प्रो. मृगेश पाण्डे

अंगरियाल का डंक हो या पुठ पीड़ सभी का रामबाण इलाज हुआ पहाड़ में

जाड़ों में बदन को चुस्त, गरम रखने के लिए कई चीजें खाई जाती. ये निरोगी भी बनाये रखतीं. आस पास उग रही भेषजों को भी आहार में शामिल किया जाता . ठंड सहने और गलड़े लाल बनाये रखने को हरी सब्जी की भरमार होती. पूस के महीने की ठंड में खेतोँ में बड़े जतन से पालक, मेथी, काली लाई, झुरमुरिया लाई, बेथुआ, चुवा या चौलाई, उगल, राई, हालंग या चमसुर उगाये जाते. (Natural Remedies for Different Diseases)

इनको खूब खाद वाली जगह पे बोया जाता. जिन जगहों  से खाद सार ली जाती उन टुकड़ों पे हरा साग खूब उगता. सब्जी वाली क्यारियों में राख भी डाली जाती. इससे गुबरेले भी नहीं होते और पत्तियों में हरा काला या काया पन भी खूब आता. कितौले या केंचुवे भी खूब पनपते हालांकि जाड़ों में वह अलोप ही हो जमीन के  खूब भीतर अपने कारबार में लगे रहते.

जाड़े जाते तो बसंत ऋतु आती. छोटे छोटे सीढ़ीदार खेतोँ, ‘तिलवाडों ‘में पीली सरसों खिल जाती. कहा जाता पूस जाते ही ऊँची नीची  क्यारियों में पीली सरसों दिखने लगती. जंगल से क्वैराल की फली, तिगुंणा, सिसूण की छोटी नाजुक पत्ती, कैरूवा की कली, पुनर्नवा का झाड़, बेलों  में उगी गेठी, ओने कोने ढेर वनस्पति के साथ उगा लिगुणा, टीपा किल्मोड़ा और भिलमोडा, और पत्थर वाली जगहों से खोदा तरुड़ भी सब्जी बनाने के काम आता.

आमा बूबू बताते भी कि हालंग का साग खूब गरम होता, जतकालियों  के लिए तो रामबाण. क्वैराल पेट की सब विघ्न बाधा दूर कर देता. पुनर्नवा पीड़ भी हरता और नसों को भी खेंच देता. गेठी और तरुड़ खूब ताकतवर, धों फों करने वालों, खूब हाथ पैर चलाने वालों के लिए  ताकत की खुराक. फिर किलमोड़े कि जड़ तो पथरी भी गला दे और पिसाब का कोई रोग ही ना  पनपने दे. साथ ही इसकी कोमल पत्ती का साग खटमीठ होताऔर तासीर जड़ जैसी ही.  च्यूं या कुकुरमुत्ता भी बदन को गरम रखता, निगरगंड बनाता. 

सब्जियों के खास मसालों में भेषज के गुण वाली गन्धरायण की जड़ भी नाप तोल  के धनिया, हल्दी, लाल हरी मिर्च के साथ डाली जाती. इसे वात नाशक कहा जाता. सब्जी में गंद्रेणी डालने से एक अलग की खुसबू आती. अपानवायु भी खुल के आती और डकार का भी भेद  होता. ज्यादा पड़ जाने पर यह सब्जी के स्वाद को अजीब बकेन कर देती. इसलिए सावधानी से कायदे से भून कर कम मात्र में डाली जाती.

सरसों के तेल में धीमा भून इसका तेल पुठपीड़ और मोच को भी दूर करता. गंद्रेणी के अलावा दुन की हरी पत्तियों का बघार या छौंक सब्जियों में मोहक सी खुसबू पैदा करता. दुन के बल्ब लहसुन के छोटे भाई जैसे होते. दुन की तासीर भी गरम खुश्क व वात नाशक कही गई. क्यारियों में अन्य सब्जियों के साथ अलग से भी इसे बोया जाता. हरे लहसुन की तरह पर उससे पतले पत्ते दुन के होते, जिन्हें काट कर छाया में सुखा लिया जाता. (Natural Remedies for Different Diseases)

पहाड़ की लहसुन भी अन्य की तुलना में मोटे गूदे व कड़े छिक्कल वाली होती. इसमें गंध भी ज्यादा होती. लहसुन को साबुत धनिये और लाल खुसियाणी के साथ हल्दी की गाँठ के साथ सिल पर दरदरा या बारीक़ सब्जी की जरुरत के हिसाब से पीस लिया जाता. छौंक के समय कड़ुए तेल में भूनते.

पहाड़ में जीवन यापन की कठिन दिनचर्या में बाय और प्रसूत के साथ पुठ पीड़ के इलाज में भी मोटे लहसुन की कलियों को खाने और सरसों के तेल में भड्या के इनका तेल दर्द वाले अंगों में घसोङने का काफ़ी चलन होता. इस तेल में अजवाइन और मेथी भी डाली जाती और थोड़ी लौंग भी. जहरीले  कीड़ों के काटने पर भी लहसुन थेच कर बना लेप लगाया जाता. अंगरियाल के काटने पर भी डंक निकाल लासन का लेप लगा देते.

सिरफ एक कली वाला लसूण भी होता जो ठंड की तमाम आदि-व्याधि में घर के बड़े सयानों के हाथों पुत्ता भर यानि अनुपान भेद से दिया जाता. ऐसे ही प्याज़ की भी कुछ खासमखास वैरायटी होती जिन्हें जंगल और खेतोँ के इनारे किनारे से खोदा जाता, इन्हें वनप्याजी कहा जाता साइंस वाले इन्हें उर्गेनिआ इंडिका कुंठ कहते बल.

ऐसे ही जंगलों में बन तुलसी, वन तरुड़ या वन तेड़, वन मजीठी, वन पिनाऊ  व वन हल्दी भी मिलती. वन प्याज़ी का उपयोग बीमारी पीड़ा चसक मोच में अकेले या शहद और घी का लेप तैयार कर पूरे जतन से किया जाता. सयाने बताते कि जंगली लासन और प्याज़ के चार भाग में शहद एक भाग और एक तिहाई भाग मौ या शहद मिला कर बना अवलेह कोई बीमारी नहीं आने देता, गलड़े  भी लाल रहते और रोगों कि पित्याट भी ख़तम.

आंग-बदन के लिए बड़े भले माने जाने वाले लासन और प्याज़ को पूजा-पाठी, विधवा सैणीयाँ, और भी घर कुटुंब की औरतें तथा निर्मांसी नहीं खाते. उनका विश्वास होता कि शिकार की तरह लासन प्याज़ से गर्मी ज्यादा बढ़ती, जिससे काम क्रोध के लक्षण बढ़ते. दूसरा इनमें तेज बास भी होती जिसे प्याजेंन व लासडैन कहा जाता. इनके साथ ही च्यूं या कुकुरमुत्ते को भी तामसी मना जाता. कई लोग इनसे दूर ही रहते. पूजा, बर्त, श्राद्ध, संवत्सर, एकादशी, नवरात्रि के समय तो सभी के लिए बिलकुल ही वर्जित हुआ. (Natural Remedies for Different Diseases)

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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  • ज्ञान वर्धक आलेख प्रोपेसर साब, धन्यवाद आप खुणि

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