गणेश जोशी
हल्द्वानी निवासी गणेश जोशी एक समाचारपत्र में वरिष्ठ संवाददाता हैं. गणेश सोशल मीडिया पर अपनी ‘सीधा सवाल’ सीरीज में अनेक समसामयिक मुद्दों पर ज़िम्मेदार अफसरों, नेताओं आदि को कटघरे में खड़ा करते हैं. काफल ट्री के लिए लगातार लिखेंगे.
अपने बच्चों का भविष्य संवारना है. उसे अंग्रेजी का ज्ञान दिलाना है. बड़ा आदमी बनाना है. इसके लिए हम जान से प्यारे लाडले को पब्लिक स्कूल में भेजते हैं। अपना शौक पूरा करने में कोई भी कमी क्यों न रह जाए, मंजूर है, लेकिन अपने बच्चे की पढ़ाई में कोई कमी नहीं आनी चाहिए। आज यही तो हर माता-पिता का सपना है। यह तो ठीक है लेकिन, जिन चमचमाते पब्लिक स्कूलों में हम भविष्य के सपने बुनने के लिए अपने बच्चों को भेज रहे हैं, वहां की व्यवस्था के आगे विवश हो जा रहे हैं. मौका मिलने पर शिकायत भी करते हैं, कभी मीडिया से तो कभी शिक्षा विभाग के अधिकारियों से. शिकायत के बाद शर्त रख देते हैं, मेरा नाम उजागर नहीं होना चाहिए।
उन्हें लगता है कि कहीं स्कूल प्रबंधन को मेरे द्वारा की गई शिकायत का पता न चल जाए, कहीं मेरे बच्चे को स्कूल से निकाल न दें. उसे डराने और धमकाने न लगें. बस, इसी कमजोरी का फायदा उठा लेते हैं ये तमाम स्कूल संचालक. आपको पता भी नहीं चल पाता कि आपकी जेब कहां और कैसे कट रही है. अगर ऐसा नहीं होता, तो चंद वर्षों में ही स्कूल संचालक करोड़ों के व्यारे-न्यारे न करते.
वर्ष 2017-18 चल रहा है. आपको याद होगा, मार्च के महीने से ही राज्य सरकार पब्लिक स्कूलों पर सख्ती बरतने के मूड में आ गई थी. दबंग स्टाइल के भाजपा सरकार में शिक्षा मंत्री अरविंद पांडे ने सभी पब्लिक स्कूलों में एनसीईआरटी सिलेबस की किताबों अनिवार्य रूप से लगाने का आदेश करवा दिया. पूरे सिस्टम में खलबली मच गई. प्राइवेट प्रकाशकों के पांवों तले जमीन खिसक गई. हल्ला मच गया. मीडिया की सुर्खियों में अरविंद पांडेय ही नजर आने लगे. मानो ऐसा लगा, कोई क्रांतिकारी परिवर्तन होने वाला है. पीड़ित अभिभावकों के मन की दबी इच्छा मनो बाहर आ गई हो. पूरे उत्तराखंड में इस पहल को शिक्षा की नई क्रांति के तौर पर देखा जाने लगा.
सरकार भी इस जन मुददे को भुनाने की हर कोशिश में जुट गई. अक्सर सुस्ती की चादर ओढ़े रहने वाले शिक्षा विभाग के अधिकारी भी अति सक्रिय नजर आने लगे. बदहाल सरकारी स्कूलों की दशा को दुरुस्त करने बजाय चमचमाते पब्लिक स्कूलों के काले कारनामे की कलई खोलने के लिए बांहें समेटते हुए निकल गए.
शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय अपने गुरु बलराज पासी के साथ मिलकर प्राइवेट पब्लिशर्स की तलाश में जुट गए। हल्द्वानी में प्रकाशक मिल गए. बंद कमरे में उनसे बात हुई और किताबें छपवा दी गई. ये किताबें डंडे के बल पर बाजार में उपलब्ध भी करवा दी. निगरानी करने रहे शिक्षा अधिकारियों को चौकन्ना कर दिया गया. पब्लिक स्कूलों के बच्चों को उत्तराखंड में ही प्रकाशित एनसीईआरटी की किताबें पढ़वाने के लिए जबरदस्त सरकारी दबाव बना दिया गया। हर ओर से शिक्षा मंत्री के इस अनूठी पहल की सर्वत्र सराहना होने लगी. अप्रैल व मई के महीने में हाई प्रोफाइल सरकारी ड्रामा चला. हर स्कूल को राज्य में ही प्रकाशित एनसीईआरटी की किताबें उपलब्ध करा दी गई.
