–रानी की वाव!
–व्हाट? वाव?
मैं भाषा में भटकता हूं…
संस्कृत में एक शब्द है वापी. वापी यानी जलाशय या कुआं.
मनुस्मृति का एक श्लोक मिलता है–
तडागान्युदपानानि वाप्यः प्रस्रवणानि च ।
सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतनानि च ॥
इसका हिंदी तर्जुमा इस तरह से मिलता है–
तालाबों, जलाशयों, तालाबों तथा फव्वारों को सीमा-सम्बन्धों पर बनाया जाए. उन्हें मंदिरों के रूप में भी बनाया जाए.
इसका कारण जो समझ आता है वो ये कि ये सब ऐसे लैंडमार्क्स या निशान हैं जो सार्वजनिक रूप से दिखाई देते हैं और इन्हें आसानी से अनदेखा और मिटाया नहीं जा सकता. इन्हें मिटाने या नष्ट करना एक महान पाप समझा जाता है. चूंकि आमतौर पर जनता पानी लेने और मंदिर में दर्शन करने की इच्छा से वहां लगातार मौजूद रहती है, अगर ये दो राज्यों या क्षेत्रों की सीमा पर अवस्थित हों तो सीमाएं हमेशा परिभाषित रहती हैं.
इस शब्द वापी से मराठी में ‘बारव’ बना है और गुजराती में ‘वाव.’ दोनों का वही मतलब है जो हिंदी में इससे बने शब्द ‘बावड़ी’ का है यानी तालाब, तगाड़, कुआं या ऐसी ही कोई जगह जहाँ पानी का भंडारण होता हो. कुमाऊं गढ़वाल के नौले भी एक किस्म की बावड़ी ही हैं. जैसे अल्मोड़ा का मंदिरनुमा स्यूनराकोट नौला.
अल्मोड़ा…
अल्मोड़ा…
अल्मोड़ा के सिमतोला में तीस के दशक के आखिरी सालों में एक शानदार डांस एकेडमी बनी. उदय शंकर इंडिया कल्चरल सेंटर के नाम से. बनाने वाले थे महान नर्तक और नृत्य निर्देशक उदय शंकर जिन्होंने यूरोपीय और क्लासिकल भारतीय नृत्यों को फ्यूज़ करके एक नई नृत्य शैली बनाई जिसे वो hi dance या creative dance कहा करते थे और जिसमें पश्चिमी डांस फॉर्म के साथ क्लासिकल, फोक और जनजातीय नृत्य मुद्राओं का संगम हुआ करता था. हालांकि बहुत कम समय में ही इस सेंटर का काम यहां से बंद हो गया और बाद में कलकत्ता में उदयशंकर सेंटर फॉर डांस स्थापित हुआ. लेकिन चार–पांच साल के बहुत कम वक्फे में ही इस सेंटर में भारत के चोटी के कलाकारों का जमघट हो चुका था जिसमें गुरु दत्त, शांति बर्धन, अमला शंकर, रूमा गुहा ठाकुरता, प्रभात गांगुली, जोहरा सहगल, उजरा, लक्ष्मी शंकर जैसे शानदार कलाकारों के साथ–साथ उदय के छोटे भाई पंडित रवि शंकर जैसे संगीत, नृत्य और परफॉर्मिंग आर्ट्स की विभूतियों का जुटान हो गया.
इन्हीं लोगों में एक नाम और था दीना पाठक की बड़ी बहन शांता गांधी का. शांता अपने समय की महान नाटक निर्देशक, प्ले राइटर और नर्तक हुई हैं. एनएसडी और इप्टा में इनके अतुलनीय योगदान के अतिरिक्त इनके लिखे दो अमर नाटकों रज़िया सुल्तान और जसमा ओढ़न के लिए इन्हें हमेशा याद किया जाएगा.
