग को यह संकट
काहु सों जात न टारो.
देवन आय करी विनती तब छाड़ि दियो
रवि कष्ट निवारो.
को नहिं जानत है, जग में कषि संकट
मोचन नाम तिहारो.
जै हनुमान ज्ञान गुन सागर, जै कपीश
तिहॅूं लोक उजागर.
रामदूत अतुलित बलधामा. अंजनि पुत्र,
पवन-सुत गामा.
जै जै जै जै जै हनुमाना
जै जै जै जै जै जै हनुमाना…
बचपन में मां के मुंह से यह छन्द सुना करते थे और हुनमान के ‘अपना बल’ भूल जाने वाली बात भी. सो वह संस्कार हनुमान के बहाने ‘मनुष्य का जागर’ लगाने के प्रतीक के रूप में इस प्रकार कलात्मक ढंग से सामने आया. (हनुमान ‘हमारे पूर्वज’ जो ठहरे) इसमें बहुत कुछ किया – धरा नहीं – बस पर्वतीय अंचल की जागरी ताल पर ‘हुडुका – थाली’ में ‘आल्हा’ की धुन समाहित कर दी. छन्द और ध्वनि प्रभाव से उत्तेजित होकर हुनमान समुद्र लांघ जाते हैं. खुशी है यह प्रयोग सफल रहा और सराहा गया. किन्तु पारम्परिक रामलीला तक अभी यह प्रयोग पहुंचा नहीं है. इसके कई कारण हैं. गीत और नाटक प्रभाग की रामलीला में पर्वतीय रामलीला की गीत – नाट्य (ओपेरा) शैली से अधिक उदयशंकरी रामलीला की नृत्य शैली का प्रभाव है. क्योंकि स्व. तारा दत्त सती जी उदयशंकर जी के भाई देवेन्द्र शंकर जी से ‘मार्डन बैले’ की थोड़ी – बहुत तालीम प्राप्त किये थे. फिर उदय शंकर जी की रामलीला ने अपने समय में प्रभाव तो सभी पर छोड़ा ही था. ग्रामीण क्षेत्रों में तक ‘शैडो’ (छाया) में सीन दिखाये जाने लगे थे गैस बत्ती के सहारे. जो कि थी एक भौंडी नकल. लेकिन ऐसा प्रभाव पड़ा था उदयशंकर जी का यह सच है. सो इस परिप्रेक्ष में देखते/समझते हुवे-‘हनुमान के जागर’ को गीत – नाट्य का हिस्सा होकर उतरना है अभी मंच पर.
यह सब कहने /लिखने का मेरा मकसद सिर्फ इतना ही है कि स्थानीय रंगमंच का रचनात्मक – प्रयोगधर्मी इतिहास लिखने की प्रेरणा लोगों में जागृत हो और इसी प्रकार हर क्षेत्र, हर विषय में उत्तराखण्ड का रचनाधर्मी इतिहास सामने आ सके. क्योंकि हमारे पास अभी बहुत कुछ ऐसा है जिसे लिखा/कहा जाना है. याने-अपने बारे में अभी बहुत कुछ जानना है हमें. हुक्का क्लब द्वारा ‘‘हनुमान जागर’’ पिछले कई वर्षों से मंचित किया जा रहा है.
( समाप्त )
पुरवासी के 23वें अंक में गिरीश तिवाड़ी ‘ गिर्दा ‘ का लेख रामलीला और सामाजिक सरोकार.
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