राज्य सरकार के इस ठोस कदम ने पब्लिक स्कूल संचालकों को अंदर तक झकझोर दिया. उन्हें ऐसा लगने लगा, मानो उनसे कुछ कीमती वस्तु छीन ली गई हो. अप्रत्यक्ष तरीके से न्यायालय की भी शरण ले ली गई. हालांकि, आदेश तटस्थ था. मनमानी करने की छूट नहीं थी. यह सब हो गया, लेकिन डेढ़ महीने की गर्मी की छुटिटयों के बाद प्राइवेट प्रकाशकों का पब्लिक स्कूलों में मंडराना कम नहीं हुआ. उन्होंने भी किताबों छपवा ली थीं. बिकवानी भी थीं. इसलिए उन्होंने भी हर तरह से कोशिश शुरू कर दी.
पब्लिक स्कूल संचालकों को हर साल की तरह, अबकी बार भी लगा कि हाथी चलते रहते हैं और कुत्ते भौंकते रहते हैं, इसी सोच के साथ उन्होंने धीरे-धीरे प्राइवेट प्रकाशकों की पुस्तकें मंगवानी आरंभ कर दी. किसी ने सीधे पर्ची भिजवा दी तो किसी ने बच्चे को क्लासरूम में खड़ा करवा दिया. आखिर, अभिभावक क्या करते, मन मसोसकर पब्लिक स्कूलों के आदेश को मानने लगे. एनसीईआरटी के अलावा भी अधिकांश पब्लिक स्कूलों ने अगस्त तक 500 से 2000 रुपये की अतिरिक्त किताबों खरीदवा ली. इससे अभिभावकों की बेचैनी बढ़ी. इधर-उधर शिकायत करने लगे. मीडिया में भी बातें उछलने लगी. हाय-तौबा मचने लगा. दबंग स्टाइल और जहां-तहां कुछ भी बयान देने वाले शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय भी अपने ही आदेशों की धज्जियां उड़ता देख रहे हैं, लेकिन ठोस कारवाई लेने पर चुप्पी ही साधे हैं. अधिाकारियों ने भी हाथ खड़े कर लिए लिए थे. हालांकि, अब शिक्षा विभाग के अधिकारी कुछ कार्रवाई तो करते दिख रहे हैं. यह कार्रवाई अंजाम तक पहुंचंेगी. इसकी उम्मीद तो की जा सकती है, लेकिन, जिस तरह का रवैया तंत्र का रहा है, उस पर पूरा भरोसा कर लेना भी जल्दबाजी ही लगता है.
एक और खास बात का उल्लेख करना चाहूंगा, जब एनसीईआरटी नई दिल्ली पर्याप्त पुस्तकें उपलब्ध नहीं करवा पा रही थी, तो हर पब्लिक स्कूल संचालक का यही तर्क हुआ करता था कि पूरी किताबों ही नहीं आती हैं. हम तो एनसीईआरटी ही पढ़ाना चाहते हैं. अब उनके पास कोई जवाब नहीं है. हां, कुछ सामान्य अध्ययन, नैतिक शिक्षा व अन्य किताबों मंगवा सकते हैं. इसी के बहाने वह उन किताबों को भी मंगवा रहे हैं, जो बच्चों के पास एनसीईआरटी सिलेबस में पहले से ही उपलब्ध हैं.
आखिर पब्लिक स्कूलों को कानूनों का डर क्यों नहीं है? किसके संरक्षण में वह नियमों को ही ताक पर रखने में तुले हैं? शिक्षा में गुणवत्ता लाने के बजाय अभिभावकों की जेब पर ही उनकी नजर क्यों है? सीबीएसई की गाइडलाइन को फाॅलो करने में उन्हें क्यों दिक्कत होती है? एनसीईआरटी की किताबों से पढ़ाने में खुद को असहज महसूस क्यों करते हैं? महंगी पुस्तकें उपलब्ध कराने वाले प्राइवेट पब्लिशर्स से इतनी महोब्बत क्यों है? इन तमाम सीधे व सरल सवालों का जवाब उनके पास क्यों नहीं है? अगर जवाब है तो छिपने के बजाय किसी भी फोरम में रखने में हिचकिचाते क्यों हैं?
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3 Comments
Anonymous
Informative article Ganesh Joshi ji. Have a question about the Right to Education (RTE) and reservation of Economical Weaker Sections is in force in the Public Schools in Uttarakhand?
Sanjay NAINWAL
Informative article Ganesh Joshi ji.
Have a question for you….Is the reservation for Economically Weaker Sections (EWS) under Right to Education (RTE) followed by public schools in Uttarakhand?
Anonymous
जोशी जी लंबे समय से उत्तराखंड की बदहाल शिक्षा व्यवस्था के बारे में सरकार में बैठे नुमाइंदो को जगाने का प्रयास करते रहते हैं , साथ ही शिक्षा का स्तर महंगी फीस के जरिए चयन करने वाले अभिभावकों को जगाने का भी काम करते हैं काफल ट्री में जोशी जी के द्वारा प्रकाशित किया गया लेख न सिर्फ सरकारी व्यवस्थाओं की हकीकत बताता है बल्कि अभिभावकों को भी सचेत करने के लिए काफी है आशा करते हैं कि जोशी जी यूं ही काफल ट्री में लिखते रहेंगे