जसमा ओढ़न की कथा अन्य स्थानों की लोक कथाओं की तरह ही निर्बल आम जन को मजबूत शासक वर्ग के खिलाफ़ अपना अस्तित्व दर्ज कराने की छटपटाहट का आख्यान है.
काठियावाड़–गुजरात और दक्षिणी राजस्थान में राजपूतों की एक माइग्रेटरी जनजाति पाई जाती है ओढ़, जिसका मुख्य पेशा मजदूरी हुआ करता था. उसी जनजाति के एक मजदूर रुद की पत्नी जसमा बहुत खूबसूरत थीं. वर्तमान पाटन जिले में तालाब खोदने का कार्य कर रहे इन मजदूरों के बीच जसमा पर चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज जयसिंह की नज़र पड़ी. राजा ने जसमा की सुंदरता पर मोहित होकर उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, गुजरात की रानी बनाने की पेशकश भी की लेकिन जैसा कि होना था, ज़मीर की पक्की जसमा ओढ़न ने साफ़ मना कर दिया.
तमतमाए हुए राजा सिद्धराज ने उसके पति की हत्या कर दी. जसमा अपने सम्मान की रक्षा के लिए चिता में कूदकर सती हो गई. लेकिन मरने से पहले उसने दो श्राप दे दिए– एक श्राप की वजह से चालुक्य वंश की शान, सहस्रलिंग तालाब, हमेशा–हमेशा के लिए सूख गया और दूसरा, राजा सिद्धराज निरबंसिया यानी उत्तराधिकारीहीन हो गया. ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में घटित इस इस मिथकीय घटना के बाद खुद जसमा ओड़न एक लोक देवी के रूप में स्थापित हुईं और आज भी बहुत पूजी जाती हैं.
भवई या स्वांग या वेश पौराणिक कथाओं पर आधारित एक लोक नाट्य रूप है. शांता गांधी ने इस नाट्य रूप में लोक में प्रचलित जसमा ओढ़न की कहानी को मंचीय प्रदर्शन के लिए साठ के दशक में नाटक लिखकर पुनर्जीवित कर दिया.
अकबरनामा के अनुसार सन पंद्रह सौ इकसठ में बैरम खां मक्का जाते वक्त पाटन में रुका था और इस तालाब में नौकायन करके लौटते वक्त ही उसकी हत्या हुई थी, यानी तालाब सूखा नहीं था. लोक कथाओं और मिथकों में सच ढूंढने वाले इस तरह की बात कहते हैं. लोक कथाओं में सौंदर्य पाने वाले एक रानी, एक स्त्री, एक पत्नी उदयमति द्वारा अपने पति भीम प्रथम की याद में सहस्रलिंग तालाब के टक्कर की या कहें कि उससे भी खूबसूरत बावड़ी ‘रानी की वाव’ बनाए जाने को भी बेहद मुलायमियत से निहारते हैं.
पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक प्राचीन शहर जौनपुर में जन्मे अमित श्रीवास्तव भूमंडलीकृत भारत की उस पीढ़ी के लेखकों में शुमार हैं जो साहित्य की विधागत तोड़-फोड़ एवं नव-निर्माण में रचनारत है. गद्य एवं पद्य दोनों ही विधाओं में समान दख़ल रखने वाले अमित की अब तक चार किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं- बाहर मैं, मैं अंदर (कविता संग्रह), पहला दख़ल (संस्मरण) और गहन है यह अंधकारा (उपन्यास) और कोतवाल का हुक्का (कहानी संग्रह)। सम सामयिक राजनीति, अर्थ-व्यवस्था, समाज, खेल, संगीत, इतिहास जैसे विषयों पर अनेक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं/ ऑनलाइन पोर्टल पर प्रकाशित हैं। भाषा की रवानगी, चुटीलेपन एवं साफ़गोई के लिए जाने जाते हैं. भारतीय पुलिस सेवा में हैं और फ़िलहाल उत्तराखंड के देहरादून में रहते हैं. [email protected]
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