जीवन के कैनवास पर निर्माण और विध्वंस दो ऐसी थीम हैं जिनके प्रभाव से बचा हुआ कोई भी आज तक मिला नहीं. और मजे की बात कि ये दोनों बिना मजदूर के संभव नहीं हैं. अल्मोड़ा में सामान्यतः मजदूरों के दो विग्रह दिखायी पड़ते हैं पहले बिहारी मजदूर दूसरे डोटियाल.
पहले चर्चा डोटियालों की.
डोटियाल नेपाली मूल के श्रमिक हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी पापी पेट के सवालों के हल खोजने के लिये पहाड़़ से पहाड़ पर आते रहे हैं. नेपाल के महेंद्रनगर, धनगड़ी, रूपैडिया, जनकपुर, लुम्बिनी से लेकर दारचूला तक के डोटियाल काम के लिये “साहब बहादुर” के जमाने से अपने नाम का मतलब सिर्फ “बहादुर” समझते हुये और समझाते हुये चले आ रहे हैं . दुनिया उनका मूल काम सिर्फ बोझा उठाना समझती है. बस्स बोझा. भारी भरकम बोझा.
अल्मोडा के भौतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक विकास में डोटियालों का योगदान नजरअंदाज करना गुस्ताखी होगा क्योंकि ये वहीं डोटियाल हैं जो अल्मोड़े की ख़ालिस बुद्धि को दिन भर चाय पीने, ताश खेलने, राजनैतिक चर्चा करने से लेकर शाम को दो-दो पैग के इंतजाम में दिन खपाने का मौका देते हैं.
घुटनों तक टाइट जींस – जो निस्संदेह भूतकाल में पांव के टखनों तक रही किसी पैण्ट का कायिक रूपांतरण होगी, किसी सीमेंट या शराब कंपनी की बेमतलब हासिल टीशर्ट, पांव में हवाई चप्पल और कंधे पर दो तीन छल्ले बनाकर समुद्री लुटेरों की तरह लटकाई गयी रस्सी. पहली नजर में डोटियाल बस इतना ही नजर आता है.
किसी भी मोड़़़ पर पैराफिट या पटालों पर झुण्ड में चिपक कर बैठे, सुर्ती फांकते, बीड़ी फूंकते या सस्ते चायनीज मोबाइल जिसमें पीछे की तरफ दो बडे़ बडे़ स्पीकर उभरे होते हैं पर नेपाली पहाड़ी गाने सुनते या कुछ गोपनीय देखकर ठीठी करके हंसते हुये डोटियाल पूरे शहर में आपको आसानी से नमूदार होते हुये दिख जायेंगे.
अपनी बोली भाषा जो कि उनकी एकमात्र संपत्ति होती है, में चलते चुटकुलों में कौन वेज है कौन नॉनवेज पता नहीं चलता बस हंसी के सीमित लहराव से कोई समझ सकता है कि कुछ तो था.
डोटियालों की हालत का आलम कुछ कुछ वैसा ही है जैसे सऊदी अरब के खेतों, होटलों में काम करने वाले हिन्दुस्तानी मुसलमानों का. अव्वल मेहनत के बाद भी दोयम व्यवहार से पीड़ि़त के थके हारे पर मुस्कुराते हुये डोटियाल. “क्या बोझा“, “कैसा बोझा“, “कितना बोझा“, “कायेका बोझा“ ये सब डोटियाल के लिये फालतू के सवाल हैं. उसके लिये “कितना देगा साब“ और “कहां जाना है“ दो प्रश्न ही सामने वाले के व्यक्तित्व को समझने के लिये काफी हैं.
नेपाल के ज्यादातर इलाकों से जो मजदूर काम करने के लिये पहाड़ पर आते हैं उन्हें पहाड़ पर ही डोटियाल कहा जाता है. नीचे के मैदानी इलाकाई समाज ने उन्हें “बहादुर“ या “नेपाली“ से अलग और आगे कह पाने की हिम्मत नहीं दिखायी. डोटियाल मूल रूप से कुमाऊनी, गढवाली, नेपाली, हिमाचली आदि पहाड़ी बोलियों में समान रूप से व्यवहृत शब्द है जिसका अर्थ होता है मजदूर. मजदूर जिससे कोई भी काम लिया जा सकता है. हालांकि पहाड़ों में डोटियाल नाम के कुछ गांव भी यदाकदा पाये जाते हैं. पर उनका कोई कनैक्शन दिखता नहीं है.
डोटियालों के कुछ किस्से पहाड़ों में किंवदंतियों के रूप में प्रचलित हैं जैसे कि डोटियाल को कोई बोझा अगर ज्यादा लगता है तो वह उससे ज्यादा भारी पत्थर सर पर कुछ सेकण्ड के लिये ही सही उठा लेता है जिससे कि पहले उठाया गया बोझ कुछ कमतर लगे और उठाने के लिये आवश्यक मनोबल इकट्ठा हो जाये.
इनकी ईमानदारी निर्विवाद होती है. सामान पहुंचाने के लिये इनके पास केवल सही पता भर होना काफी है, फिर केवल यमराज के पास ही इन्हें रोकने के उपाय बचते हैं.
पूरे शहर में कुल कितने डोटियाल काम कर रहे होंगे इसका प्रामाणिक आंकड़ा किसी के पास नहीं होता है क्योंकि घुमक्कड़ स्वभाव के ये प्राणी सीधे सीधे रोजगार की मांग की आपूर्ति के साथ चिपके हुये पाये जाते हैं. पर ये हर मौसम में काम करते दिखाई जरूर पड़ते हैं. क्या दशहरा क्या दीपावली इनकी उपस्थिति सबकुछ संभाव्य बनाती है.
शहर के ऊंचे दुर्गम इलाकों में बने घर और घरों के लिये जरूरी सामान बिना डोटियालों के शोरूम और दुकानों में पड़ा पड़ा सड़ जाये ऐसा कहते हुये सुना गया है. परंतु समाज इनके साथ दोयम पचोयम दर्जे का व्यवहार करता है.शहर के लिये इनके होने के सीमित मतलब हैं. उससे भी सीमित है इनके मनोभावों, आदतों से रूबरू होना. शराब की भट्ठी पर उतारी गयी पेटियों के ऐवज में मिले पैसे से उसी भट्ठी से ओवररेट में खरीदा गया पव्वा रोज शाम इनकी ब्राण्ड वैल्यू दिखाता है. अल्मोड़े की ग्लोबल ब्राण्ड वैल्यू में नेपाल के किसी दूर गांव के सपने रोज शाम जमींदोज होकर कोई पहाड़ी लोकगीत गाते हुये अपनी “जर जोरू जमीन“ को याद करते करते थक जाते हैं, सो जाते हैं.
ठीक है सबके नसीब में कलैक्टरी नहीं होती तो सब मजदूरी भी तो नहीं करते हैं. फिर कलम का ही सम्मान क्यों. यह शिक्षा व्यवस्था का सबसे बड़ा फेल्योर है जो ऐवरेस्ट की ऊंचाई के आंकड़े तो रटा देती है पर उसी सागरमाथे की तलहटी में उगने वाले डोटियालों के श्रम का सम्मान करना नहीं सिखाती है. ये अल्मोड़़े की नहीं पूरे मुलुक की समस्या है.
अब बारी बिहारियों की.
बिहारी और डोटियाल में थोड़ा फर्क है. ज्यादातर बिहारी डोटियालों की अपेक्षा कुशल कामगार की श्रेणी में आते हैं. पेंटर, बढ़़ई, धोबी, मोची से लेकर मकान बनाने वाले राजमिस्त्री – सब पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार, झारखण्ड से आये मजदूर होते है जो चंपारण, सासाराम, मोतिहारी, बेतिया, मधुबनी, मोतिहारी, गया, कोडरमा, दुमका तक फैले हरे भरे श्यामल प्रदेश से उसी प्रश्न का हल खोजने पहाड़ पर आ जाते हैं जिसके लिये डोटियाल आते हैं. तीन अक्षर के लगभग गालीनुमा शब्द “बिहारी“ जो दिन में सौ दफा अंदर तक छलनी करता है में सारे बिहारी सिमट जाते हैं. वहीं सिमट के दम न टूटने पाये इसके लिये दिन रात पत्थर भी तोड़ते रहते हैं. वे सबके लिये भले ही बिहारी हों पर अपने लिये दुसाध, मुसहर, बेलदार, ढीमर, बेलदार से लेकर न जाने कहां कहां तक की पहचान लिये घूमते हैं पर उनकी अपनी पहचान को कौन पहचानता है. बिहारी जो हुये.
अल्मोड़़े के विकास में इन सबका योगदान है.अल्मोड़े को अल्मोड़ा बनाते बनाते खुद अल्मोड़ा बन चुके बिहारी अपनी अपनी मूल बोली भाषा के साथ थोड़ी थोड़ी कुमाऊनी जो कि ठहरा और बल से थोड़ी ही आगे तक पंहुच पाती है इस गरज के साथ सीख लेते हैं कि काम में आसानी हो सके. बिहारी और डोटियालों के लिये ठहरा और बल ही कुमाऊनी है. यह फर्क बिल्कुल स्वाभाविक है अस्वाभाविक नहीं ठीक वैसे ही जैसे अल्मोडे़ के लिये “आवा जावा खावा पावा“ और “तनिक“ के प्रयोग ही बिहारी हैं.
कहीं न कहीं हम सब डोटियाल हैं. फर्क इतना है कि हम अपने अंदर के डोटियाल को कागज के कुछ टुकड़ो पर लिखे अंकों से छुपाकर रखना जानते हैं. व्यवस्था में परिवर्तन के लिये जरूरी है कि बौद्धिक और शारीरिक श्रम दोनों का समान सम्मान हो ताकि दोनों प्रकार के डोटियालों को चाहपानी मिलता रहे फिर चाहे वह जापान, दुबई, अमेरिका का डोटियाल हो या लालाबजार में लोहे के शेर के पास सुर्ती घिसता डोटियाल.
– विवेक सौनकिया युवा लेखक हैं, सरकारी नौकरी करते हैं और फिलहाल कुमाऊँ के बागेश्वर नगर में तैनात हैं. विवेक इसके पहले अल्मोड़ा में थे. अल्मोड़ा शहर और उसकी अल्मोड़िया चाल का ऐसा महात्म्य बताया गया है कि वहां जाने वाले हर दिल-दिमाग वाले इंसान पर उसकी रगड़ के निशान पड़ना लाजिमी है. विवेक पर पड़े ये निशान रगड़ से कुछ ज़्यादा गिने जाने चाहिए क्योंकि अल्मोड़ा में कुछ ही माह रहकर वे तकरीबन अल्मोड़िया हो गए हैं. वे अपने अल्मोड़ा-मेमोयर्स लिख रहे हैं
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3 Comments
नाज़िम अंसारी
यह आलेख पढ़ कर कोई भी आसानी से समझ सकता है कि यह पूर्वाग्रहों से प्रेरित और अल्मोड़े के प्रति दुर्भावना से ग्रसित होकर लिखा गया है | अल्मोड़ा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक नगरी है यहाँ के ऐतिहासिक भवन (पत्थर और लकड़ी की नक्काशी वाले प्राचीन भवन जिनमे से अधिकतर आख़िरी साँसे ले रहे हैं ) नेपाली अथवा बिहारी श्रमिकों की मदद से नहीं बल्कि यहां के स्थानीय श्रमिकों के श्रम और कारीगरी का परिणाम हैं | बिना ऐतिहासिक जानकारी के ऐसे सतही लेख नई पीढ़ी को शायद यह सन्देश देना चाहते हैं कि बाहर से आये श्रमिक यहाँ मेहनत करते हैं और यहाँ के स्थानीय नागरिक कुछ नहीं करते और यह भूल जाते हैं कि इन श्रमिकों रोज़गार अल्मोड़े के लोग ही देते हैं | सऊदी अरब में भारतीय मुसलमान ही नहीं सभी धर्मों के लोग पैसा कमाने के लिए जाते हैं और अच्छा पैसा कमाकर अपने देश में भेजते हैं उनसे नेपाली-बिहारी श्रमिकों की तुलना मूर्खतापूर्ण है |
ओम प्रकाश नदीम
लेख अच्छा है और उपसंहार तो बहुत ही अच्छा है।
k n badhani
डोटियाल शब्द डोटि से उत्पन्न हुआ है। डोटि नेपाल का पक्षिमी जनपद है। पूर्व में यह एक सशक्त राज्य रहा है।